कृच्छ और मृदु चान्द्रायण

January 1964

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चान्द्रायण व्रत के विधि विधान अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। विभिन्न शारीरिक और मानसिक स्थिति के व्यक्तियों लिए—विभिन्न पापों के प्रायश्चितों के लिए— आत्म-बल को विभिन्न दिशाओं में बढ़ाने के लिए शास्त्रकारों ने अनेक विधानों के चान्द्रायण व्रतों का उल्लेख किया है। देश-काल-पात्र के भेद से भी इस प्रकार के अन्तर बताये गये हैं। किसी युग में लोगों की शारीरिक स्थिति बहुत अच्छी होती थी, वे देर तक कठोर उपवास एवं तप साधन कर सकते थे। इसलिए उन परिस्थितियों को देखते हुए उस प्रकार के कठोर विधानों का बनाया जाना स्वाभाविक भी था। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कृच्छ और मृदु भेद से दो प्रकार के चान्द्रायण व्रत माने गये हैं। कृच्छ चान्द्रायण व्रत का विधान उन लोगों के लिए है जिनसे कोई बड़े पाप बन पड़े हैं, अथवा तीव्र तपश्चर्या कर सकने की सामर्थ्य जिनमें है। बहुत कर इनका उपयोग सतयुग आदि पूर्व युगों में होता था जब मनुष्य की सहन-शक्ति पर्याप्त थी।

मृदु चान्द्रायण-शारीरिक और मानसिक दुर्बलता वाले व्यक्ति यों के लिए है। इसे स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध सभी कर सकते हैं। छोटे पापों के शमन और थोड़ा आत्म-बल बढ़ाने में भी इस व्रत से बहुत सहायता मिलती है। आरोग्य की दृष्टि से यह एक प्रभावशाली चिकित्सा का काम देता है। विशेषतया उदर रोगों के लिए यह चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है। मृदु चान्द्रायण को कई ग्रन्थों में शिशु चान्द्रायण भी कहा गया है क्योंकि वह कठोर चान्द्रायण की तुलना में बालक ही है।

स्कन्द पुराण में चान्द्रायण व्रत की चर्चा के संदर्भ में युधिष्ठिर और कृष्ण का संवाद मिलता है। युधिष्ठिर पूछते हैं :—

चक्रायुध नमस्तेऽस्तु देवेश गरु णध्वज।

चान्द्रारण विधिं पुण्यमाख्याहि भगवन मम॥

अर्थात्—”चक्रायुध और गरुणध्वज धारण करने वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करके युधिष्ठिर ने पवित्र चान्द्रायण व्रत का वर्णन करने की प्रार्थना की।”

भगवान ने इस महाव्रत का महात्म्य बताते हुए कहा—

चान्द्रायणेन चीर्णेन यत् कृतं तेन दुष्कृतम्।

तत् सर्व तत्क्षणादेव भस्मी भवति काष्ठवत्॥

अर्थात्—”चान्द्रायण व्रत करने से मनुष्य के किये हुए पाप उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे जलती हुई अग्नि में काष्ठ जल जाता है।”

अनेक घोर पापानि उपपातक मेवच।

चान्द्रायर्णन नश्यन्ति वायुना पाँसवो यथा॥

अर्थात् “अनेकों घोर पाप तथा सामान्य पाप चान्द्रायण व्रत से उसी प्रकार उड़ जाते हैं जैसे आँधी चलने पर धुलि के कण।”

कृच्छ चान्द्रायण के विधान-भाग का कुछ अंश इस प्रकार है :—

शोधयेत् तु शरीरं स्वं पंचगव्येन मन्त्रितः।

स शिरः कृष्ण पक्षस्य तत् प्रकुर्वीत वापनम्।

शुक्ल वासाः शुचिर्भूखा मौञ्जों वन्धीत मेखलाम्

पलाश दण्डमादाय ब्रह्मचर्य व्रते स्थितः।

कृ तोपवासः पूर्व तु शुक्ल प्रतिपादे द्विजः।

नदी संगम तीर्थेषु शुचौ देशे गृहेऽपिवा।

अर्थात्—”शरीर को (दश स्नान-विधान से) शुद्ध करें। अभिमन्त्रित करके पंचगव्य पीवे। सिर को मुँड़ाकर कृष्ण पक्ष में व्रत आरम्भ करे। श्वेत वस्त्र पहने, पवित्र रहे, कटि प्रवेश में मेखला (लँगोट) धारण किये रहें। पलास की लाठी लिये रहे और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। नदी के संगम, तीर्थ एवं पुष्प प्रदेशों में अथवा घर में रहकर भी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा में चान्द्रायण व्रत आरम्भ करें।

नदीं गत्वा विशुद्धात्मा सोमाय वरु णाय च।

आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात् समाहितः।

उतीर्योदक माचम्य च स्थित्वा पूर्वतो मुखः।

प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रेरभिसेचनम्।

वीरघ्न मृषभं वापि तथा चाप्यधमर्वषम्।

गायत्री मम देवीं या सावित्रीं वा जपेत् ततः।

अर्थात्—”शुद्ध मन से नदी में स्नान करे। सोम, वरुण और सूर्य को नमस्कार करें। पूर्व को मुख करके बैठे। आचमन, प्राणायाम, पवित्री कारण, अभिसिंचन, अधमर्षण आदि संध्या-कृत्यों को करता हुआ सावित्री-गायत्री का जप करें।”

आधारा वाज्य भागो च प्रणवं व्याहतिस्तथा।

वारु णं चैव पञ्चैव हुत्वा सर्वान् यथा क्रमम्।

प्रणम्य धाग्निं सोमं च भस्य धृत्वा यथा विधि।

“आधार होम, आज्य भाग, प्रणव, व्याहृति, वरुण आदि का विधिपूर्वक हवन करें और अग्नि तथा सोम को प्रणाम करके मस्तक पर भस्म धारण करें।”

अंगुल्थग्रे स्थितं पिण्डं गायञ्याचाभिमन्त्रयेत्।

अंगुलीभिस्त्रिभि पिण्डं प्राश्नीयात् प्रां शुचिः।

यथा च वर्धते सोमो ह्रसते च यथा पुनः।

तथा पिण्डाश्च वर्धन्ते ह्रसन्ते च दिने दिने।

अर्थात्—”तीन अँगुलियों पर आ सके इतना अन्न का पिण्ड गायत्री से अभिमन्त्रित करके पूर्व की ओर मुख करके खाये। जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा घटता है उसी प्रकार भोजन घटाये और शुक्ल पक्ष में जैसे चन्द्रमा बढ़ता है वैसे-वैसे बढ़ावे।

कृच्छ चान्द्रायण के चार भेद माने गये हैं। (1) पिपीलिका मध्य चान्द्रायण। (2) यव मध्य चान्द्रायण। (3) यति चान्द्रायण। (4) शिशु चान्द्रायण। इन चारों में ही 240 ग्रास भोजन एक महीने में करना पड़ता है। पिपीलिका मध्य चान्द्रायण वह है जिसमें पूर्णमासी का 15 ग्रास खाकर क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं और अमावस्या व प्रतिपदा को निराहार रहकर दोज से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पुनः 15 ग्रासों पर जा पहुँचते हैं।

यव मध्य चान्द्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास लेवे इसके पश्चात् पूर्णिमा तक एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ 15 ग्रास तक पहुँचे। इसके बाद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाते हुए अमावस्या को निराहार की स्थिति तक जा पहुँचे।

यति चान्द्रायण में मध्याह्न को प्रतिदिन आठ-आठ ग्रास खाता रहे। न किसी दिन कम करे न अधिक।

शिशु चान्द्रायण में प्रातः 4 ग्रास और सायंकाल 4 ग्रास खाए जाते हैं और यही क्रम नित्य रहता है।

इस प्रकार इन सभी कृच्छ चान्द्रायणों में एक महीने में 240 ग्रास भोजन किया जाता है। ग्रास के दो अर्थ किये गये हैं। वीद्धायन का कथन है—

“पिण्डान् प्रकृति स्थात प्राश्नति”

अर्थात्—साधारणतया मनुष्य जितना बड़ा ग्रास खाता है वही ग्रास का परिमाण है। महर्षि अत्रि ने इस संदर्भ में अपना मत भिन्न व्यक्त किया है। उनने लिखा है :—

कुम्कुटाण्ड प्रमाणं स्याद् यावद् वास्य मुख विशेत्।

एतं ग्रासं विजानीयुः शुद्ध्यर्थे काय शोधनम्॥

अर्थात्—”मुर्गी के अण्डे की बराबर ग्रास माना जाय अर्थात् जितना मुँह में समा सके उसे ग्रास कहा जाय।”

शास्त्रकारों ने जहाँ अनेक विधि-विधानों का वर्णन किया है वहाँ देश, काल, पात्र की परिस्थितियों का ध्यान रखने का भी निर्देश दिया है। कृच्छ चान्द्रायण व्रत की कुछ बातें ऐसी हैं जो आज की स्थिति में सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं। सिर का मुण्डन कराना किसी समय साधारण बात रही होगी। आज कोई व्यक्ति समाज में इस प्रकार रहे तो उस पर व्यंग-बाण छोड़े जायेंगे और मूर्ख ठहराया जायगा। सधवा महिलाओं के लिए तो यह एक प्रकार से असम्भव ही होगा। इसी प्रकार पूरे भोजन में जितने ग्रासों की सीमा नियत है उतने मात्र से गुजारा भी कठिन है। जप तथा होम, दान आदि का जो विस्तृत वर्णन है, उतना भी सबसे नहीं निभ सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में मृदु चान्द्रायण व्रत ही सर्वसाधारण के लिए उपयोगी हो सकता है।

मृदु चान्द्रायण करते हुए भी गायत्री पुरश्चरण करने से अन्तःकरण में सात्विकता एवं आत्म-बल की असाधारण वृद्धि होती देखी गई है। इस एक महीने की अवधि में मनोभूमि में आशाजनक परिवर्तन होता है। कुविचारों और कुकर्मों की ओर से मन में घृणा उत्पन्न होती है और भविष्य में शुद्ध जीवन व्यतीत करने की भावना स्वयमेव जागृत होने लगती हैं। पिछले किये हुए पापों के प्रति आत्म-ग्लानि और प्रायश्चित की आकाँक्षा जागृत होने से मनुष्य का अन्तरात्मा अपने को धिक्कारता है और जो हानि समाज को पहुँचाई है उसे उस रूप में ज्यों की त्यों न सही किसी दूसरी प्रकार से पूर्ण करने की योजना बनाता है। शरीर से कष्ट सहकर उपवास करना, मन से आत्म-निरीक्षण करते हुए अपनी भूलों को ढूँढ़ना, हटाना और जो अशुभ अब तक बन पड़ा है उसकी क्षतिपूर्ति के लिए किन्हीं पुण्य कर्मों का आयोजन करना यही चान्द्रायण व्रत का मूल आधार है। यदि आधार स्थिर रहे तो चान्द्रायण व्रत का पूरा-पूरा लाभ साधक को मिल सकता है, भले ही आहार तथा आकार सम्बन्धी विषयों में थोड़ी ढील भी रखी जाय। वृहद् चान्द्रायण का विधान कठिन और मृदु चान्द्रायण का सुगम है। स्थिति के अनुसार ही इनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। आज की स्थिति मृदु चान्द्रायण की ही है पर उसमें भी भावनात्मक उत्कृष्टता बनी रहे तो प्रतिफल में कोई विशेष अन्तर नहीं आता।


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