कठिनाईयों का भी स्वागत करें

January 1964

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मानव-जीवन संघर्षपूर्ण है। जीवन में नित्य ही नये-नये उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रसन्नता-शोक, जन्म-मरण, आदि द्वन्द्व जीवन में आते-जाते रहते है। लेकिन हम केवल सुख, प्रसन्नता, लाभ, सफलता की ही आकाँक्षा रखते हैं। इसके विपरीत दुःख, कठिनाईयाँ, परेशानियाँ, समस्याओं से हम कतराते हैं। उनसे घबराकर उनकी कल्पना भी जीवन में नहीं करना चाहते, किन्तु हममें से प्रत्येक को अपनी इच्छा के विरुद्ध भी जीवन में इनका सामना करना ही पड़ता है। उस स्थिति में हममें से बहुत से रोने लगते हैं जो इन कठिनाईयों को ही अपने विकास, उत्थान, महानता तथा प्रगति का साधन बना लेते हैं। महर्षि व्यास ने कहा है - “क्षुद्रमना लोग ही दुःख के वशीभूत होकर अपना तप-तेज, शक्ति को नष्ट कर लेते हैं। किन्तु पुरुषार्थी, महामना लोग कष्टों को भी अपनी सफलता और विकास का आधार बना लेते हैं।”

रोना-धोना, शोक करना, चिन्ता, विषाद में खिन्न हो बैठना, हार मान लेना, कठिनाइयों, दुःखों का कोई समाधान नहीं है। ऐसी स्थिति में तो कठिनाइयाँ सुरसा की तरह बढ़कर समस्त जीवन को ही छिन्न-भिन्न कर देती हैं। यह भी निश्चित है जीवन के साथ दुःख और कठिनाइयाँ सदैव रहे हैं और रहेंगे। इनसे कभी छुटकारा नहीं पाया जाता है। उपनिषद्कार ने कहा है “न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोर पद्धति रस्ति।” (छान्दोग्य) निश्चय ही जब तक यह शरीर बना हुआ है तब तक सुख और दुःख निवारण नहीं हो सकता। कठिनाइयाँ, जीवन का उसी तरह एक अनिवार्य अंग है जिस तरह रात्रि का होना, ऋतुओं का बदलते रहना।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि कठिनाइयों के रहते हुए भी आगे बढ़ा जाये। इन्हें जीवन को विकसित और महान् बनाने का आधार क्यों न बना लिया जाय? हार मान बैठने पर तो ये हमें मटियामेट ही कर देंगी।

दृढ़ साहस निष्ठा से काम लेने पर, अविचल भाव से अपने पथ पर बढ़ते रहने से ये समस्यायें ही मनुष्य की सहायक और सहयोगी बन जाती हैं। स्मरण रखिये उन्नति एवं सफलता का मार्ग कष्ट एवं मुसीबतों के कंकड़-पत्थरों से ही बना है। प्रत्येक महान् बनने वाले व्यक्ति को इसी मार्ग का अवलम्बन लेना पड़ता है। जिस तरह विष को शुद्ध करके अमृत के गुण प्राप्त कर लिये जाते हैं उसी प्रकार कठिनाइयों का भी शोधन कर इन्हें आत्मोत्थान का आधार बनाया जा सकता है।

कठिनाइयाँ एक रूप में उस स्थिति का नाम हैं जहाँ मनुष्य अपना पूरा-पूरा समाधान प्राप्त नहीं कर पाता। ‘क्या करूं? क्या न करूं’ का निर्णय नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में एक रास्ता तो उन लोगों का है जो रो-रोकर, शोक करके, चिन्ता विषाद में डूब कर अपना समय बिताते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं जो समस्या के समाधान में अधिक मनोयोगपूर्वक विचारमग्न होते हैं। समाधान जल्दी ही मिले इसके लिये व्यस्त रहते हैं। यही मार्ग उत्तम है। कठिनाइयों में रोने के बजाय उनके समाधान का मार्ग ढूँढ़ना ही रोग का सही इलाज है। रोगी को औषधि न देकर, उसके इलाज की व्यवस्था न करके रोग और रोगी के लिये रोते रहने से तो संकट बढ़ेगा ही। इसलिये कष्ट के वक्त अपने समस्त बुद्धि, विवेक, और प्रयत्नों को, इनके हल करने में लगा देना चाहिये। इससे तीन लाभ होंगे। (1) जब समस्त शक्तियाँ एकाग्र होकर किसी क्षेत्र में काम करेंगी तो सन्तोषजनक समाधान भी मिलेगा। (2) साथ-ही शक्तियाँ अधिक सूक्ष्म और विकसित होंगी। (3) बुद्धि, विवेक, अनुभव, बढ़ेंगे। मनुष्य के व्यस्त रहने से कठिनाइयों के प्रति शोक, चिन्ता, एवं उद्विग्नता में डूबने के लिए कोई समय ही नहीं मिलेगा। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है - “व्यस्त मनुष्य को आँसू बहाने के लिये समय नहीं रहता।”

कठिनाइयाँ एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत व्यक्ति सुदृढ़, प्रबुद्ध एवं अनुभवी बनता है। प्रारंभिक कठिनाइयाँ मनुष्य को बहुत ही भयंकर जान पड़ती हैं। किन्तु धीरे-धीरे वही व्यक्ति कठिनाइयों में पलते-पलते इतना दृढ़ एवं परिपक्व हो जाता है कि जिन स्थितियों में वह भयभीत रहा करता था चिन्ता और विवाद में डूबा रहता था उन्हीं स्थितियों में वह बेधड़क हो जीवनपथ पर चलने लगता है।

आप कठिन परिस्थितियों से घबरावें नहीं न इनसे शोकातुर ही हों। ये तो आप के जीवन को विकसित और परिपुष्ट बनाने के लिये आती हैं। सोना तपकर ही निखरता है। इसी तरह मनुष्य का जीवन भी कठिनाइयों में पलकर ही खिलता है।

कठिनाइयाँ जीवन की कसौटी हैं, जिनमें हमारे आदर्श, नैतिकता एवं शक्तियों का मूल्याँकन होता है। दुःख और कठिनाइयाँ ही जीवन का एक ऐसा अवसर हैं जिसमें मनुष्य अपने आन्तरिक जीवन की ओर अभिमुख होता है। विपत्तियों में ही मनुष्य अपने जीवन, जगत, प्रकृति, आत्मा परमात्मा के बारे में सोचने को बाध्य होता है। सुखद् परिस्थितियों में और तो और मनुष्य अपना आपा भी भूल जाता है। नैतिकता, धर्म, ईश्वर आदर्शों के प्रति उदासीन हो जाता है। सुख की मादक मस्ती में मनुष्य के बुद्धि, विवेक, विचारशीलता नीति एवं सदाचार तिरोहित हो जाते हैं। इसलिये महाभारत में वेद-व्यासजी ने लिखा है “दुःख में ही दुःखियों के प्रति हमदर्दी पैदा होती है और मनुष्य भगवान का चिन्तन करता है। सुख में मनुष्य का हृदय संवेदना रहित कठोर बन जाता है और मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है।” दुखों में ही अपने भले-बुरे विचार सकने का विवेक पैदा होता है। रहीम जी ने कहा है-

रहिमन विपदाहू भली जो थोड़ दिन होय।

हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय॥

जब मनुष्य सुख की नींद में सोया रहता है तो और तो और अपने जीवन के शाश्वत लाभ तथा संसार में अपने कर्त्तव्य को भूला रहता है। किन्तु दुःख का झटका उसे इस नींद से जगाता है और मनुष्य को क्या करना है, वह किस लिये आया है, संसार में उसका क्या कर्त्तव्य धर्म है इसका पाठ मजबूरन सिखाता है। दुःख के झकझोर डालने पर जब हम अपने ध्येय और कर्त्तव्य में एकाग्र होकर लग जाते हैं, जीवन को सक्रिय बना लेते हैं तो वही दुःख कालान्तर में सुखद परिणाम लेकर आता है। आन्तरिक बाह्य जीवन में सुख का संचार होता है। दुःख, सुखों का सन्देश लेकर आता है यह कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

हम व्यर्थ ही दुखों में रोते हैं। अपने भाग्य या ईश्वर को कोसते हैं। दुःख तो प्रकृति माता की वह प्रक्रिया है ईश्वर का वह वरदान है जिसमें हम सचेष्ट होते हैं, जीवन की शक्तियों को उपयोग में लाते हैं और इससे हमारे सुन्दर और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होता है।

सुख को हम प्यार करते हैं किन्तु दुःख में रोते हैं चिंता, शोक, में डूब जाते हैं। यह हमारे एकाँगी दृष्टिकोण और अज्ञान का परिणाम है। सुख की तरह ही दुःख भी जीवन का अभिन्न पहलू है। यदि दुःख न रहें तो हम सुख से ऊब जायेंगे। सुख के मादक नशे में एक दूसरे का नाश कर लेंगे। इतना ही नहीं हम सुख का मूल्य ही नहीं समझ सकेंगे। रात्रि के अस्तित्व में ही दिन का जीवन है। रात्रि न हो तो दिन महत्वहीन हो जायेगा। जिस तरह रात और दिन एक ही काल के दो पहलू हैं उसी तरह सुख दुःख भी हमारे जीवन के दो पहलू हैं। जिस तरह रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आती है उसी तरह दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख का क्रम चलता ही रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि सुख की तरह ही हम दुःख का भी स्वागत कर, उसमें शान्तमना, स्थिर, दृढ़ रहकर अपने कर्त्तव्य में लगे रहें।

स्मरण रखिये जीवन के शाश्वत मूल्यों को समझ लेने पर, कर्तव्य में जुट आने पर कठिनाई दुःख नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रहती। सदा से धरती पर दुःख, द्वन्द्व, शोक है और आयेंगे। इनका सर्वथा निवारण नहीं हो सकता अतः इनमें रोने और शोक करने से, चिन्ता विषाद में डूबने से तो जीवन को पूर्ण विराम ही लग जायेगा। अतः हमें इन्हीं में आगे बढ़ना होगा।


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