गायत्री उपासना से कामनाओं की पूर्ति

July 1952

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(श्री स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती, उत्तरकाशी)

गायत्री की उपासना एक बड़ा ही महत्वपूर्ण आध्यात्मिक व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर का बल बढ़ता है वैसे ही उपासना रूपी आध्यात्मिक व्यायाम से आत्मिक बल बढ़ता है। जैसे रुपए की शक्ति से बाजार में बिकने वाली चाहे जिस वस्तु को खरीद सकते हैं वैसे ही आत्मिक शक्ति के बदले में भी नाना प्रकार की साँसारिक एवं आत्मिक समृद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

“व्यायाम से शक्ति प्राप्त होती है” यह एक पूर्ण सत्य और पूर्ण निश्चित सिद्धान्त है। तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि इतने व्यायाम का परिणाम निश्चय यही हो जायेगा। कोई व्यक्ति यह पूछे कि मैं अपनी छाती की चौड़ाई बढ़ाना चाहता हूँ इसके लिए मुझे क्या व्यायाम करना पड़ेगा तो अनुभवी व्यायाम विशारद उसे उसका तरीका बता सकता है पर वह व्यक्ति यह चाहे कि छाती की इतनी इंच चौड़ाई, इतने दिनों में निश्चित रूप से बढ़ जायेगी इसकी गारण्टी दी जा सके तो वैसा नहीं हो सकता। क्योंकि यद्यपि निर्विवाद रूप से व्यायाम करना एक अच्छा स्वास्थ्य सुधारक उपाय है पर उसके साथ ही भोजन, दिनचर्या, ब्रह्मचर्य, मानसिक सन्तुलन, जल वायु, अवस्था, ऋतु, स्वभाव आदि भी बहुत बड़े कारण हैं जिनसे स्वास्थ्य का सम्बन्ध है। फिर माता-पिता के रज वीर्य का सूक्ष्म प्रभाव एवं शरीर का ढांचा भी अपना विशेष महत्व रखता है। यह सब परिस्थितियाँ यदि अनुकूल हों तो वह व्यायाम बहुत भारी लाभ थोड़े ही समय में दिखा देता है और परिणाम ऐसा आश्चर्यजनक निकलता है कि देखने वाले दंग रह जाते हैं। इस व्यायाम के करने वाले ने जितने इंच छाती की चौड़ाई बढ़ाने के लिए व्यायाम किया था उससे भी अधिक बढ़ जाती है और वह व्यायाम करने वाला व्यायाम की महत्ता का गान करते-करते नहीं थकता।

इसके विपरीत एक दूसरा व्यक्ति व्यायाम करता है। उसकी भी इच्छा छाती की चौड़ाई बढ़ाने की है। वह भी उसी रीति से वही व्यायाम आरम्भ करता है परन्तु उसके माता-पिता का रज वीर्य निर्बल है। बाल्यावस्था में विवाह हो जाने से कच्चे वीर्य का क्षरण होने से देह खोखला हो गई है। निर्धनता के कारण पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं है, जो पेशा उसका है, उसमें बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता है, कर्जदारों की चिन्ता से हर वक्त परेशान रहता है, रहने का मकान गन्दे मुहल्ले में है, तमाखू शराब आदि के व्यसन लगे हुए हैं। इन सब कठिनाइयों के रहते हुए वह कुछ दिन व्यायाम करता है पर कोई विशेष लाभ दिखाई नहीं पड़ता। उसका व्यायाम की महत्ता पर से विश्वास उठ जाता है और थोड़े ही दिनों में उसे छोड़ बैठता है। उसका कहना है कि व्यायाम की प्रशंसा करना बिल्कुल झूठी बात है मैंने कसरत करने में इतना समय बर्बाद किया पर मेरी छाती एक इंच भी चौड़ी न हुई? मैं कैसे मानूँ कि किसी दूसरे की छाती इसी व्यायाम से चौड़ी हुई होगी। कभी-कभी उसकी निराशा छिद्रान्वेषी भी हो जाती है। वह सोचता है कि उस्ताद ने मुझे वह विधि नहीं बताई है जो अमुक लाभ उठाने वाले को बताई थी। कभी कभी वह सोचता है मेरा भाग्य ही विपरीत है मुझे किसी उपाय से भी लाभ न होगा। मेरे लिए कोई प्रयत्न करना बेकार है।

ऐसे ही उदाहरण आध्यात्मिक व्यायाम में—गायत्री उपासना में भी उपस्थित होते हैं। कई व्यक्ति जन्म जन्मान्तरों के संचित शुभ संस्कारों और वर्तमान जीवन में उपयुक्त मनोभूमि रहने के कारण बहुत शीघ्र उन्नति कर जाते हैं और उन्हें आशाजनक आत्मिक उत्कर्ष एवं आश्चर्यजनक साँसारिक लाभ मिलते हैं परन्तु दूसरा व्यक्ति जिसके संचित कर्म, एकत्रित संस्कार और वर्तमान जीवन के उपयुक्त अवसर प्राप्त नहीं हैं, वे उसी साधना को उसी रीति से करते हुए भी कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाते। ऐसे लोग खिन्न होते हैं और साधना के प्रति अश्रद्धा भी प्रकट करते हैं। वे बहुत शीघ्र तात्कालिक सफलता असफलता के आधार पर अपना निर्णय दे देते हैं परन्तु उन सूक्ष्म बातों के अन्तर पर दृष्टिपात नहीं करते जो इन सफलता और असफलता की तह में काम करती हैं।

कोई पहलवान बने या न बनें,किसी की छाती की चौड़ाई बढ़े या न बढ़े यह सर्वमान्य सिद्धान्त सदा ही स्थिर रहेगा कि “व्यायाम स्वास्थ्य के लिए एक उत्तम साधन है।” गायत्री उपासना के सम्बन्ध में भी यही बात है। साधक का अपनी साँसारिक या आत्मिक उन्नति का मनोवाँछित लक्ष पूर्ण हो चाहे न हो पर इस महान साधना की उपयोगिता वैसे ही रहेगी जैसी अनादि काल से असंख्य प्रयोगों के बाद महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। जिन्हें लाभ नहीं हुआ है उन्हें व्यायाम को कोसने से काम न चलेगा, उन्हें वे कारण ढूँढ़ निकालने होंगे जो असफलता के कारण हैं। वे सब कारण यदि दूर न हो सकते हों तो उस अच्छे व्यायाम से यदि उन्नति कुछ कम होती हो तो उससे भी सन्तोष करके धीरे धीरे अधिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

घी और दूध निर्विवाद रूप से शरीर के लिए उत्तम पदार्थ हैं, उनसे देह का पोषण ही होता है परन्तु कोई व्यक्ति घी दूध सेवन करते हुए भी बीमार पड़ जाय तो उसका यह कहना कि “घी दूध खाना बिलकुल बेकार है इससे मेरी तन्दुरुस्ती बढ़ाना तो दूर उलटा बीमार हो गया।” ऐसे लोगों का निर्णय बहुत ही अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णय है, इस दोषारोपण से उन्हें कुछ लाभ न होगा, बीमारी से उठने पर वह इन उपयोगी पदार्थों से घृणा करने और छोड़ बैठने के फलस्वरूप स्वास्थ्य सुधार में और भी देर होगी। इस व्यक्ति के लिए बुद्धिमानी का मार्ग यह था कि वह बीमारी के उन कारणों को ढूँढ़ता जिनसे कि घी दूध का सेवन ही व्यर्थ नहीं गया, बीमारी भी गले पड़ी। वे कारण वस्तुतः दूसरे ही होंगे और थोड़ी सी गम्भीरता पूर्वक दृष्टि डालने से वे आसानी से ढूँढ़े जा सकते हैं। उन्हें दूर करना ही जल्दी अच्छे होने और भविष्य में बीमार न पड़ने का मार्ग है।

कोई चिकित्सा पद्धति अनेक रोगियों को निरोग बनाती है पर यदि किसी एक रोगी को उससे लाभ नहीं होता तो रोगी को उस चिकित्सा पद्धति को कोसने की अपेक्षा उन कारणों को ढूँढ़ना चाहिए जिससे उसके ऊपर की जाने वाली चिकित्सा सफल नहीं हो रही है।

व्यापार से धन कमाया जाता है यह सर्व विदित तथ्य है। किसी को व्यापार में घाटा हो तो उसे व्यापार विज्ञान की निंदा करने से कुछ लाभ न होगा। उसे उन बातों को ढूँढ़ना होगा जिनके कारण उसे घाटा उठाना पड़ा। इस सुधार से ही वह भविष्य में घाटे से बच सकता है और लाभ उठा सकता है।

एक ही स्कूल में एक ही शिक्षक से एक ही पाठ्यक्रम में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में से कुछ फेल होते हैं, कुछ तीसरी श्रेणी में-कुछ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते हैं और किन्हीं को वजीफा एवं पुरस्कार मिलता है। ऐसे विषम परिणाम देखकर फेल होने वाले विद्यार्थी को स्कूल, शिक्षक या शिक्षा पद्धति को दोष देना पर्याप्त नहीं वरन् आत्म निरीक्षण करके उन उपायों को अपनाना चाहिए जिनसे असफलता का खतरा भविष्य में सामने न आये।

उत्तम मार्ग के लिए बढ़ाया हुआ कदम हमेशा उत्तम ही परिणाम उत्पन्न करता है। किसी मनुष्य ने अमुक पहलवान को पछाड़ने के लिए पहलवानी आरंभ की और कदाचित वह उस पहलवान को पछाड़ न सके तो भी इतने दिन पहलवानी करने के फलस्वरूप उसे अनेक लाभ मिलेंगे। सुडौल शरीर, तेजस्वी चेहरा, निरोगता, दीर्घ जीवन, अधिक श्रम करने की शक्ति, प्रभावशाली व्यक्तित्व, साँसारिक सुखों व भोगों की क्षमता, बलवान संतान, शत्रुओं पर विजय, आदि अनेकों लाभ ऐसे हैं जो पहलवान को पछाड़ने की असफलता मिलने पर भी होते हैं। इसी प्रकार गायत्री उपासना से यदि मनोवाँछित सीमा तक लाभ न भी हो तो भी स्वभाव में, चरित्र में, विचारों में, स्वास्थ्य में, बुद्धि में जो भारी परिवर्तन होते हैं उनके कारण जीवन का विकास सुख शान्ति की दिशा में ही होता है। यह विकास एक दिन पूर्णावस्था तक पहुँच सकता है।

मैं गायत्री की निष्काम उपासना पर विश्वास करता हूँ। क्योंकि उस दिव्य शक्ति से अधिक लाभ उठाने का यही मार्ग सर्वोत्तम है। जब साधक का मन कामना के स्वार्थ और लोभ में लगा रहता है तो वह दिव्य शक्ति को अपना मतलब निकालने का एक जरिया मात्र समझता है। ऐसी क्षुद्र मनोभूमि को घटघट वासिनी माता भली प्रकार जानती है, और उसे कुत्ते को टुकड़ा फेंक देने की भाँति कभी कुछ दे देती है। परन्तु जो साधक स्वार्थ की कामनाओं से दूर रह कर सच्चे हृदय से भक्ति एवं आत्म समर्पण करता है,उसे वे अपनी गोद में ले कर वह वस्तु देती हैं जिसे संसार में कोई व्यक्ति नहीं दे सकता।

गायत्री उपासना एक उच्च कोटि का आध्यात्मिक व्यायाम है। उसके लाभ महान् हैं और सुनिश्चित हैं। परन्तु उसे प्राप्त करने के लिए साधक में आवश्यक धैर्य, विवेक और, भावना का होना आवश्यक है। जिनमें यह तीनों बातें होती हैं वे माता के दरबार से कदापि खाली हाथ नहीं लौटते।

माधवाचार्य जी की वाणी सिद्धि

(श्री शंकर दत्त अवस्थी वैद्य पूर्नियाँ)

आयुर्वेद में निदान विषयक एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ”माधव निदान” है। इसकी रचना ऐसी सुन्दर ढंग से हुई है कि उसे रोग,निदान सम्बन्धी सर्वोत्तम पुस्तक कहा जा सकता है। इस ग्रन्थ के निर्माता श्री माधवाचार्य जी महाराज की शिक्षा बहुत साधारण थी, पर उनकी प्रवृत्ति गायत्री उपासना में बहुत थी।

उनने एक सच्चे नौष्टिक ब्राह्मण की भाँति बड़ी तत्परता पूर्वक गायत्री की उपासना की। वृन्दावन में रहकर उन्होंने 13 वर्ष तक निरन्तर गायत्री पुरश्चरण किये। इतना करने पर भी उन्होंने अपने में कोई विशेषता दिखाई न दी और न कोई अन्य प्रकार का लाभ दिखाई दिया। इतने लम्बे समय तक निरन्तर इतना परिश्रम करना और फिर उसका कुछ भी लाभ दिखाई न देना,सचमुच ही एक बड़ी निराशा की बात थी, माधवाचार्य जी को भी निराश हुई और वे उस साधना को तथा वृन्दावन को छोड़कर काशी चले गये।

काशी में वे बहुत दिन तक इधर उधर भटकते रहे। निराशा और खिन्नता के कारण उनका मन किसी बात में न लगता था। एक दिन मणिकर्णिका घाट पर एक अवधूत से उनकी भेंट हुई। घनिष्ठता बढ़ी। माधवाचार्य जी ने अपने मन की सारी व्यथा उनसे कह सुनाई! अवधूत ताँत्रिक थे उन्होंने कहा तुम भैरव की उपासना करो। भैरव उपासना का सारा विधान उन्हें समझा दिया।

एक वर्ष तक भैरव का अनुष्ठान करने पर उनकी साधना सफल हुई। जब वे साधना कर रहे थे तब छत के पीछे भाग में से आवाज आई की “मैं प्रसन्न हूँ, जो माँगना हो सो मुझ से माँग ले।”

माधवाचार्य जी बड़े धैर्यवान् और गम्भीर व्यक्ति थे, वे अविचल भाव से अपने साधन में लगे रहे कुछ न बोले। दूसरी बार वही आवाज फिर आई ‘कि जो माँगना हो सो माँग ले’ वे फिर भी चुप रहे तो तीसरी बार फिर वही आवाज आई।

माधवाचार्य जी ने कहा - मैं आपके दर्शन चाहता हूँ। आप कृपा कर पीछे से बोलने की अपेक्षा मेरे सम्मुख आकर अपने असली रूप में दर्शन दीजिए। “इस पर छत में से पीछे की ओर से फिर आवाज आई कि मैं तुम्हारे सामने नहीं आ सकता। क्योंकि तुमने गायत्री के इतने पुरश्चरण किये हैं। मुझ भैरव की इतनी सामर्थ्य नहीं है कि मैं गायत्री उपासक के सम्मुख प्रकट हो सकूँ। इस पर आचार्य जी ने कहा कि जब आपमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि गायत्री उपासक के सम्मुख प्रकट हो सकें तो आप के वरदान भी अल्प सामर्थ्य के ही होंगे। इसलिए मैं आपसे कुछ नहीं चाहता। यदि आप प्रसन्न हैं तो केवल यह बता दीजिए कि मेरी गायत्री साधना क्यों निष्फल गई और उनकी सिद्धि प्राप्त करने का क्या मार्ग है।

भैरव ने छत के पिछले भाग में से फिर कहा कि तुम्हारे पूर्व जन्मों के पापों का नाश करने में तेरह वर्षों की साधना लग गई, अभी एक वर्ष और ऐसी ही साधना करो तो तुम्हारे पूर्व जन्मों के सब दुष्कृत नष्ट हो जायेंगे और जब तुम्हारी आत्मा पूर्ण निष्पाप हो जायेगी तब तुम्हें गायत्री का ब्रह्म तेज प्राप्त होगा। वृन्दावन जाकर फिर एक वर्ष साधना करने पर तुम्हें सिद्धि मिलेगी। इतना कहकर भैरव अन्तर्ध्यान हो गये।

वे वृन्दावन फिर लौट आये और उन्होंने उसी स्थान पर फिर साधना प्रारम्भ कर दी जहाँ पर पहले 13 वर्ष तक की थी। एक वर्ष के बाद उन्हें गायत्री का साक्षात्कार हुआ और उन्हें वाणी सिद्ध हो गई। भगवती से उन्होंने प्रार्थना की कि मैं ऐसा एक ग्रन्थ रचना चाहता हूँ जिससे संसार की बहुत भलाई हो और मेरा यश रहे। उनकी इच्छा पूर्ण हुई। साधारण शिक्षा होते हुए भी उन्होंने माधव निदान जैसे ग्रन्थ की रचना कर डाली।

गायत्री सतोगुणी शक्ति है। इसका सबसे पहला प्रभाव मनुष्य के जन्म जन्मान्तरों से संचित पापों और कुसंस्कारों को नष्ट करने में लगता है। जब वे नष्ट हो जाते हैं और आत्मा निर्मल बन जाती है तब कोई प्रत्यक्ष लाभ दिखाई पड़ता है। जिस स्थान में गहरी खाई खुदी हुई है उस स्थान पर यदि सुन्दर महल बनाना है तो सबसे पहले उस खाई को पाटने में शक्ति लगानी पड़ेगी। उसके पट जाने पर जब भूमि समतल हो जाती है तब वहाँ महल खड़ा करने में देर नहीं लगती। जो लोग पूर्व संचित संस्कारों को नष्ट हुए बिना थोड़ी सी साधना से तुरन्त लाभ चाहते हैं उन्हें माधवाचार्य की आरंभिक असफलता की भाँति निराश होना पड़ता है। परन्तु जो लोग धैर्यपूर्वक इस महाशक्ति की आराधना करते रहते हैं अन्त में उन्हें उसका मधुर फल अवश्य प्राप्त होता है।


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