गायत्री की तन्त्र साधना

July 1952

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(श्री गौरीशंकर वशिष्ठ, रंगपर)

महात्मा शुभानन्द जी एक अच्छे बंगाली महात्मा थे। उनका स्वर्गवास अभी तीन वर्ष पूर्व 65 वर्ष की अवस्था में हुआ है। अंग्रेजी, संस्कृत बंगला भाषा का उनको बहुत ऊँचा ज्ञान था। वेदों का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। जब कभी वे हमारे नगर में आते थे तब उनके दर्शनों के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। शिक्षित वर्ग के लोग उनका बहुत मान करते थे।

उनमें थोड़ी सी पागलपन की झलक थी। वे बहुधा बैठे-बैठे अचानक चौक पड़ते थे और चारों और घूर-घूर कर इस प्रकार देखते थे मानों कोई उनकी कुछ वस्तु उठा कर भाग गया हो और वे उसे ढूंढ़ रहे हों। कभी-कभी उनकी आकृति हो जाती थी मानों कोई खतरा उनके ऊपर टूटने वाला है और वे उसका बचाव करने की तैयारी कर रहे हों।

साधारणतया उनकी हालत ठीक रहती थी, पर कभी-कभी ऐसी स्थिति हो जाती थी। जब वे ठीक होते थे तब उनके ज्ञान,वैराग्य,अनुभव और अध्ययन से परिपूर्ण प्रवचन सुनकर लोगों को बड़ा आनंद प्राप्त होता था, पर जब उनके पागलपन का दौरा आता था तब सभी को बड़ा आश्चर्य और दुःख होता था।

पूछने पर वे अपने मानसिक विक्षेप का कारण इस प्रकार बताया करते थे-

“मैं विद्याध्ययन के उपरान्त आर्य समाज का उपदेशक बना। बहुत जगह भ्रमण किया एक स्थान पर एक महात्मा से उनकी भेंट हुई। उनमें मैंने अनेक अध्यात्मिक विशेषताएँ देखी , इसलिये कुछ समय उनके साथ ठहर गया। मेरे ऊपर उनका बहुत प्रभाव पड़ा। उनसे शिक्षा ली। उपदेश का काम छोड़ दिया और गुरुजी के बताये हुए विधान से एक निर्जन स्थान पर रह कर गायत्री पुरश्चरण करने लगा।”

“गुरुजी ने योग और तन्त्र के निश्चित विधान का गायत्री पुरश्चरण बताया था। वह तीन वर्ष में पूरा होने को था। ढाई वर्ष बड़ी अच्छी तरह व्यतीत हो गये। अन्तिम छः महीने में मेरे सामने विलक्षण-विलक्षण दृश्य आने लगे। लोभ और भय दिखाने वाले तरह तरह के अवसर सामने आये। मुझे पहले ही सचेत कर दिया गया था कि साधना के अन्त में परीक्षा होती है, तरह-तरह के लोभ,आकर्षण ,भय और उपद्रव सामने आते हैं, साधक उनसे बचा रहे तब ही उसकी तपस्या पूर्ण हो सकती है।”

“अनेक अवसर तो मैंने धीरता पूर्वक टाल दिये। पर एक बार को ऐसा हुआ कि मैं रात्रि को 11॥ बजे के करीब अपनी कुटी में बैठा साधना कर रहा था द्वार पर कोई स्त्री घूमती हुई मालूम पड़ी। जब बहुत देर हो गई और वह स्त्री वहीं घूमती रही तो मैं झोंपड़ी से बाहर निकला, चन्द्रमा अस्त होने को था। चाँदनी में अत्यन्त ही सुन्दर 19-20 वर्ष की एक युवती दिखाई दी। मैंने पूछा तू कौन है ? यहाँ क्यों आई है? तो उसने बताया कि मैं पड़ोस के गाँव की रहने वाली हूँ। अपने भाई के पास दूसरे गाँव में जा रही हूँ। रास्ता भूल जाने से इधर आ निकली हूँ। अँधेरे में डर रही हूँ और रात्रि यही कुटी पर बिताना चाहती हूँ।”

“कुटी घने जंगल में थी, वहाँ जंगली जानवर और कभी चोर डाकू उधर से निकला करते थे। इसलिए मैंने उचित समझा कि रात को इसे कुटी में ठहर जाने दिया जाये वह पास में पड़ी चटाई पर लेट गई। मैं बैठा-बैठा जप कर रहा था पर उसके सुन्दर शरीर पर नजर थी। वासना जगी। वह मेरी ओर तिरछी नजर करके मुस्कुरा रही थी। परिणाम यह हुआ कि मैंने उससे विषय किया। इसके बाद वह स्त्री उठी, उसने मेरी पीठ में एक जोर की लात मारी मैं चक्कर खाकर गिर पड़ा। वह तूफान की तरह उड़ी और मेरे झोंपड़े को तोड़ मरोड़ कर एक फर्लांग दूर पर फेंक गई।”

“मैं रात भर बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन होश आया। ज्वर चढ़ रहा था। पटक लगने से घुटने बुरी तरह छिल गये थे। दो दाँत टूट गये थे और मुँह से खून निकल रहा था। गुरुजी को जब यह समाचार मिला तो आये और मुझे उठवाकर ले गये। उनके उपचार से मैं एक महीने में अच्छा हुआ। प्राण तो बच गये पर तभी से मेरा दिमाग फिर गया है। मुझे बार-बार डर और खतरा दिखाई पड़ता है उसी के कारण मैं चौंक पड़ता हूँ।”

अपना यह अनुभव सुनाते हुए वे यह शिक्षा दिया करते थे कि सब साधारण के लिये गायत्री दक्षिण मार्गी, वेदोक्त साधना ही उपयोगी होती है। ताँत्रोक्त मार्ग से साधना करके कुछ लाभ और चमत्कार तो अधिक मिल सकते हैं पर वह मार्ग खतरे का भी बहुत है। ताँत्रिकी साधना में जो भयंकर प्राण घातक दृश्य दिखाई पड़ते हैं उनमें हिम्मत बाँधे रहना और प्रलोभन तथा आकर्षण के समय विचलित न होना साधारण काम नहीं है। थोड़ी सी भी चूक होने पर इस मार्ग के पथिक के प्राणों पर बन आती है। इसलिए तन्त्र की अपेक्षा योग मार्ग ही सरल और उत्तम है, उन्नति धीरे-धीरे होती है पर जो होती है उसमें पूर्ण निर्भयता है और लाभ भी असंदिग्ध है।


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