सेवा और सात्विकता का विकास

July 1952

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री जगन्नाथ जी शास्त्री ॐ, साक्चीसराय)

मेरे पिता ताँत्रिक साधना के भक्त थे। वे एक बढ़े चढ़े जुआरी थे। अपनी साधना के बल पर वे जुआ जीतते थे और बहुत कुछ कमाते थे। छोटी आयु में जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब वे अपने प्रयोजन के लिए मुझे भी उन साधनाओं में लगाते थे। ‘साधना द्वारा जुआ जीता जा सकता है।’ इस मान्यता ने मुझे इस मार्ग की ओर आकर्षित किया और मैं पिताजी की अपेक्षा किसी अधिक ऊंची साधना की तलाश में रहने लगा।

सीवान में एक पहुँचे हुए योगी “खाकी जी” रहते थे। उनके द्वारा मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ और गायत्री मन्त्र मिला। खाकी जी ने मुझे बताया कि संसार का सर्वश्रेष्ठ मन्त्र गायत्री है। इसे अपनाने वाले का सदा लौकिक और पारलौकिक कल्याण ही होता है। उनकी बात मेरे हृदय में बैठ गई और मैं पूरे उत्साह से गायत्री का जप करने लगा।

गायत्री साधना से थोड़े समय में ही मुझे 3 लाभ प्राप्त हो गये। (1) मेरी बुद्धि पहले की अपेक्षा अधिक तीव्र हो गई। स्कूल में सबसे अधिक नम्बर लाता और प्रथम श्रेणी के विद्यार्थियों में गिना जाता, (2) गायत्री मन्त्र से जल अभिमन्त्रित करके किसी रोगी को दे दिया जाय तो वह जल्दी ही अच्छा हो जाता है इसलिए कितने ही रोगी रोज मेरे पास आने लगे, (3) कभी कभी अनायास ही ऐसी भविष्यवाणी कर देता जो पूर्ण सत्य निकलती। कई बार तो ऐसी आश्चर्यजनक बातें बताई जिनके भविष्य में घटित होने की किसी को भी पूर्व कल्पना न थी।

मुझे इस प्रकार आत्मोन्नति की ओर अग्रसर होते देखकर पिताजी भी बहुत प्रभावित हुए और माँसाहार तथा ताँत्रिक साधना छोड़कर उनने भी गायत्री उपासना को अपना लिया और वे शेष जीवन उसी को अपनाये रहे जिससे उनके स्वभाव में बड़े ही उत्तम सतोगुणी परिवर्तन हुए और शान्ति पूर्ण सद्गति के अधिकारी बने।

स्कूली शिक्षा काल से अब तक मैं एकनिष्ठ भाव से गायत्री का उपासक रहा हूँ। इस बीच में जो अनुभव हुए हैं उनसे मेरी श्रद्धा, महा महिमामयी गायत्री माता पर दिन दिन बढ़ती ही चली आ रही है। माता अन्तःकरण में यही प्रेरणा करती हैं कि आत्म कल्याण की साधना एवं संसार में धार्मिक प्रवृत्तियों का प्रसार करते रहने में ही जीवन व्यतीत किया जाय। तदनुसार मैं एक पुरोहित एवं धर्म प्रचारक की भाँति इस प्रदेश के लोगों की धार्मिक प्रवृत्तियों को जागृत करने के लिए निरन्तर प्रयत्न करता रहता हूँ। इस सुन्दर सेवा पथ पर चलने का सौभाग्य मुझे माता की कृपा में ही मिला है। अपने आज के विचार और कार्यों पर जब विहंगावलोकन करता हूँ तो प्रतीत होता है कि माता मुझे श्रेय मार्ग की ओर तेजी से घसीटे लिए जा रही है।

गायत्री उपासना से अनेकों को अनेक लाभ प्राप्त करते हुए मैंने देखा है। पर सबसे बड़ा लाभ इस साधना का मुझे यह दिखाई पड़ता है कि गायत्री उपासक के विचार और कार्यों में दिन दिन सात्विकता एवं सेवा का सम्पुट बढ़ता जाता है। उसकी बुराइयाँ अपने आप घटती हैं और सन्मार्ग की ओर चलने की स्वाभाविक प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118