आत्म कल्याण का वैज्ञानिक मार्ग

July 1952

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(श्री अशफी लाल जी मुख्तार, बिजनौर)

वर्तमान युग में अधिकाँश वकीलों में आस्तिकता और धार्मिकता का अभाव पाया जाता है। क्योंकि इन दोनों का ही मूल आधार श्रद्धा एवं भावना है। वकील तार्किक होता है, बुद्धि उसका प्रधान साधन है। बुद्धि की दौड़ भौतिक सुख साधनों की ओर ही चलती है। उसे परमार्थ एवं तप त्याग की ओर मोड़ने का काम श्रद्धा एवं भावना का होता है। बुद्धि को अत्यधिक प्रधानता मिलने से अन्तरात्मा की आवाज दब जाती है और मनुष्य इन लौकिक सुखों एवं समस्याओं की उधेड़ बुन में ही लगा रहता है। इस श्रेणी के लोगों में वकील वर्ग सब से आगे रहता है क्योंकि ‘तर्क’ ही उसका सब प्रधान अस्त्र होता है। इस अस्त्र से उसकी परमार्थ वृत्ति पर भी कुठाराघात होता है।

मैं स्वयं वकील हूँ। वकालत मेरा भी पेशा है। जीवन का अधिकाँश भाग इसी व्यवसाय में व्यतीत हुआ है। इसीलिए मेरी भी प्रवृत्ति उपरोक्त प्रकार की होनी स्वाभाविक थी। किसी बात को तर्क की कसौटी पर पूरी तरह कसे बिना उसे मानना मेरे स्वभाव और अभ्यास के प्रतिकूल है। कुछ वर्ष पूर्व मेरा मन दर्शनशास्त्र की ओर झुका क्योंकि वह तर्क को आधार मान कर अपनी बात कहता है और लोभ एवं भोग से ऊपर उठाकर एक उच्च महानता की ओर चलने का निष्कर्ष उपस्थित करता है। दर्शन शास्त्र का जितनी गहराई से अध्ययन किया उतना ही मेरी बुद्धि यह स्वीकार करती गई कि मनुष्य जीवन की सफलता लोभ और भोग में नहीं वरन् आध्यात्मिक महानता सम्पादन करने में है।

आत्मिक उन्नति का मार्ग ढूँढ़ने के लिए बुद्धि ने फिर खोज आरम्भ की अन्तः करण चतुष्टय का मानसिक चेतना के विभिन्न स्तरों के स्वरूप, विधान, कार्य, को समझने और उनमें हेर-फेर कराने वाले उपचारों को परखने के लिए मैंने मनोविज्ञान शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया। पाश्चात्य मनोविज्ञान शास्त्र इस दिशा में बहुत लँगड़ा मालूम पड़ा। वह काम (सैक्स) और वासना (इच्छाओं) को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति मानता है और इनकी परिपूर्ण तृप्ति को जीवन का स्वस्थ विकास एवं प्रतिरोध को मानसिक विकृतियों का कारण मानता है। नैतिकता, सामाजिक नियम, संयम, इन्द्रिय दमन आदि उस दृष्टि से अनुपयोगी सिद्ध होते हैं। ऐसे गलत निष्कर्ष पर पहुँचाने वाले पाश्चात्य मनोविज्ञान से निराश होकर पूर्वात्य (भारतीय) मनोविज्ञान का मैंने अध्ययन आरम्भ किया। उपनिषदों में जिस ब्रह्म विद्या का विस्तृत वर्णन एवं विवेचन है, वही भारतीय मनोविज्ञान है। इसका तार्किक, वैज्ञानिक एवं बुद्धि संगत अध्ययन करने से यह प्रकट हो जाता है कि चिर संचित कुसंस्कारों और दुवृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए एकमात्र उपाय उपासना है। साधना, तपस्या, व्रत, आराधना, उपासना की वैज्ञानिक पद्धति से ही हम अपनी मनोभूमि को निम्नस्तर से उठाकर उच्च भूमिका में परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे अग्नि संस्कार से संसार के स्थूल पदार्थों में भारी हेर-फेर हो जाता है वैसे ही साधना की अग्नि द्वारा मनोभूमि में ऐसे वैज्ञानिक परिवर्तन होते हैं जिनके कारण उसके पूर्व रूप में अभीष्ट परिवर्तन किया जाना संभव है।

अपनी अन्तरात्मा को उच्च स्थिति तक पहुँचाने के लिए मैंने साधना का मार्ग पकड़ा। इसके लिए विभिन्न साधना पद्धतियों को परखा। योग विद्या के ग्रन्थों को देखा, साधना मार्ग पर चलने वाले लोगों से परामर्श किये और यह देखा कि इस साधना के प्रयोग से किस व्यक्ति को क्या उपलब्ध हुआ है? यों कहने को कई लोग अपनी प्रिय साधना पद्धति की प्रशंसा में बहुत कुछ कहते हैं पर जब यह परखा जाता है कि इन सज्जन ने इस साधना विधि को अपना कर क्या लाभ उठाया तो बड़ी निराशा होती है। इस उलझन को सुलझाने के लिए मेरी तार्किक बुद्धि अपने अभ्यास के अनुसार परीक्षा और खोज में तत्परता पूर्वक लगी रही।

कई बार कई साधनाओं की उलट पलट करनी पड़ी। पर ऐसा मार्ग न मिला जो प्रीति और प्रतीति दोनों ही उत्पन्न करता, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर खरा उतरता। बहुत सा समय इस ढूँढ़ खोज एवं प्रयोगों में लग गया।

इसी ऊहापोह में मुझे अखण्ड ज्योति की प्रकाशित गायत्री पुस्तकें मिलीं, उन्हें पढ़ा तो मेरी तार्किक बुद्धि और पिछले वर्षों के अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर बनी हुई अभिरुचि को उनसे असाधारण तृप्ति मिली और ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों यह सब मुझ जैसे व्यक्तियों को दृष्टि में रखकर ही किसी अधिकारी एवं अनुभवी व्यक्ति ने लिखा हो। परन्तु केवल पुस्तकें पढ़ना पर्याप्त न समझा गया मैं इनके लेखक से मिलने मथुरा पहुँचा। आचार्य जी के दर्शनों से ही मैं गदगद होगा। उनकी प्रशंसा में कोई बात कहना मेरे लिए उचित न होगा पर अपनी आत्मा पर उनकी आत्मा का प्रकाश पड़ते ही मुझे वह मिल गया जिसकी तलाश में बहुत दिनों से लगा हुआ था।

गायत्री उपासना में मेरी श्रद्धा, विश्वास, जानकारी और अनुभूति दिन दिन बढ़ती जा रही है और यह अनुभव होता है कि प्रगति सन्तोष जनक हो रही है।

मेरे कई मित्रों ने भी इस आत्मकल्याण के मार्ग को मेरी ही भाँति अपनाया है। मेरे परम मित्र श्री नेमी शरण जैन वकील (पार्लियामेंट सदस्य) वा. श्यामचन्द्र जी मुख्तार आदि बिजनौर के कई बुद्धि जीव सम्भ्रान्त सज्जन गायत्री उपासना की ओर अग्रसर हुए हैं ओर वे भी मेरी ही भाँति आन्तरिक शान्ति एवं प्रगति का अनुभव कर रहे हैं। मैं अन्ध श्रद्धालु नहीं हूँ। हर बात की वास्तविकता का परीक्षण करके ही उसे स्वीकार करना मेरा स्वभाव है। गायत्री उपासना मेरी दृष्टि में एक विशुद्ध विज्ञान है जिसके आधार पर चलने वाले मनुष्य के लिए यह सुगम है कि वह अपने विचार, स्वभाव और दृष्टिकोण में उच्च कोटि का परिवर्तन हो जाने के कारण संसार में शान्तिपूर्ण सुविकसित जीवन व्यतीत करें और आत्मा को परमात्मा के समीप पहुँचा देने की दिशा में दिन दिन तीव्र गति से अग्रसर होता चले।


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