गायत्री उपासक का ब्रह्मतेज

July 1952

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(श्री शिव भगवान प्रसाद अग्निहोत्री, पठानान पुरवा)

हमारे नाना सूरज बली जी गायत्री के अनन्य उपासक थे। उनका अधिकाँश समय पूजा पाठ में ही व्यतीत होता था। उनके द्वारा यदि किसी रोगी को कोई औषधि दे दी जाती तो उसका असर तुरन्त होता था। उनको सभी लोग बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे।

बिजुआ रियासत के राजा साहब इनको बहुत मानते थे। प्रति वर्ष उनके कृष्ण उत्सव पर राजा साहब अपने अहलकारों के साथ स्वयं आते थे। राजा साहब ने उन्हें बहुत सी भूमि दान दी थी जिसके उत्तराधिकारी होने के नाते आज कल हम लोग काबिज हैं। नाना जी के घर अतिथियों और अभ्यागतों की सदा भीड़ लगी रहती थीं, उनके द्वार पर लोग अनेक प्रयोजन लेकर आते थे और गायत्री माता की कृपा से सभी लोग संतुष्ट होकर जाते थे।

गायत्री साधना के फलस्वरूप नाना जी में बहुत ब्रह्मतेज पैदा हो गया था जो उनके चेहरे पर निरंतर चमकता रहता था। उन्हें सताने या छेड़ने की किसी की हिम्मत न होती थी जो ऐसा दुस्साहस करता था उसे उसका समुचित परिणाम भी मिल जाता था।

एक बार इनके एक पण्डिताई के गाँव बोकरिहा के भूधर जी जोशी ने अपने यहाँ श्रीमद्भागवत् की कथा कहने का नाना जी को आमन्त्रण दिया। उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया परन्तु पीछे भूधर जी बदल गये और उन्होंने एक दूसरे पण्डित को कथा कहने बुला लिया। नाना जी को यह बात बुरी लगी। उनका अपमान भूधर जी तथा उनके भाई के लिए बहुत ही हानिकारक हुआ। कथा के यज्ञ के समय अचानक ऐसा अन्धड़ आया कि जलता हुआ हवन ऊपर आकाश में सैकड़ों गज ऊँचा उड़ गया और उसी समय से वे पागल हो गये। किसी को यह समझने में देर न लगी कि यह सूरज बली जी के कोप का फल है। उनके अपराध के लिए बहुत क्षमा माँगी ,उन्हें संतुष्ट किया, उनके शिष्य बने तब, कहीं जाकर उनका पागलपन दूर हुआ।

एक बार एक लोधा नाना जी का शिष्य बना। उसके घर में कोई और न था अकेला होने के कारण उन्हीं के यहाँ रहने लगा। उन्हीं का काम करता और रोटी खाता। एक दिन उसकी नीयत बिगड़ी और नाना जी का, सोना चुरा लिया। जब कोई अपनी चोरी मंजूर करने को तैयार न हुआ तो वे एक पीपल के नीचे कुछ विशेष साधन करने चले गये। इधर वह लोधा जब थाली में भोजन करने बैठा तो हमारी मौसी ने देखा कि वह जो ग्रास भोजन का उठाता है वह काँप कर थाली में बार-बार गिर जाता है। उसके हाथ बिलकुल निकम्मे हो गये थे मानों लकवा मार गया हो। लोधा घबरा गया और उसने चुराया हुआ सोना लाकर चुपचाप वापिस कर दिया।

ऐसी-ऐसी उनके जीवन की अनेकों घटनाएँ हैं। करीब 40 वर्ष पूर्व 80 वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हुआ था। जो कोई उनके समीप रहा उसे भली भाँति यह विश्वास हो गया कि गायत्री माता में तथा उसके भक्त में कितनी शक्ति होती है।

हम लोग भी नाना जी का अनुगमन करके गायत्री उपासना में लगे हुए हैं। जितना कुछ बन पड़ता है माता की सेवा-पूजा करते हैं। अपने थोड़े से प्रयत्न को देखते हुए, उससे प्राप्त होने वाले सत्परिणामों की मात्रा बहुत भारी है। जब हम स्वल्प साधना से इतना लाभ उठाते हैं तो नाना जी की तपस्या को देखते हुए उनका इतना प्रताप उचित ही था।


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