गायत्री का आग्नेयास्त्र

July 1952

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(श्री स्वामी योगानन्द संन्यासी, प्याना)

परम तत्व की जिज्ञासा और आत्म साक्षात्कार की अभिलाषा से प्रेरित होकर मैंने भोग का मार्ग छोड़ा और त्याग का अपनाया। संन्यास लेकर मैं सदा उस उपयुक्त साधना पथ की तलाश में अनेक तीर्थों और क्षेत्रों में भ्रमण करता रहा। उत्तराखण्ड का हिमालय प्रदेश भी मैंने छाना और कितने ही महात्माओं के लँगोट धोये पर अभीष्ट शान्ति न मिली। जिसने जो बताया वही किया अनेक प्रकार के साधन, अभ्यास, जप, प्राणायाम, पाठ आदि करता रहा पर कहीं से भी आत्मा में प्रकाश का दर्शन न हुआ।

इसी भ्रमण में कही पर मैंने अखण्ड ज्योति के गायत्री साहित्य की बड़ी प्रशंसा सुनी। एक जगह वह पुस्तकें मिल भी गई। मैंने उन्हें पढ़ा। पढ़ने के साथ साथ ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान होता था कि यह किसी अनुभवी साधक की लिखी हुई हैं। मेरी आत्मा ने इन पुस्तकों को ही गुरु मान लिया और उनके बताये हुए मार्ग से गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दी।

साधना का सबसे पहला प्रभाव यह हुआ कि मन में जो नाना प्रकार की चिर संचित वासनाएँ और दुर्भावनाएँ छिपी पड़ी थीं और जो मुझे समय-समय पर परेशान करती थीं, उनका शमन हो गया। चित्त में शान्ति, स्थिरता और सात्विकता दिन-दिन बढ़ने लगी। मेरा शरीर बहुधा अस्वस्थ रहा करता था वह भी बिना किसी दवा दारु के अपने आप स्वस्थ हो गया।

मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा मानो गायत्री माता मेरी रक्षा के लिए सदैव प्रस्तुत रहती है और अपने अन्दर कोई दैवी शक्ति बढ़ रही है। इसका एक बार बड़ा ही आश्चर्यजनक अनुभव मुझे हुआ।

मैं भ्रमण करता हुआ एक बार बेहरा नामक ग्राम में पहुँचा। वहाँ ग्रामवासियों को प्रोत्साहित करके गायत्री हवन कराया। उस गाँव में मुसलमानों की संख्या अधिक थी जो बहुत अनुदार और झगड़ालू थे। अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण हमारे हवन में उन्होंने ईंट फेंकी और तरह तरह के विघ्न फैलाये। मेरे विरोध करने पर वे मुझे मारने को तैयार हो गये। मैं वहाँ कई दिन ठहरा वे रोज ही कोई न कोई शरारत मेरे लिये तैयार कर लेते। एक दिन तो उन्होंने रात को मेरे एकान्त स्थान में हमला करके मुझे मार डालने का षड़यन्त्र तक बना लिया।

रात को जब मैं सो रहा था तो गुरुदेव सामने खड़े दिखाई दिये उन्होंने हाथ पकड़ कर उठाया और कहा-देखो तुम्हारे मारने के लिये भीड़ सामने खड़ी है। मैं उठ बैठा। देखा तो कुछ ही दूर कई आदमी मुझे मारने को सुसज्जित होकर आ रहे हैं। अब मैं क्या करता। मैंने गायत्री मन्त्र का अग्नेयास्त्र प्रयोग किया! मैंने उस विद्या को सीखा तो था पर प्रयोग केवल उसी दिन किया था। उन आततायियों पर जब मैंने मन्त्र प्रहार किया तो उनका शरीर बेतरह जलने लगा और वे चीखते हुए गाँव को भाग गये। उनकी चिल्लाहट सुन कर लोग जाग आये। वे कहते थे कि-”हम जले जा रहे हैं हमारे प्राण बचाओ।” उनके इस कथन पर किसी को विश्वास न होता था क्योंकि वहाँ अग्नि कहीं दिखाई नहीं पड़ती थी। लोगों ने कोई उन्माद समझ कर उन चिल्लाने वालों को पकड़ा। परन्तु पकड़ने वालों को ऐसा लगा मानों हमने जलते तवे को छू लिया। वे उन्हें छोड़ कर अलग हट गये।

यह अजब तमाशा था। सारा गाँव जमा हो गया। पूछताछ करने पर उन्होंने बताया कि स्वामी जी को हम मारने गये थे वहाँ से वह व्यथा हमसे लगी है। अब सब लोग उन्हें लेकर मेरे पास आये। मैंने शान्ति पाठ किया तो उनके शरीर का दावानल शान्त हो गया। चूँकि मेरी इस चमत्कारी शक्ति की प्रसिद्धि रही थी और लोग मुझसे लाभ उठाने के लिए भेंट पूजा लेकर घेरने लगे थे, इसलिए दूसरे दिन ही मैं वहाँ से चल दिया।

उपरोक्त प्रयोग में एक उल्लेखनीय बात यह हुई कि ठीक विधि न मालूम होने से गायत्री का आग्नेयास्त्र प्रयोग करने के कारण मेरा मुँह और हाथ भी जल गया और लगभग 15 दिन में ठीक हुआ।

उस दिन से मेरी श्रद्धा गायत्री पर अत्यधिक सुदृढ़ हो गई है और उसी तपस्या में लगा हुआ हूँ। मेरी सलाह से गायत्री की उपासना करके और भी कई लोग लाभ उठा चुके हैं। सीकरी गाँव में एक ब्राह्मण के कोई सन्तान न थी उसने गायत्री की साधना की। उसके एक पुत्र हुआ जो अब बड़ा ही होनहार और सुन्दर दिखाई पड़ता है। एक रागी का 6 मास का पुराना आधाशीशी का सिर दर्द दूर हो गया। नगरिया गाँव का एक लड़का जो वर्ष में तीन महीने भी स्कूल नहीं गया था और उसके पास होने की कोई आशा न थी गायत्री जप करने से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। इस प्रकार छोटे मोटे लाभ अनेक लोग उठाते रहते हैं। परन्तु गायत्री उपासना का वास्तविक लाभ सतोगुण की वृद्धि और आत्म कल्याण ही है। इसी मार्ग पर मैं स्वयं प्रवृत्त हूँ और इसी भावना से गायत्री की उपासना करने की मैं अन्य लोगों को सलाह देता रहता हूँ।


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