गायत्री-एक जीवन विद्या है।

July 1952

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(प्रो. रामाचरण महेन्द्र एम.ए.)

जो व्यक्ति जिस वस्तु से लाभ उठाना चाहता है उसे उसके सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। कोई व्यक्ति वेश कीमती तलवार का स्वामी हो परन्तु उसे पकड़ना, चलाना, न जानता हो तो वह उस तलवार से मिलने वाले लाभ का उपयोग नहीं कर सकता। भारतीय तत्वज्ञान से लाभ उठाने की इच्छा रखने वालों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे उस विद्या के कारण, विज्ञान, रहस्य, विधान और प्रयोग को समझें। बिना आवश्यक जानकारी प्राप्त किये हमारा बहुमूल्य विज्ञान हमारे लिए आज निरर्थक ही नहीं अनुपयोगी एवं भार रूप भी सिद्ध हो रहा है।

जीव की स्वाभाविक इच्छा सुख प्राप्त करने की है और वह इसी प्रयोजन के लिए नाना प्रकार के विचार और कार्य किया करता है। परन्तु देखा जाता है कि उसका प्रयत्न बहुधा निष्फल चला जाता है। सुख प्राप्ति के लिए जो कुछ सोचा गया था और जो कुछ किया गया था वह अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करने की अपेक्षा उलटा दुखदायक बन जाता है। हम देखते हैं कि आज अधिकाँश मनुष्य दुखी हैं। उन्हें अपनी वर्तमान दशा से घोर असंतोष है और अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए सदैव छटपटाते रहते हैं। यह अवस्था अल्प वृद्धि, अल्प विकसित, निम्न वर्ग के लोगों की हो सो बात नहीं है- अपने को बुद्धिमान, विद्वान, साधन-संपन्न और उस वर्ग के समझने वाले लोगों की भी यही दशा है। सभी लोग सुख की आकाँक्षा रखते हैं पर सभी लोग दिन दिन दूर पड़ते जा रहे हैं। उनका मन और शरीर जो कुछ भी करता है वह अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं बाधक होता प्रतीत होता है।

मानव प्राणी की इस कठिनाई को हमारे पूजनीय ऋषि बहुत पहले से जानते थे इसलिए उन्होंने आनन्द के अक्षय भण्डार के वास्तविक स्थान को युग−युगांतर की खोज के पश्चात् ढूँढ़ निकाला और उसे सर्वसाधारण के सम्मुख उपस्थित कर दिया। इस खोज का नाम है- “ब्रह्म विद्या”। इसी का दूसरा नाम है भारतीय संस्कृति या भारतीय तत्व ज्ञान।

भारतीय संस्कृति एक विशुद्ध विज्ञान है जिसका उद्देश्य मनुष्य जीवन के बाहरी और भीतरी आनन्द का परिपूर्ण विकास करना है। इस विज्ञान को जब हम जानते थे तब यह भारत भूमि ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ थी, तब हम चक्रवर्ती शान्ति रक्षक और संसार की अतृप्त आत्माओं को अमृत पिलाने वाले जगद्गुरु थे। आज उनकी उपेक्षा करके हम दीन हीन हो गये हैं। अपनी दीनता को मिटाने के लिए इधर उधर ओस चाटते फिरते हैं पर आँगन में बने हुए सुधा सरोवर की ओर ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि जिसे भी देखिए वह अशान्त, असंतुष्ट, अभाव ग्रस्त दिखाई पड़ता है, किसी को चैन नहीं, किसी को शान्ति नहीं, किसी को प्रसन्नता नहीं, किसी को उल्लास नहीं धनी से लेकर गरीब तक और विद्वान से लेकर मूर्ख तक सभी एक सी बेचैनी से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं।

भारतीय संस्कृति में वह सब कुछ मौजूद है जिससे मनुष्य सच्चे अर्थों में सुखी बन सकता है। कुछ समय पहले तक यह विश्वास किया जाता था कि भौतिक विज्ञान की उन्नति से मनुष्य जाति के सुखों में वृद्धि होगी। रेल, तार, जहाज, बिजली आदि नाना प्रकार के आविष्कार करने वालों का यही अनुमान था पर परिणाम विपरीत निकला। सुविधाएं तो जरूर बढ़ी पर उस सुविधा से बचे हुए समय का सदुपयोग करने वाले ज्ञान के अभाव में यह सब अभिशाप साबित हुए। धनी अधिक धनी बन गये-गरीब अधिक गरीब हो गये। श्रम की उपेक्षा होने लगी और ऐश आराम की प्रवृत्ति ने चरित्र और स्वास्थ्य का सत्यानाश कर डाला और अस्पतालों, औषधालयों, जेलखानों, न्यायालयों के द्वारों पर भीड़ खड़ी कर दी। यह भौतिक विज्ञान आज तो भस्मासुर की तरह प्रलय ताण्डव करने तैयार खड़ा है। परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, मृत्यु विरण, पौइजन गैस, कीटाणु, बम की आड़ में खड़ा हुआ हिरण्याक्ष दैत्य आज फिर अट्टहास कर रहा है, लोग उस पौराणिक कथा पर विश्वास नहीं करते जिसमें कहा गया है की हिरण्याक्ष दैत्य पृथ्वी को चुरा ले गया था। परमाणु बमों और हाइड्रोजन बमों से सजा हुआ हिरण्याक्ष आज पृथ्वी को निकल जाने के लिए, चूर्ण विचूर्ण कर देने के लिए कैसा विकराल रूप बनाये खड़ा है इसे हम आज आँखों से प्रत्यक्ष देख रहे हैं। उस पौराणिक कथा की पुनरावृत्ति होने में बहुत देर दिखाई नहीं पड़ती। यह असम्भव नहीं कि उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ विज्ञान समस्त मानव जाति को ही नहीं, पृथ्वी ग्रह को ही भस्म कर दे।

यह नई बात नहीं हैं। भूत काल में भौतिक विज्ञान के अत्यधिक विकास के परिणामों का परीक्षण हो चुका है। उनसे चकाचौंध उत्पन्न करने वाली सुविधाएं मिलती हैं। पर वे सुविधाएं अन्ततः घातक परिणाम ही उपस्थित करती हैं। रावण आदि वैज्ञानिकों ने भौतिक आधार पर चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त की थीं और कितने ही तपस्वियों ने योग और तंत्र के आधार पर चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियों का रास्ता निकाला था। पर दोनों ही अन्तः अनुपयोगी ठहराये गये और उनका सार्वजनिक उपयोग बन्द करने के लिए कठोर प्रतिबन्ध लगाये गये। लंका का सारा विज्ञान प्रदेश हनुमान के द्वारा जलवा दिया गया ताकि वे प्रयोगशालाएं वही नष्ट हो जायं। इसी प्रकार तंत्र के वाम मार्ग अनैतिक ठहराकर उसके साधनाओं का बहिष्कार किया गया। कापालिका, अघोरी, बैतालिक आदि को समाज से बहिष्कृत करके अछूत घोषित किया गया। ऋद्धि सिद्धियों के चमत्कार न दिखाने की प्रतिज्ञा और शपथ लेने पर ही कोई गुरु अपने को योग विद्या सिखावे यह नियम बनाये गये। कहने का तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से भौतिक विज्ञान की अनावश्यक उन्नति को रोका गया। ऋषि जानते हैं कि मनुष्य जाति की सामूहिक मनोदशा बालकों के समान है यह बच्चे बारूद से खेलेंगे तो जल मरने के अतिरिक्त और किसी परिणाम पर न पहुँचेंगे।

मनुष्य के सुख की अभिलाषा अकेले विज्ञान से, अकेले धन से, अकेले बुद्धि चातुर्य से, कदापि पूर्ण नहीं हो सकती, यह सब भी जरूरी है पर इनकी जरूरत एक सीमित मात्रा में ही है। सुखों की वास्तविक संभावना किस मार्ग में है, इस सम्बन्ध में भारतीय तत्व वेत्ताओं ने दीर्घकालीन अन्वेषण किये हैं और उन्होंने वह मार्ग ढूँढ़ निकाला है जिस पर चल कर कोई भी मनुष्य निश्चित रूप से सुख, शान्ति आशा उन्नति और आनन्द, उल्लास का निश्चित रूप से आस्वादन कर सकता है। इस सुख शान्ति की वैज्ञानिक पद्धति का नाम है- भारतीय संस्कृति। दुर्भाग्य से आज इसे भी मजहबों की पंक्ति में पटक दिया गया, पर जब वास्तविकता को पहचाना जायगा तब सोने और पीतल को आसानी से अलग किया जा सकेगा।

भारतीयता-वस्तुतः मानवता की प्रतीक है। इसलिए भारतीय संस्कृति का वास्तविक अभिप्राय मानव संस्कृति से है। यह संस्कृति एक विशुद्ध विज्ञान है जिसका आधार प्रकृति के जड़ परमाणु नहीं-वरन् प्राणी के गहन अन्तराल में रहने वाली वह चेतना है जो यदि स्वस्थ दिशा में विकसित हो जाय तो आनन्द के फव्वारे की तरह फूट पड़ती है और चारों ओर पवित्रता, शान्ति, स्नेह, सौंदर्य और सुख ही सुख फैला देती है। यह संस्कृति एक व्यवस्थित जीवन पद्धति है, एक विशुद्ध शास्त्र है। ब्रह्म बोध, तत्व ज्ञान, शुद्ध दृष्टि, जीवन शास्त्र, एवं धर्म धारणा भी इसी को कहते हैं। इसके अंग प्रत्यंगों का विवेचन करने के लिए अनेक ग्रन्थ मौजूद हैं। वेद-शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन, पुराण, स्मृति में भारतीय संस्कृति की एक एक बात की पूरे विस्तार के साथ विवेचना की गई है। परन्तु जिनको इतना अवकाश नहीं है कि उन सब बातों को जानें या पढ़े उनके लिए एक बहुत ही छोटा 28 अक्षरों का मन्त्र भी मौजूद है। जिसमें बीज रूप से उस महान अध्यात्म विज्ञान की सभी बातें बीज रूप से मौजूद हैं। इसीलिए उसे भारतीय संस्कृति का बीज मन्त्र भी कहते हैं। इस मन्त्र का नाम है-”गायत्री।”

गायत्री को अनजान लोग एक ऐसा मन्त्र मात्र समझते हैं जो झाड़ फूँक के काम आता है, या जिससे घर, सन्तान, स्त्री, लाभ, विजय आदि की प्राप्ति होती है। यह जानकारी बहुत ही अधूरी और एकाँगी है। इस प्रकार की विशेष शक्तियाँ और सुविधाएं गायत्री साधक को प्राप्त नहीं होतीं यह कहने का हमारा अभिप्राय नहीं है। पर यह समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार के विशेष लाभ, तो विशेष व्यक्तियों को, विशेष तपस्या से, विशेष परिस्थितियों में ही प्राप्त हो सकते हैं। गायत्री का सर्वोपरि महत्व आदर्शों और सिद्धान्तों का प्रकाश करना है जिनके द्वारा मनुष्य जाति को, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का सुलझाव हो सकता है। ‘गायत्री विश्व धर्म है। गायत्री को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय और संसार के समस्त ग्रन्थों को दूसरे पलड़े में रखा जाय तो गायत्री ही भारी बैठेगी। मनुष्य अन्य शिक्षाओं की दृष्टि से भले ही अशिक्षित हो पर यदि उसे गायत्री के गर्भ में छिपी हुई शिक्षा प्राप्त है तो उसे पूर्ण विद्वान कहा जा सकता है। क्योंकि अन्य शिक्षाएं तो साधन और सुविधाएं ही बढ़ा सकती हैं पर गायत्री तो जीवन को जीने की ही कला सिखाती है।

यदि हम अपने मनुष्य जन्म को जीने की विद्या भी सीखनी चाहिए। यदि हम सुखी बनना चाहते हैं तो सुख साधनों का प्रयोग करने की विद्या भी जाननी चाहिए। तलवार रखने का लाभ उसे ही मिलेगा जो तलवार चलाना जानता है। जीवन उसी का सफल होगा जो जीवन को जीने की विद्या से परिचित है। इस महा विद्या को “गायत्री “ कहते है। गायत्री गीता और गायत्री स्मृति के आधार पर यदि इन चौबीस अक्षरों में सन्निहित सिद्धांतों पर मनुष्य ध्यान दें, उन्हें हृदयंगम करे तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए भी स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव करता हुआ अपने मानव जन्म को धन्य बना सकता है।

मैं गायत्री को भारतीय संस्कृति मानता हूँ और इसीलिए उसके सम्बन्ध में मुझे विशेष रुचि एवं उत्साह है। मनुष्य जाति का सच्चा हित-इसी विज्ञान के आधार पर संभव दिखाई पड़ता है।


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