(पं. मधूसूदनाचार्य खाण्डल, इनद्रगढ़)
लगभग 125 वर्ष पहले की पुरानी बात है। जयपुर प्रान्त के बूढ़ा देवल ग्राम में दधीचि वंश के दाहिवाँ ब्राह्मणों में श्री विष्णुदास ब्रह्मचारी नामक एक महान् गायत्री उपासक का उद्भव हुआ था।
आठ वर्ष की आयु में ही वे गायत्री उपासना में प्रवृत्त हो गये। कुछ बड़ी आयु होने पर माता जी उन्हें धन उपार्जन के लिए प्रेरणा देने लगी ताकि निर्वाह की कठिनाई दूर हो। ब्रह्मचारी जी ने जगत जननी गायत्री से प्रार्थना की। आज्ञा हुई कि अमुक स्थान पर भूमि में धन गढ़ा है। उसमें से अपनी आवश्यकतानुसार निकाल लो। ब्रह्मचारी जी ने उसमें से आवश्यकतानुसार धन लेकर अपने आसन के नीचे रख लेते थे और माता जी की आवश्यकतानुसार उसमें से दे देते थे। माता जी को सन्देह हुआ कि यह करता तो कुछ नहीं है पर धन कहाँ से ले आता है। इस पर एक दिन आसन उठा कर देख लिया। ब्रह्मचारी जी को जब यह बात मालूम हुई कि माता जी ने गायत्री द्वारा धन प्राप्त होने की बात जान ली है और कइयों से कह दी है तो उन्हें बहुत दुख हुआ और वे पुष्कर जाकर गायत्री का विशेष जप करने में प्रवृत्त हो गये।
पुष्कर में एक कुटी में उन्होंने पुरश्चरण आरम्भ किया। 24-24 लक्ष के तीन पुरश्चरण किए पर उन्हें कोई विशेषता दृष्टि गोचर नहीं हुई। उन्होंने समझा मेरा तप व्यर्थ गया और वे दुखी रहने लगे। एक दिन उन्होंने देखा कि उनके पीछे तीन बड़ी-बड़ी चिताएँ जल रही हैं। आकाशवाणी हुई कि “जन्म जन्मान्तरों में तुमने तीन ब्रह्म हत्याएँ की थीं वे इस तप के प्रभाव से निर्मूल हुई हैं। आगे बढ़ो, सिद्धि होगी।”
अब वे नये उत्साह के साथ पुनः गायत्री तप में संलग्न हुए। इस बार उनका तप तेज इतना प्रचण्ड हुआ कि सर्वत्र उनकी कीर्ति फैल गई। बड़े बड़े राजा उनकी कुटी की धूल को मस्तक पर रखने लगे। जयपुर और जोधपुर के महाराज उदयपुर ने अपने यहाँ चलने के लिए उनसे अत्यधिक आग्रह किया। ब्रह्मचारी जी ने कहा-हमारे पुरश्चरणों की पूर्णाहुति ब्रह्मभोज,दक्षिणा आदि नहीं हुई है। इसलिये हम कहीं नहीं जा सकते। महाराज ने स्वयं सब पूरा करने का वचन दिया और उन्हें उदयपुर ले गये। उदयपुर में उनका शाही स्वागत किया गया और पुरश्चरण की पूर्णाहुति के समस्त कार्य सानन्द सम्पन्न कराये गये। ब्रह्मचारी जी की आज्ञा से महाराज ने और भी अनेक धार्मिक कार्य पूर्ण किये।
महाराज के कल्याण के लिए उनके दोष दुरितों के निवारण के लिए ब्रह्मचारी जी ने “काल पुरुष का दान” नामक एक उल्लेखनीय कृत्य कराया। स्वर्ण आदि अष्ट धातुओं और नवरत्नों से निर्मित एक कालपुरुष की मूर्ति बनाई गई जिसमें भूत शुद्धि और प्राण प्रतिष्ठा अत्यन्त ही शुद्ध शास्त्रोक्त रीति से हुई। कहते हैं कि जो कोई ब्राह्मण कालपुरुष की उस मूर्ति का दान लेने आता था, वह मूर्ति उसे स्पष्ट रूप से दान न लेने का संकेत करती थी, फलस्वरूप कोई उसे लेने को तैयार न हुआ।
अन्त में एक ऐसा ब्राह्मण तैयार हुआ जिसका वंश कई पीड़ियों से गायत्री का परम उपासक था। उसने दान लिया तो तत्क्षण उसका शरीर काला पड़ गया। उसने उस मूर्ति का सारा धन तथा अपनी निजी सारी सम्पत्ति दान कर दी। जिससे उसका शरीर का कालापन तो चला गया, पर जिस हथेली पर दान का जल लिया था वह हथेली काली ही रही जोकि उसकी तीन गायत्री पुरश्चरण करने पर दूर हुई। महाराज के लाभ के लिए इस ब्राह्मण ने इतना कष्ट सहा था उसके लिए महाराज सदैव उसके कृतज्ञ रहे और उसके परिवार की सदैव सहायता करते रहे।
ब्रह्मचारी जी के तप के प्रभाव से अनेकों, के जो असंख्य प्रकार के कल्याण हुए उनकी आशा बहुत विस्तृत हैं, ब्राह्मणों की ब्रह्मनिष्ठ एवं गायत्री उपासक बनाने के लिए वे सदैव बहुत प्रयत्न करते रहे उनके प्रभाव और उपदेश से अनेकों ब्राह्मणों ने गायत्री की शरण ली थी और परम कल्याण का लाभ किया था।