(श्री शुभकार नाथ कपूर, खैराबाद)
जब मनुष्य का बाहुबल, पराक्रम और पुरुषार्थ थक जाता है तब वह हार कर परमात्मा को पुकारता है, ग्राह से पकड़ा हुआ गज जब सब प्रकार हार गया तो उसने सच्चे हृदय से प्रभु को पुकारा उसकी पुकार व्यर्थ नहीं गई। प्रभु को उसकी रक्षा करने के लिए नंगे पाँवों ही दौड़ते बना। सच्ची पुकार का प्रभाव अवश्य होता है।
कुछ समय पहले की बात है हमारे परिवार पर आपत्तियों का एक बहुत बड़ा आक्रमण हुआ था। एक साथ कई संकट सामने आये। बहिन भयंकर रूप से बीमार पड़ी, उसके प्राणों के लाले थे। तार आया था कि ‘दशा अत्यन्त चिन्ताजनक है पेट का आपरेशन होने वाला है” बहिन के बिछोह की कल्पना मात्र से आँखों में आँसू की धारा बह चली।
उन्हीं दिन भाभी जी भी अस्पताल में पड़ी थी। घर के अन्य लोग भी छोटी मोटी बीमारियों के शिकार थे। स्वयं मेरी भी तबियत खराब हो रही थी। इन उलझनों से किस प्रकार पार हुआ जाय, इसका कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ रहा था।
दस दिन की छुट्टी प्राप्त हुई, मैं उसमें गायत्री माता का अनुष्ठान करने बैठ गया। बीमारी के इतने बड़े आक्रमण का मुकाबला करने का साहस न था। माता के अंचल में संकट से बचने का प्रयत्न करने लगा।
साधना साधारण सी थी उसका फल असाधारण हुआ। बहन के यहाँ से तार आया कि “पेट ठीक हो गया। आपरेशन की आवश्यकता नहीं रही।” इस समाचार से भारी सन्तोष हुआ। इतने में खबर आई कि भाभी जी भी ठीक हैं और अस्पताल से छुट्टी होने वाली है। देखते देखते घर के अन्य लोगों का भी स्वास्थ्य सुधर गया। इन दस दिनों में स्वयं मेरा स्वास्थ्य बहुत सुधर गया। जो घर चंद दिन पहले बीमारियों और चिन्ताओं का केन्द्र बना हुआ था, वहाँ की परिस्थिति बिल्कुल बदल गई सब लोग संतोष की साँस लेने लगे।
उन्हीं दिनों मेरी परीक्षा आ गई। तैयारी बहुत कम हो पाई थीं इससे चित्त में बड़ी चिन्ता रहती थी। परन्तु जब प्रश्न पत्र हल करने बैठा तो ऐसा लगता था मानो कोई उनके उत्तर बताता जा रहा है और मैं लिखता जा रहा हूँ। मेरे आनन्द और उत्साह की सीमा न रही।
अब मैं गायत्री का नैष्ठिक उपासक हूँ। ऐसा अन्तरात्मा में आभास होता है कि इसके आँचल को पकड़ कर भावी जीवन की सभी कठिनाइयों को पार कर लेना मेरे लिए सुगम होगा।