माता की कृपा के अनुभव

July 1952

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(पं. रामशंकर त्रिवेदी, टिकरा)

भारत के स्वाधीनता संग्राम में मुझे कई बार जेल जाने का अवसर मिला। जेल मेरे लिए तपोभूमि बनी और मैंने वहीं से गायत्री की विशेष साधना प्रारम्भ की। साधना प्रारम्भ करने से पूर्व की स्थिति और वर्तमान स्थिति की तुलना करने पर यह साफ दिखाई देता है कि मेरे जीवन में इस उपासना ने अन्तर एवं परिवर्तन उपस्थित कर दिया है।

इस बीच में अनेक बार मुझे ऐसे अनुभव हुये हैं जिनसे यह प्रतीति हो गई की माता की विशेष कृपा अपने को प्राप्त है और उनके सन्देश समय-2 पर प्राप्त होते हैं।

एक बार की घटना है कि मकान की छत ऊपर से गिरी और गिरने से एक दो सैकिंड पूर्व ही किसी ने वहाँ से घसीट कर मुझे बाहर कर दिया था। अन्तिम पैर बाहर रखते ही छत ऊपर से गिरी और मैं बाल-बाल बच गया। मुझे इस प्रकार मृत्यु के मुख में से बचा लेने वाली माता गायत्री ही थी।

इसी प्रकार एक बार मैं अकबरपुर ग्राम में गया, वहाँ पं. छेदालाल दीक्षित के पुत्र का यज्ञोपवीत था। समारोह में बहुत व्यक्ति जमा थे। अचानक वर्षा होने लगी और सारे रंग में भंग हो गया। न तो संस्कार करने की ठीक व्यवस्था बन रही थी और न प्रीतिभोज का अवसर बन रहा था उस दिन मेरा मौन था। मैंने लिखकर उन्हें दिया कि दो ब्राह्मण गायत्री जप के लिए बिठा दिये जायं तो सम्भव है विघ्न का निवारण हो। उनने तुरन्त वैसी व्यवस्था कर दी। सब लोगों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि थोड़ी ही देर में वर्षा खुल गई और सब कार्य आनन्द पूर्वक पूरे हो गये।

मेरे एक मित्र पं॰ प्रकाश नारायण शुक्ल एक अच्छे गायत्री उपासक हैं। वे लकड़ी ला रहे थे कि उनके 9 विपक्षियों ने हमला कर दिया। शुक्ल जी दो आदमी थे और विरोधी 9। संकट आने पर माता का नाम लेकर वे मुकाबला करने खड़े हो गये और दो ने नौ को पीट कर भगा दिया। यद्यपि यह दो बिल्कुल निहत्थे थे और वे 9 पहले से ही पूरी साज सज्जा के साथ तैयार होकर आये थे।

इस प्रकार की कई घटनाएं मेरे जीवन में घटित हुई हैं और दूसरों को भी मैंने माता की कृपा से अनेक सफलताएं प्राप्त करते देखा है।


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