(श्री बंशीलाल शर्मा टेलीग्राफ वर्कशॉप, जबलपुर)
मेरे पिता जी बड़े धर्मनिष्ठ थे, वे तीनों सन्ध्या करते थे मैं सिर्फ 14 वर्ष का था तभी वे परलोक चले गये सो मुझे पूरा पता नहीं कि वे कितना गायत्री जप करते थे। उनके आशीर्वाद से व ईश्वर कृपा से मेरी भी इस ओर टूटी फूटी रुचि हो गई और मैं भी माता का उपासक हूँ।
पिताजी के जीवन की एक घटना इस प्रकार है। एक रोज हमारी एक भैंस थी वह घर न आई रात को दो बजे तब तक पता नहीं। मेरे पिता जी उसकी खोज में घूम रहे थे। उसी समय एक जंगल में भैंसाकार जिंद उनके सामने आया। वे समझे कि यही वह भैंस है पर वह तो कुछ और ही था। उन पर झपटा। वे साथ में डंडा रखे थे सो मारने लगे पर ज्यों−ही डंडा पड़े और वह जिंद दूर भागे। वे उससे बड़े परेशान हो गये परन्तु घबराये नहीं कारण कि महामन्त्र पर उन्हें पूर्ण विश्वास था। रात भर भैंसे से युद्ध होता रहा, वे इस युद्ध में थक कर चूर-चूर हो गए और उस दुष्ट दानव से अपनी प्राण रक्षा का उपाय न देख कर भय से काँपने लगे। इसी समय उन्हें एक युक्ति सूझी वह यह कि वे वहीं आसन लगाकर गायत्री मन्त्र जपने लगे। ज्यों ही मन्त्र जप प्रारम्भ किया कि उनकी परेशानी हट गई व थोड़ी देर में वहाँ जिंद आदि दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वे फिर भगवती की कृपा से घर लौटे व नित्यकर्मों में लग गये, इस प्रकार के कठिन समय वे महामन्त्र के प्रभाव से पार कर लेते थे।
मेरे पिताजी की ईश्वर ने जीवनी अच्छी बिताई। जगदम्बे की शरण में, मैं भी पड़ा हूँ व जो बन पड़े कर लेता हूँ। विश्वास है कि माता अपने इस अधम सेवक की नौका भी पार लगावेंगी।