श्री स्वामी विद्यारण्य जी

July 1952

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(श्री स्वामी ब्रह्मर्षिदास जी उदासीन)

भारतवर्ष के धार्मिक एवं संस्कृत साहित्य से परिचय रखने वाला कोई व्यक्ति ऐसा न होगा जिसने श्री. विद्यारण्य स्वामी का नाम न सुना हो। वे विद्या के भण्डार-सरस्वती के वरद पुत्र, महान तपस्वी और अद्भुत प्रतिभावान् थे। संस्कृत वाङ्मय में इतनी अधिक एवं उनकी इतनी उच्चकोटि की कृतियाँ है कि उन्हें इस युग के व्यास कहा जाता है। उनकी प्रतिभा का इतना विकास गायत्री उपासना द्वारा ही हुआ था।

श्री स्वामी विद्यारण्य जी दक्षिण भारत के एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। इस परिवार के सभी बालक बड़े बुद्धिमान और कर्त्तव्य शाली हुए हैं। स्वामी जी ने बाल्यकाल विद्याध्ययन में व्यतीत करके ज्यों−ही युवावस्था में प्रवेश किया त्यों−ही उन्होंने गायत्री महामन्त्र के द्वारा तपस्या आरम्भ कर दी। और यह तपस्या पूरे 14 पुरश्चरणों तक चलती रही। इसकी पूर्णाहुति करने के उपरान्त भी जीवन मुक्त स्थिति में रहकर वे संसार का कल्याण करते रहे।

स्वामी जी जब अपने साधना काल में संलग्न थे तब दो राजपुत्र उनकी शरण में पहुँचे। उनका राज्य छिन गया था और मारे-मारे फिर रहे थे, स्वामी जी का आशीर्वाद प्राप्त करके उन्होंने अपना खोया हुआ राज्य फिर प्राप्त कर लिया और जीवन भर स्वामी जी की शिक्षाओं एवं आदर्शों पर ही राज्य चलाते रहे। जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास जी महाराज का अप्रत्यक्ष प्रेरणा से छत्रपति शिवाजी ने आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए राज्य स्थापना की थी वैसे ही स्वामी विद्यारण्य जी की कृपा और प्रेरणा से यह दो राजपुत्र विजय नगर राज्य की स्थापना में समर्थ हुए।

स्वामी जी को तप करते हुए दीर्घ काल व्यतीत हो गया, चौबीस पुरश्चरण पूरे हो गये, फिर भी उन्हें गायत्री माता का साक्षात्कार न हुआ। अपनी इस असफलता पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और निराश होकर उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। संन्यास धारण करने के उपरान्त ही उनका नाम स्वामी विद्यारण्य प्रसिद्ध हुआ।

जब वे संन्यासी हो गये तब एक दिन गायत्री माता ने उन्हें दर्शन दिया। इस पर स्वामी जी को बड़ी प्रसन्नता भी हुई और आश्चर्य भी। स्वामी जी ने माता से पूछा कि “मैंने 24 पुरश्चरण आपके दर्शनों की इच्छा से किये तब आपने मुझे दर्शन नहीं दिया और अब मैं सब प्रकार की, आपके दर्शन की भी कामना छोड़ कर जब संन्यासी हो गया हूँ तब आप अनायास ही दर्शन देने क्यों पधारी हैं?” इस पर माता ने उत्तर दिया कि—”इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि जब तक पूर्व जन्मों के सब पाप नष्ट न हो जायं तब तक साधक के वे दिव्य नेत्र नहीं खुलते जिनमें मेरा साक्षात्कार होता है। तुम्हारे 24 पुरश्चरणों से पूर्व जन्मों के 24 महा पातक नष्ट हुए हैं और अब तुम इस योग्य हुए हो कि मेरे दर्शन प्राप्त कर सको। दूसरा कारण यह है कि जब तक साधक के मन में कामनाएँ भरी रहती हैं तब तक वह मुझसे सच्चा प्रेम नहीं कर सकता। कामना से और इष्ट देव से साथ साथ प्यार करते रहना सम्भव नहीं है। अधूरे प्रेम से मैं प्रसन्न नहीं होती। तुम्हारे मन में यद्यपि वह इच्छा सतोगुणी थी, फिर भी थी तो कामना ही। अब जब कि तुमने सब कामना त्याग कर मेरा आश्रय लिया है और मेरी सच्ची भक्ति में प्रवृत्त हुए हो तो फिर मेरा वात्सल्य रुक न सका और मैं तुम्हें दर्शन देने को दौड़ी आई हूँ।” माता के यह वचन सुन कर स्वामी विद्यारण्य जी के आनन्द की सीमा न रही और वे आनन्द सागर में मग्न होकर प्रेमाश्रुओं से माता के चरण धोने लगे।

गायत्री माता ने स्वामी जी से कहा—”कुछ वरदान माँगो।” स्वामी जी ने कहा-’जिस निष्काम भावना के कारण आपके दर्शन मिले है उसे मैं किसी भी वरदान के बदले में नहीं खो सकता। मुझे किसी वरदान की आवश्यकता नहीं।” तब माता ने अपनी ओर से उनसे कहा—“तुम संसार के कल्याण के लिये सद्ग्रंथों की रचना करो। जैसे गणेश जी की कृपा से महर्षि व्यास अठारह पुराण लिखने में समर्थ हुए वैसे ही मैं तुम्हारी लेखनी पर बैठकर संसार के कल्याण करने वाले ग्रन्थों की रचना करूंगी।” स्वामी जी ने माता का आदेश शिरोधार्य किया और वे सद्ग्रंथों की रचना में लग गये।

स्वामी विद्यारण्य जी की प्रसिद्ध रचनाएँ यह हैं—(1) ऋग्वेद भाष्य, (2) यजुर्वेद भाष्य, (3) सामवेद भाष्य, (4) अथर्ववेद, भाष्य (5) चारों वेदों के शतपथ, ऐतरेय, तेतिरीय, ताण्य आदि ब्राह्मण ग्रंथों के भाष्य, (6) दशोपनिषद् दीपिका, (7) जैमनीय न्याय माला विस्तर, (8) अनुभूति प्रकाश, (9) ब्रह्म गीता, (10) सर्वदर्शन संग्रह, (11) माधवीय धातु वृत्ति, (12) शंकर दिग्विजय, (13) काल निर्माण, (14) श्री विद्या महार्णव तन्त्र, (15) पंचदर्शी आदि आदि। इसके अतिरिक्त भी उनके अनेक ग्रन्थ हैं जिसमें से कई तो उपलब्ध भी नहीं होते। उनकी अगाध विद्वता और महान आध्यात्मिक अनुभूति में गायत्री माता की कृपा का प्रत्यक्ष प्रकाश परिलक्षित होता है।

स्वामी जी के जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाएँ हैं। पर उन चमत्कारों में सबसे बड़ा चमत्कार उनका ब्रह्म बल ही था जिसके द्वारा वे अपना और संसार के असंख्य प्राणियों का आत्म कल्याण करने में समर्थ हो सके और शृंगेरी पीठ के अधिपति प्रतिष्ठित हुये।


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