तपस्या का प्रचण्ड प्रताप

July 1952

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गायत्री उपासना ऐसी तपश्चर्या है जिसे गृही और विरागी, स्त्री और पुरुष, बालक और वृद्ध समान सुविधा से कर सकते हैं। तप ही एकमात्र वह साधन है जिससे आत्मिक शक्ति बढ़ती है और आत्म शक्ति ही संसार की वह सर्वोपरि वस्तु है जिसके द्वारा मनुष्य इच्छानुकूल पदार्थ, मनोवाँछित परिस्थिति और अक्षय शाँति प्राप्त कर सकता है। दैवी शक्तियों को सहायता एवं ईश्वरीय कृपा को उपलब्ध करना भी तप द्वारा उपार्जित आत्म शक्ति पर ही निर्भर है।

कथा है कि—अनादि काल में जब नाभि कमल में ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए तो वे अकेले थे वे बहुत सोचते थे कि में क्या हूँ, क्यों हूँ, यह सब क्या है, पर कोई बात समझ में न आती थी। जब वे कुछ भी न सोच सके और बहुत हैरान हो गये तब आकाशवाणी हुई कि “तप करो,” ब्रह्माजी ने दीर्घ कालीन तप किया, तब उन्हें आत्म ज्ञान हुआ, और अपना उद्देश्य एवं कार्यक्रम जाना। उन्हें गायत्री प्राप्त हुई उसकी सहायता से उन्होंने चारों वेद रचे। उन्हें सावित्री प्राप्त हुई उस की सहायता से उन्होंने सृष्टि की रचना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान और विज्ञान का, चैतन्य और जड़ का मूलकारण, तप ही है, तप के बिना किसी भी वस्तु , विचार, तत्व या गुण का होना सम्भव न था।

समुद्र मंथन की कथा में देवता और असुर दोनों ही मंथन का घोर तप करते हैं। कूर्म, शेष जी, मदिराँचल को भी उसमें सम्मिलित होना पड़ता है। उस तप की घोर उष्णता से सूर्य, चन्द्र, अमृत, लक्ष्मी जैसे 14 रतन निकलते हैं। यदि वह समुद्र मंथन का तप न हुआ होता तो सूर्य, चन्द्र, जैसी वस्तुओं से वंचित रहकर इस दृष्टि को घोर अन्धकार में अचेतन जैसी पड़ा रहना पड़ता। श्री-हीन वसुन्धरा में जीवों को जीवन धारण करने के लिए कोई आकर्षण न रहता।

तप की शक्ति साधारण नहीं है। स्वयंभु मनु और सतरूपा रानी ने तप करके भगवान को अपनी गोदी में खिलाने की असम्भव इच्छा को सम्भव बना लिया। दशरथ और कौशल्या के रूप में उन्होंने राम को गोदी में खिलाने के सौभाग्य का रसास्वादन किया। नन्द और यशोदा, देवकी और वासुदेव ने भी पूर्व जन्मों में ऐसी ही तपस्या करके भगवान के भी माता पिता बनने का अद्भुत अवसर पाया था।

अवतारी आत्माओं को भी तप करना पड़ा है क्योंकि बिना तप के उनका शरीर भी ब्रह्मा जी की भाँति ही अशक्त रह जाता। राम का विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में जाना और 14 वर्ष तक वनवास में तपस्वी जीवन बिताना सर्वविदित है। लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य प्रसिद्ध है। सीता का वनवास में अशोक वाटिका में और अन्त में बाल्मीकि ऋषि के आश्रम में तप करना किसी से छिपा नहीं है। भरत जी ने 14 वर्ष तक जो तप किया था उसी का प्रताप था कि वे बाण पर बिठाकर हनुमान को लंका पहुँचा सके।

भगवान कृष्ण ने संदीपन ऋषि के आश्रम में सुदामा के साथ गुरुकुल का तपस्वी जीवन बिताते हुए शिक्षा प्राप्त की थी। रुक्मिणी से विवाह होने के पश्चात् कृष्ण और रुक्मिणी ने दीर्घकाल तक हिमालय पर्वत के उच्च शिखर पर तप किया था, वहाँ वे केवल जंगली बेर खाकर रहते थे बेर को संस्कृत में बद्री कहते हैं। बद्रीनारायण का तीर्थ भगवान कृष्ण के उसी तप का स्मारक है।

शंकर जी तो साक्षात् योगिराज ही हैं। योग और तप ही उनका प्रधान कार्य है। उनकी वेशभूषा का अनुकरण करके योगियों की एक परम्परा बन गई है। अनेक लम्बी समाधियों का वर्णन ग्रन्थों में मिलता है। ऐसे अवधूत को पुनर्विवाह के लिए तैयार करना कोई साधारण कार्य न था परन्तु पार्वती के तप ने उस असाधारण को भी साधारण बना दिया।

चौबीस अवतारों की कथाओं का वर्णन करने का इस छोटे लेख में अवकाश नहीं है पर विज्ञ पाठक जानते हैं कि उनमें से हर एक ने तप किया है। यद्यपि उनकी आत्मा पूर्ण थी परन्तु स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में आवश्यक क्षमता उत्पन्न करने के लिए उनके लिए भी तप करना आवश्यक था। इन्द्र की इन्द्र पदवी उसकी तपस्या के कारण ही थी। अनेक कथाओं में यह प्रकट है कि किसी अधिक तपस्वी की उग्र तपस्या को देखकर इन्द्र डरता है कि कहीं यह इतना तप इकट्ठा न करले कि मुझसे इन्द्र पदवी छीन ले। इसीलिए वह बहुधा तपस्वियों का तप भ्रष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है। विश्वामित्र के उग्र तप से भयभीत होकर उसने मेनका अप्सरा को भेजकर उनका तप खंडित कराया था। अर्जुन को पराक्रम-हीन करने के लिए भी उसने उर्वशी भेजी थी, यह कथा महाभारत में विस्तारपूर्वक आई है। इन्द्र का आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्मा जी द्वारा उसे थोड़ी थोड़ी शिक्षा देकर सौ वर्ष तक तप करना और तब फिर आगे की शिक्षा देना यह कथा उपनिषदों में आती है। इससे प्रकट है कि देवता भी तप के प्रभाव से ही देवत्व के अधिकारी रहते हैं। देवत्व का भी पिता तप ही है।

अन्य देवदूतों पर दृष्टि डालिए वे भी इसी मार्ग के पथिक रहे हैं, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, ईसा, मुहम्मद साहब, जरथुस्त्र, सुकरात, शंकराचार्य, गान्धी आदि ने जो तप किये हैं वे इतिहास के पाठकों को भली प्रकार विदित हैं। इनमें से प्रत्येक ने अपने अपने ढंग से आत्म शुद्धि और दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिये ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास, तितीक्षा, त्याग, आराधना आदि तपश्चर्याओं का अवलम्बन किया था। उसी के कारण उनका चरित्र, व्यक्तित्व एवं प्रभाव बढ़ा और उसी के कारण वे अपने विचारों की छाप अपने अनुयायियों पर डाल सके। संसार के प्रत्येक देश में वे ही व्यक्ति पूजनीय माने गये हैं जिन्होंने अपनी आत्मा को तपाकर निर्मल एवं प्रकाशवान् बनाया है।

यों यद्यपि तप के अनेक मार्ग हैं। विदेशी या विधर्मी लोग अन्य पद्धतियों से भी अपनी साधनाएं करते हैं और उनसे यथासंभव लाभ भी उठाते हैं परन्तु अध्यात्म विज्ञान के सूक्ष्म दर्शी ऋषियों की सहायता के बिना कोई तप अधिक फल दायक नहीं हो सकता, इसलिए भारतीय पद्धति में इस महामन्त्र को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि यहाँ इसी महा-विज्ञान के आधार पर आत्म कल्याण के महान अभिमान किये जाते हैं। प्रायः सभी ऋषियों ने इस राज मार्ग को अपनाया है।

ऋषि महर्षियों में जो विशेषताएं थी उनमें उनकी तपस्या ही एकमात्र कारण थी। विश्वामित्र, वशिष्ठ, याक्षवल्क, व्यास, वाल्मिकी, च्यवन, शुकदेव, नारद, दुर्वासा, आदि ऋषियों के जीवन वृत्तांत पर विहंगावलोकन किया जाय तो सहज ही पता चल जाता है कि उनकी महानता का, उनके अद्भुत एवं महान् कार्यों का कारण उनका गायत्री तप ही था।

विश्वामित्र जी के द्वारा अपने तपोबल की शक्ति से नई सृष्टि का बनाया जाना और त्रिशंकु को शरीर स्वर्ग भेजने की कथा प्रसिद्ध है। वशिष्ठ की कामधेनु गौ (गायत्री) को लेने के लिये जब राजा विश्वामित्र गये थे तब वशिष्ठ जी ने निःशस्त्र होते हुए भी राजा की भारी सेना को परास्त कर दिया था। भागीरथ जी तप करके गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाये थे। अम्बरीष का तपोबल जब दुर्वासा ऋषि के पीछे मृत्यु चक्र बनकर दौड़ा तो अंत में दुर्वासा को अम्बरीष की शरण लेकर ही प्राण बचाने पड़े थे। इस प्रकार की अगणित कथाएं ऐसी हैं जिनसे प्रकट है कि तप के द्वारा कुछ विलक्षण शक्तियाँ तपस्या में उत्पन्न होती हैं।

शाप वरदान की अनेक कथाएं मौजूद हैं। कपिल के शाप से राजा सागर के सौ पुत्र जल गये थे। ऋषियों को पालकी में जोत कर सवारी करने वाले राजा नहुष को ऋषि के क्रोध का शिकार बनकर सर्प होना पड़ा था। राजा नृग ऐसे ही क्रोध के भाजन बनकर गिरगिट की योनि को प्राप्त हुए थे। गौतम के शाप से अहिल्या शिला हो गई थी और इन्द्र को शत भग होने की कुरूपता धारण करने पड़ी, गुरु पत्नी से गमन करने का शाप चन्द्रमा के ऊपर कलंक रूप में अब भी विद्यमान है। ऋंगि ऋषि के शाप से राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने काटा था, शुक्राचार्य के शाप से कच की विद्या निष्फल हो गई थी। श्रवण कुमार को मृग जानकर तीर मारने पर उसके पिता का शाप राजा दशरथ को लगा था और अन्त में राजा को भी पुत्र शोक में प्राण त्यागने को विवश होना पड़ा था। ऋष्य मूक पर्वत पर बाली शाप वश ही नहीं जा पाता था। मेघदूत का यक्ष शापवश ही अपनी प्रियतमा से वियोग का दुख सहता है। इसी प्रकार वरदानों का भी इतिहास है। देवताओं और ऋषियों के वरदान से अनेकों को अनेक प्रकार की दिव्य शक्तियाँ प्राप्त हुई हैं और वे उस कृपा के कारण असाधारण लाभों से लाभान्वित हुए हैं।

तप के द्वारा साँसारिक सुख सौभाग्यों से परिपूर्ण बनने वालों के उदाहरण भी कम नहीं हैं। ध्रुव ने तप करके राज्य पाया था। राजा दलीप के संतान न थी उसने पत्नी समेत वशिष्ठ जी के आदेशानुसार नन्दिनी (गायत्री) की उपासना की थी तदनुसार उन्हें महा प्रतापी पुत्र की प्राप्ति हुई। योगीराज मछीन्द्र नाथ की भस्म विभूति के द्वारा महायोगी गोरखनाथ का जन्म हुआ था। अंजनी ने कठिन तप करके बजरंगी हनुमान जी का प्रसव किया था। दशरथ जी को यज्ञ के पुण्य प्रताप से संतान हीन के दुख से मुक्ति मिली थी और चार पुत्र प्राप्त हुए थे। कर्ण को नित्य सवा मन स्वर्ण प्राप्त होने का वरदान प्राप्त हुआ था, वह इस स्वर्ण को नित्य दान कर देता था।

केवल पुरुषों को ही तप करने का अधिकार हो सो बात नहीं है। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान ही इस क्षेत्र में पूर्ण अधिकारिणी हैं। आत्मा न स्त्री है न पुरुष वह ईश्वर का विशुद्ध स्फुल्लांग है, उसे तप करके आत्मा को परमात्मा में मिला देने का स्वाभाविक अधिकार सदा से ही प्राप्त है। पार्वती जी का तप अहिल्या, मदालसा, देवयानी, कुन्ती, सतरूपा, वृन्दा मन्दोदरी, तारा, द्रौपदी, दमयन्ती, गौतमी, अपाला, सुलमा, शाश्वती उशिजा, सावित्री, लोपामुद्रा, प्रतिशेयी, वैशालिनी, वेहुला, गान्धारी, अंजनि, शर्मिष्ठा, देवहूति, आदिति, दिति, शची, सत्यवती, सुकन्या, शैब्या, तारा, मन्दोदरी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, जुहू, रोमशा, श्रूता, वयुना आदि अगणित तपस्विनी एवं आत्म शक्ति सम्पन्न नारियों के वृत्तांत इतिहास पुराणों में विस्तार पूर्वक वर्णित हैं उसे पढ़कर यह भली प्रकार जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान ही तपश्चर्या के क्षेत्र में बढ़ी हुई थी। गायत्री माता की गोदी में उसके पुत्र और पुत्री समान रूप से क्रीड़ा कल्लोल कर सकते हैं और समान रूप से पय पान कर सकते हैं।

कुन्ती ने कुमारी अवस्था में गायत्री मन्त्र द्वारा सविता के भर्ग को आकर्षित करके गर्भधारण किया था और उसके द्वारा कर्ण का जन्म हुआ था। नारद जी द्वारा सावित्री को जब यह बता दिया गया कि सत्यवान् का जीवन काल केवल एक वर्ष है। तब सावित्री ने तप करना आरम्भ कर दिया और एक वर्ष में ही वह शक्ति प्राप्त करली कि वह अपने पति को यम के हाथों में से वापिस लौटा सकीं। दमयन्ती का तप ही था जिसके कारण कुचेष्टा प्रयत्न करने वाले व्याध को उस देवी के शाप से भस्म होना पड़ा। गान्धारी आंखों से पट्टी बाँधे रह कर नेत्रों का तप करती थी जिससे उसकी दृष्टि में इतनी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उनके देखने मात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया था। जिस जंघा पर उसने लज्जावश कपड़ा डाल लिया था वही कच्ची रह गई और उसी पर प्रहार करके भीम ने दुर्योधन को मारा था। अनुसूया के तप ने ब्रह्मा विष्णु, महेश को छः-छः महीने के बालक बना दिया था। सती शाण्डिली के तपोबल ने सूर्य के रथ को रोक दिया था।

तप, शक्ति उत्पादन का विशुद्ध विज्ञान है। तपस्वी को निश्चित रूप से आत्म शक्ति मिलती है। उस शक्ति का किस कार्य में किस प्रकार उपयोग किया जाय यह दूसरा प्रश्न है। जैसे धन बल, बुद्धि बल, शरीर बल, अधिकार बल आदि का कोई मनुष्य सदुपयोग या दुरुपयोग कर सकता है वैसे ही तपोबल को दैवी का आसुरी कार्यों में प्रयुक्त किया जा सकता है। प्राचीन कान में असुरों ने बड़े बड़े तप किये थे और अपने अपने पुरुषार्थ के अनुरूप वरदान भी पाये थे। परन्तु उनका मार्ग अनुचित था इसलिए वह तप उनकी प्रभुता बढ़ाते हुए भी नाश का ही कारण सिद्ध हुआ। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद ने बड़े बड़े तप किये थे और उन्हीं के फलस्वरूप वे इतने सामर्थ्यवान् हो गये थे कि उन्हें तीनों लोकों में कोई भी जीत न सकता था, अन्त में उन्हें समेटने के लिए एक अवतार को ही आना पड़ा।

भस्मासुर स्वयं अपने वरदाता शंकर जी तक को भस्म कर देने के लिए तैयार हो गया था। हिरण्यकश्यपु, हिरण्याक्ष, महिषासुर, शुम्भ निशुम्भ, कंस, जालंधर, अहिरावण, महिरावण, मारीच, खरदूषण सहस्रबाहु, कालनेमि, सुन्द, उपसुन्छ आदि अनेकों असुरों ने तप द्वारा ही इतनी शक्तियाँ प्राप्त की थीं कि उनके आतंक से समस्त संसार कम्पायमान होने लगा था और उनके विनाश के लिए भगवान को विशेष आयोजन करना पड़ा था।

तपोबल का आसुरी उपयोग करने वाली स्त्रियों की संख्या भी बहुत है। सूर्पणखा, ताड़का, त्रिजटा, लंकिनी, सुरसा, पूतना, विशिखा, कर्कटी, होलिका, ढ़ेढुरा, आदि के उपाख्यान सर्वविदित हैं। ताँत्रिक विधान के अनुसार साधन करने वाले अघोरी, कापालिक, ब्रह्मराक्षस, बैताल, अग्निमुख, दृष्टि शूल आदि पुरुषों की भाँति विशिखा, कृत्या, कूष्माण्डी, भैरवी, शत चक्रा, भद्रा भ्रामरी, डाकिनी शाकिनी आदि प्रकृति की स्त्रियाँ भी तपोबल का आसुरी उपयोग करती हैं। यह मार्ग दूषित अवश्य है पर इसमें दोष विज्ञान का नहीं उसके प्रयोक्त है। चाकू से कलम बनाना या किसी का पेट फाड़ना यह अपने ही भले बुरे कर्म हैं। इनसे चाकू की निन्दा नहीं होती।

वे महापुरुष जो इतिहास में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं उनके पीछे उनका भौतिक नहीं आत्मिक बल ही था। भीष्म जी शरशैय्या पर उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में महीनों तक मृत्यु को दुत्कारते रहे। शीश कटा हुआ रावण अपनी अन्तिम सांसें लेता हुआ लक्ष्मण जी को राजनीति सिखाता रहा। बभ्रु, वाहन का कटा हुआ शिर भी अपनी अनुभूतियाँ ओर अभिलाषाएं प्रकट करता रहा है। संजय को वह दिव्य-दृष्टि प्राप्त थी कि घर बैठे महाभारत के सारे दृश्य धृतराष्ट्र को सुनाते रहे। बाल्मीकि जी ने रामावतार से पूर्व ही उनका सारा इतिहास लिख दिया। दधीचि ऋषि की हड्डियों में इतना प्रचण्ड तेज था कि उन्हीं के द्वारा बना हुआ वज्र वृत्तासुर को मारने में सफल हुआ। परशुराम जी अकेले होते हुए भी पृथ्वी के समस्त राजाओं को सेना समेत संहार करने में सफल हुए। धौम्य ऋषि के आशीर्वाद मात्र से अरुणि को समस्त विद्याओं की विद्वत्ता प्राप्त हो गई।

जिन्होंने इतिहास पुराण पढ़े हैं, उन्हें इस प्रकार के असंख्यों उपाख्यानों का पता है। तप की महत्ता अनादि काल से लेकर अब तक समान रूप से अक्षुण्य बनी हुई है। पूर्ण काल में तप की ओर लोगों की अधिक रुचि थी इससे वे अधिक प्रतापी थे, यह रुचि घटने के साथ प्रताप में भी घटोत्तरी होती गई। मध्यकाल में भी जब जो आत्माएं चमकी हैं उनमें आत्म तेज का ही प्रकाश रहा है। सन्त कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, रामानुज, सूरदास, तुलसी दास, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ, विवेकानन्द; विरजानंद, दयानंद, तिलक, गान्धी, मालवीय, अरविन्द, रमण, आदि के पीछे तपस्या की ही ज्योति जगमगाती हुई देखी जा सकती है। यों तपस्या के अन्य मार्ग भी हैं। पर स्मरण रखना चाहिए कि उन मार्गों में भी सूक्ष्म रीति से गायत्री का ही विज्ञान संबद्ध है। गायत्री के द्वारा ही अधिकाँश तपस्वी तप करते हैं क्योंकि यह रास्ता सबसे सरल, सर्वसुलभ, हानि रहित, शीघ्र फलदायी और गृही-विरक्त, स्त्री-पुरुष सभी के लिये सुसाध्य है।


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