नवजीवन का वरदान

July 1952

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(पं. प्रशादीलाल शर्मा दिनेश, कराहल)

संवत् 2007 की बात है। मैं बीमार पड़ा। बीमारी भी बड़ी विचित्र थी। छाती और कंठ में कफ बे-हिसाब जमा हो गया जिससे साँस लेने में भारी कठिनाई होती थी और हर घड़ी दम घुटने जैसी पीड़ा से छटपटाना पड़ता था। किसी की भी औषधि काम नहीं दे रही थी। पन्द्रह दिन तो मैं बेहोश पड़ा रहा। थोड़ी चेतना हुई तो जीवन भार मालूम पड़ने लगा। बीमारी की भयंकरता तो धीरे धीरे घटी पर कष्ट और बेचैनी के मारे मैं जिन्दगी से ऊब रहा था और सोचता था कि प्रभु किसी प्रकार जीवन लीला समाप्त कर दें तो मुझे शान्ति मिले।

प्राण त्यागने का विचार लगातार कई दिन तक मस्तिष्क में चक्कर लगाता रहा। सोचा कि उत्तराखण्ड की पुण्य भूमि में चलकर प्राण त्यागे जायं। घर वालों के बहुत मना करने पर भी मैं हरिद्वार के लिए चल पड़ा। किसी प्रकार हरिद्वार पहुँचा। आगे के लिए कार्य क्रम यह बनाया कि धीरे धीरे उत्तर दिशा की ओर चलते चला जाय और हर घड़ी गायत्री की जप करते रहा जाय। अत्यन्त दुर्बल और अशक्त शरीर, कफ की बीमारी, शीत प्रदेश की ओर यात्रा, पहाड़ पर चढ़ाई, दवा का त्याग, भोजन की अव्यवस्था यह सब प्रत्यक्ष ही मरने का आयोजन था। इसी योजना को लेकर मैं धीरे-धीरे गिरता पड़ता आगे बढ़ने लगा। सो जाने के अतिरिक्त जागृत अवस्था में हर घड़ी गायत्री मन्त्र मुख और मन में रहता।

जिस उद्देश्य के लिए यह यात्रा चलाई गई थी-उसे माता ने मंजूर नहीं किया। उनकी करुणा दूसरे रूप में प्रकट हुई, मैं धीरे-धीरे ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला होते हुए बद्रीनारायण तक जा पहुँचा और साथ ही हर मंजिल पर बीमारी को भी पीछे छोड़ता गया बद्रीनारायण, केदारनाथ पहुँचते पहुँचते मैं इतना स्वस्थ हो गया कि शायद ही नव यौवन आयु में वैसी तन्दुरुस्ती कभी रही हो।

यात्रा करके घर लौटा तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जब गया था तो मृत्यु के मुख में प्रवेश की तैयारी करके गया था। पर लौटा तो तन्दुरुस्ती की निराली ही छटा छटक रही थी। माता की कृपा से क्या नहीं मिल सकता है? सब कुछ मिल सकता है-भक्ति भी और मुक्ति भी।

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