दुर्भाग्य की समाप्ति

July 1952

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(श्री यमुना प्रसाद जी पालीवाल, वैद्य शास्त्री, खात)

दो वर्ष पहले मैं नासूर की भयंकर बीमारी से ग्रसित हो गया था। चलना फिरना तक सम्भव न रहा। घर के लोगों का भार रूप तो पहले ही से था इस बीमारी से वे और भी परेशान हुए और मुझे साफ उत्तर दे दिया कि— तुम अपने को आप सम्भालो।

मैं अपने लिए कहीं शरण खोजने निकला, पर दुर्दैव कब पीछा छोड़ने वाला था। एक गाँव से पुजारी का काम मिलने के लिए बुलावा आया था पर वहाँ भी सफलता न मिली। एक जगह औषधालय में जगह प्राप्त करने की कोशिश की वहाँ से भी निराशा ही मिली।

ऐसे कुसमय में जब मैं बीमारी, गरीबी और लाचारी में बुरी तरह परेशान था ता. 8-8-51 की अखण्ड-ज्योति द्वारा प्रकाशित एक छोटी गायत्री सम्बन्धी पुस्तिका मिली। उसे पढ़ने से मुझे आशा की किरण दिखाई देने लगी। दूसरे दिन से ही विशेष मनोयोग पूर्वक गायत्री उपासना करने लगा।

इस साधना के द्वारा थोड़े ही समय में मेरी परिस्थिति में एक प्रकार से पूर्ण परिवर्तन हो गया है। जिस नासूर रोग से पीछा छुड़ाना असम्भव समझता था, उसे परास्त करने में मुझे विजय मिली। जिस तंगदस्ती के कारण एक एक पैसा कठिन था वह दूर हुई और अपना निजी और अपना निजी औषधालय चलाकर धन और धर्म उपार्जित करता रहा हूँ। जहाँ घर वालों तक ने अपने पास रखने से इनकार दिया था वहाँ एक अपरिचित सज्जन दुबे जी और उनकी धर्मपत्नी की मेरे ऊपर इतनी आत्मीयता है कि घर से बहुत दूर निकल जाने पर भी यह परदेश मुझे घर सरीखा लगता है।

मैं सोचता हूँ जब मेरे जैसे साधारण श्रद्धालु को माता की शरणागति का थोड़ा सा प्रयत्न करने पर इतना लाभ हो सकता है, तो जो लोग पूर्ण निष्ठा से माता का अंचल पकड़ते हैं उन्हें निश्चय ही मुझसे अनेक गुना लाभ होता रहेगा।


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