स्वेच्छा निर्वाण

July 1952

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(पं. यमुना शंकर त्रिपाठी शास्त्री, उज्जैन)

लगभग 50 वर्ष पहले की एक सत्य घटना है। बूँदी (राजस्थान) राज्य में ‘खटकड़’ नामक एक प्राचीन ग्राम है जिसके अत्यन्त समीप से अरावली पहाड़ की श्रेणी चली गई है। इसी पर्वत श्रेणी के बीच में एक नदी बहती है। दृश्य अत्यन्त रमणीय एवं शान्त है। यहीं पर उस समय पं. कन्हैयालाल जी ब्रह्मचारी नामक एक महात्मा रहते थे, वे गायत्री के परम उपासक थे, उन्होंने जीवन भर अनेकों पुरश्चरण किये थे, समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ उनके करतलगत थीं, जिनका वर्णन इस लेख में असम्भव है। उस प्रान्त के सभी सज्जन उनके प्रभाव से परिचित थे।

6 मास पूर्व ही अपने निर्वाण काल को तत्वज्ञान से जानकर वे उन ग्रामों में जाकर अपने परिचित स्नेही व्यक्तियों से मिले एवं अत्यन्त प्रसन्न व गम्भीर वाणी में उनसे अन्तिम विदाई ली और कहाँ ‘बंधुओं! अब हम जाते हैं, अन्तिम नमस्कार’। निर्माण के दिन ‘केशोराय पाटन’ नामक स्थान (जो कि चम्बल नदी के किनारे पर कोटा शहर से 8 मील दूर है एवं नदी का प्रवाह पूर्व दिशा में होने से गंगा के तुल्य पवित्र तीर्थ माना जाता है तथा प्रतिवर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को मेला लगता है) पर सहस्रों ग्रामीणजन उपस्थित हुए। पहले गाय के पवित्र गोबर से भूमि लिपाई गई। स्नान, सन्ध्योपासनादि नित्यकर्म से निवृत्त हो ब्रह्मचारी जी लिप्त भूमि पर कुशासन बिछाकर पद्मासन से बैठ गये। उनके आदेशानुसार उनके सिर पर एक नवीन श्वेत वस्त्र दूर से ही ओढ़ा दिया गया। ब्रह्मचारी जी ने कहा कि जब तक मेरा शरीर अपने आप गिर न जाये तब तक कोई स्पर्श न करे। सब लोगों को इस प्रकार समझाकर ब्रह्मचारी जी ने प्राणायाम द्वारा जीव को सहस्रार कमल में चढ़ा लिया। करीब एक पहर तक सब लोग शान्त व आश्चर्य पूर्वक देखते रहें। इसके उपरान्त एकाएक उनके सिर से तोप छूटने के समान ध्वनि हुई और ब्रह्मचारी जी का शरीर भूमि पर गिर पड़ा। ततः उनका शरीर नदी के बीचों बीच छोड़ दिया गया। स्थान-स्थान पर उनके निर्वाण के उपलक्ष में ब्रह्मभोज हुए। आज भी उस प्रान्त के वृद्ध व युवक लोग उनके तप के प्रभाव से परिचित हैं।


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