आधे राष्ट्र का पुनरुत्थान

July 1952

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(श्री गोविन्द बलवन्त दशाने, सातारा)

मनुष्य समाज के दो भाग हैं (1) स्त्री (2) पुरुष। जितनी-जनसंख्या है उसमें आधे नर और आधी नारी हैं। संसार रथ का एक पहिया नर है तो दूसरा नारी। मनुष्य समाज का स्वस्थ विकास तभी हो सकता है जब यह दोनों ही अंग समान रूप से विकसित हों।

प्राचीन काल में नर और नारी समान रूप से सुविकसित थे, किन्तु मध्यकाल में एक ऐसी अन्धकार मय स्थिति आई जब यह संतुलन बिगड़ गया और समाज का आधा अंग सक्रिय और आधा निष्क्रिय हो गया। स्त्री हीन दशा में पहुँची और पुरुष कुछ उठा रहा। पिछले बहुत दिनों से नारी की जो स्थिति रही है उसे बहुत ही करुणा जनक कहा जा सकता है। पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह कुंए के मेंढक की भाँति जीवन के दिन पूरे कर देना, भोजन बनाना और बच्चे पैदा करना इन दो कार्यों के अतिरिक्त उनके जीवन का कोई उद्देश्य, लक्ष, महत्व न रहा। पैसे की दृष्टि से, जन संपर्क की दृष्टि से, बौद्धिक दृष्टि से, वे पूर्ण पराधीन हो गईं। उनकी अपनी इच्छा, रुचि, भावना, योजना, मान्यता के लिए कहीं कोई स्थान न रहा। पशुओं पर जिस प्रकार मनुष्य का अधिकार है वैसे ही स्त्री पर भी पुरुषों का स्वामित्व रहा। उनकी खरीद फरोख्त अब तक होती है। विधवा हो जाने पर एक नारी की दुर्गति होती है उसका कोई सहृदय मनुष्य अनुभव करे तो उसकी आत्मा करुणा से द्रवित हुए बिना न रहेगी।

नारी के इस स्थिति में पहुँच जाने पर नर भी सुखी और समुन्नत नहीं बन सका। आधी देह को लकवा मार जाय तो शेष आधी देह कोई बड़ा काम नहीं कर सकती। गाड़ी का एक पहिया टूट जाय तो दूसरा पहिया अकेले ही गाड़ी को द्रुत गति से नहीं चला सकता। अपंग, पराधीन, अविकसित, नारी के उदर से जो बच्चे हुए वे भी उन्हीं संस्कारों को लाये। फलस्वरूप नस्ल दिन दिन खराब होती गई। हर पीढ़ी अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक हीन होती गई। पशुओं की तरह नारी का पराधीन रहना मनुष्यता धर्म, नीति, न्याय, ईश्वरीय इच्छा और कुदरत के नियमों के पूर्ण विपरीत था। इस अवाँछनीय स्थिति का परिणाम भी अवाँछनीय ही होने वाला था। उन्नति के अनेक प्रयत्न किये गये पर झूठी मन समझावनी के अतिरिक्त हमारी कोई वास्तविक उन्नति नहीं हो सकी वरन् सच तो यह है कि दिन-2 अवनति ही होती जा रही है।

जिस समय भारत में घर-घर सीता, सावित्री, अनुसूया, गार्गी, मैत्रेयी, कौशल्या, मंदोदरी, कुन्ती, द्रौपदी मदालसा, जीजी बाई, लक्ष्मी बाई जैसी देवियाँ मौजूद थीं, उसी समय यह देश नर रत्नों की खान था। विद्वानों, शूरवीरों, त्यागियों, योगियों, वैज्ञानिकों और महापुरुषों से भारत भूमि भरी पूरी थी, इसका एकमात्र रहस्य यही था कि यहाँ का स्त्री समाज पुरुषों के ही समकक्ष था। उसे मनुष्योचित सुविधा, सम्मान, स्वाधीनता, एवं शिक्षा प्राप्त थी। यह उपयोगी पद्धति आज नष्ट हो गई है और साथ ही हमारे वास्तविक विकास की रीढ़ भी टूट गई है।

आज पुरुष का पाप और अन्याय उसके सिर पर शैतान की तरह से सवार है और वह-नारी में अपने पाप की प्रतिच्छाया देखकर भयभीत होता है। कंस ने अनेक बालकों का वध किया था, उसे स्वप्न में भी बालक के रूप में अपनी मृत्यु दिखाई पड़ती थी गिर पड़ता था। आज पुरुष समाज की वही मनोदशा है वह स्त्री के सतीत्व के प्रति अविश्वासी हो रहा है, उसे भय है कि स्त्रियों का स्वास्थ विकास होने दिया गया तो वे पतिव्रता न रहेंगी। अपनी माता, पुत्री बहिन और वधू के प्रति इतना अविश्वास करना एक अत्यन्त ही निकृष्ट एवं पतित मनोदशा का चिन्ह है। इस पतित, स्थिति में पुरुष का मन इसलिए जा पहुँचा है कि वह पिछले दिनों स्त्रियों कि प्रति बहुत ही अनुदार, स्वार्थपूर्ण एवं अनीति-युक्त व्यवहार करता रहा है, उसे भय है कि कहीं उलट कर उसका प्रतिशोध न लिया जाय, इसलिए वह उसके स्वस्थ विकास का अवसर देने से डरता है और मध्यकालीन बर्बर परम्पराओं की दुहाई देकर, अवाँछनीय रूढ़ियों को धर्म मान कर नारी को विवश एवं हीन दशा में ही रखने का समर्थन करता है। हमारा यह भय ही हमें खा रहा है। अविकसित नारी नर के गले में भारी पत्थर की तरह दबी हुई है। कठोर बन्धनों में जकड़ कर वह उसे वशवर्ती तो रख लेता है पर उस स्वर्गीय गृहस्थ जीवन से सर्वथा वंचित रह जाता है जो सुविकसित एवं स्वच्छ नरक बने हुए हैं, पशु जीवन की अभ्यस्त नारी परिवार के लिए उसका लाखवाँ भाग भी सुखदायक कार्य नहीं कर पाती जितना कि वह सुविकसित मनुष्य होने की स्थिति में कर सकती थी।

हमारे राष्ट्र और समाज को दीन दशा से निकाल कर ऊँचा उठाने के लिए नारी समाज का समुचित विकास होना अत्यन्त आवश्यक है इसे अब हर कोई विचारवान मनुष्य मानने लगा है। स्त्री शिक्षा, पदों निवारण, सामाजिक कार्यों में नारी का सहयोग आदि की दिशा में कुछ कार्य होने भी लगा है, परन्तु खेद है कि “सिर मुँड़ाते ही ओले पड़ने”की कहावत चरितार्थ होने के अवसर भी सामने आने लगे हैं। पाश्चात्य देशों में स्त्री स्वातंत्र्य से जिस प्रकार रूप की प्यास और वासना की अग्नि भड़की है वैसे ही यहाँ भी, उसका अनुकरण हो रहा है इस खतरे से ही हमें बचना होगा।

नारी समस्या-पुरुष के जीवन की आधी समस्या है। यह समस्या इन दिनों बहुत बुरी तरह उलझी हुई है। उसे सुलझाने के प्रयत्नों में सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि नारी के प्रति नर का दृष्टिकोण उदार हो? यदि यह दृष्टिकोण सही हो-तो नारी जागरण का महान कार्य सहज ही हो सकता है और वे सब खतरे निर्मूल हो सकते हैं जो इस मार्ग में दिखाई पड़ रहे हैं।

“नारी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण-गायत्री आन्दोलन का एक प्रमुख आधार है” जब यह बात आचार्य जी ने मुझे बताई तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।

ईश्वर को माता के रूप में पूज कर-मातृ जाति के प्रति सहज ही श्रेष्ठता की, पवित्रता की, भावनाओं का आविर्भाव होता है। कन्याओं को भोजन, कराना उनका पूजन करना, उनके चरण स्पर्श करना; ब्राह्मण की तरह उनका मान करना यह पद्धति नारी की पवित्रता एवं पूज्यतत्व को हृदयंगम कराती है। गायत्री साधना में ब्रह्मचर्य का प्रधान प्रतिबन्ध है। जिसके कारण वासना के प्रति घृणा की स्वाभाविक वृति पैदा होती है। गायत्री के 28 अक्षरों की शिक्षाओं में भी नारी के प्रति पूज्य एवं पवित्र बुद्धि रखने के आदेश हैं। गायत्री शब्द स्त्री लिंग है, ज्ञान विज्ञान का, आध्यात्मिकता का मूल स्त्रोत नारी को मान लेने से नर के मन में आज की संकीर्णता नहीं रह सकती वरन् उसकी भावना में जब इस महा मन्त्र के प्रताप से थोड़ा भी परिवर्तन होगा तो वह नारी जाति को वासना विकार, अविश्वास और हीनता की दृष्टि से नहीं वरन् उसे पवित्रता, महानता एवं दैवी तत्वों के प्रतिनिधि के रूप में देखेगा। वह दृष्टिकोण ही एक महान सामाजिक क्रान्ति का आधार हो सकता है और इस आधार पर विकसित हुआ नारी समाज ही मानव जीवन की अपूर्णताओं को पूर्ण कर सकता है।

नारी के मन में स्वभावतः नर के प्रति पूज्य बुद्धि है। नर के मन में भी यही बुद्धि जागृत हो जाय तो उभय पक्ष से एक दूसरे के प्रति एक दिव्य आदान प्रदान का सिलसिला शुरू हो सकता है। उस वातावरण में विकसित हुई स्त्री भी पुरुष के कन्धे से कन्धा लगाकर एक सच्चे दाम्पत्ति जीवन का निर्माण करने में योग दे सकती है। तब हमारा समाज पच्छिम की तरह वासना का गुलाम न होगा और न आज की तरह अंधतमिस्रा में पड़ा सड़ेगा। गायत्री आन्दोलन नारी उत्थान की, उसके स्वस्थ विकास की एक महान् भूमिका है। इस महान् आन्दोलन के द्वारा हमारे परिवारों में स्वर्ग स्थापित हो सकता है, हमारी आगामी पीढ़ियां उच्च हो सकती हैं, हमारे राष्ट्र का अर्ध मूर्छित अंग सक्रिय एवं सजीव हो सकता है।

नर में लड़ाकूपन एवं पुरुषार्थ अधिक है और नारी में स्वभावतः सेवा, सहृदयता, सात्विकता और संयम-अधिक है। आज-संसार में नर की शक्तियों का विकास है फलस्वरूप युद्ध, कलह, शोषण, संघर्ष, छल और स्वार्थ का सर्वत्र बोलबाला है। जब प्रसुप्त नारी तत्व जागृत होगा और समाज में उसका भी उचित आदान प्रदान और आदर होगा तो उसके साथ-साथ उन विचारों, योजनाओं और कार्यों का भी विस्तार होगा जो सुहृदय, सेवा और सात्विकता से परिपूर्ण होंगे। नर के एकाँगी विकास ने संसार के लिए आज एक मुसीबत खड़ी कर दी है, इसका हल नारीत्व के मृदुल भावों के विकास ही है। हत्यारा पुरुष अणुबम लेकर मनुष्यता को भून डालने को उन्मत्त हो रहा है। ममतामयी मातृजाति में यदि थोड़ी शक्ति हो तो वह अपने समस्त बालकों को अंचल में छुपाने और उनके सिसकते प्राणों को बचाने के लिये शैतान के हाथ में लपलपाते हुए छुरे को रोकने के लिये अवश्य ही कुछ करेगी और नष्ट होने वाली सभ्यता बच जायगी। समाज निर्माण में भी जब स्त्रियों का समुचित हाथ होगा तो बर्बरता के स्थान पर स्नेह, सेवा और सौजन्य का वातावरण बनेगा।

गायत्री आन्दोलन की वास्तविकता जानने के लिए मैं आचार्य जी के निकट रहा हूँ। मुझे पूरा और पक्का विश्वास हो गया है कि यह युग परिवर्तन का एक महान् अभियान है जिसमें हमारे राष्ट्र और समाज का सुन्दर भविष्य झिलमिला रहा है। इस आन्दोलन को सफल बनाने में मैंने अपने आप को समर्पण कर दिया है-मेरी अन्तरात्मा निरन्तर यह कहती है कि यह मानुषी प्रयत्न नहीं वरन् कोई दैवी आयोजन है, जिसका संचालन किन्हीं व्यक्तियों को निर्मित बनाकर उस अदृश्य शक्ति द्वारा ही किया जा रहा है।


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