विजय का महापर्व

October 2003

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विजय पथ पर केवल धर्मपरायण, साहसी ही अपने पाँव रखते हैं, जिनमें जिन्दगी की चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत है, वही इस राह पर चल पाते हैं। अनीति, अनाचार, अत्याचार और आतंक से लोहा यही लौहपुरुष लेते हैं। विजय दशमी के रहस्य इन्हीं के अन्तर्चेतना में उजागर होते हैं। विजय का महापर्व इनके ही अस्तित्त्व को आनन्दातिरेक से भरता है।

विजय के साथ संयोजित दशम संख्या में कई साँकेतिक रहस्य संजोये है। दशम का स्थान नवम के बाद है। जिसने नवरात्रियों में भगवती आदिशक्ति की उपासना की है, वही दशम की पूर्णता का अधिकारी होता है। वही अपनी आत्मशक्ति के प्रभाव से दस इन्द्रियों का नियंत्रण करने में समर्थ होता है। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं अक्रोध के रूप में धर्म के दस लक्षण उसकी आत्म चेतना में प्रकाशित होते हैं।

प्रभु श्रीराम के जीवन में शक्ति आराधन एवं धर्म की यही पूर्णता विकसित हुई थी। तभी वह आतंक एवं अत्याचार के स्रोत दशकण्ठ रावण को मृत्युदण्ड देने में समर्थ हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम की जीवन चेतना में अहिंसा, क्षमा, सत्य, नम्रता, श्रद्धा, इन्द्रिय संयम, दान, यज्ञ, तप तथा ध्यान-इन दस धर्म साधनों की पूर्ण प्रभा-प्रकीर्ण हुई थी। इस धर्म साधन के ही प्रभाव से उनकी सभी दस नाड़ियाँ-इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गाँधारी, हस्तिजिह्व, पूषा, यशस्विनी, कुह्, अलंवुषा एवं शंखिनी पूर्ण जाग्रत् एवं ऊर्जस्विनी हुई थीं।

प्रभु श्रीराम की धर्म साधना में एक ओर तप की प्रखरता थी, तो दूसरी ओर संवेदना की सजलता। इस पूर्णता का ही प्रभाव था कि जब उन्होंने धर्म युद्ध के लिए अपने पग बढ़ाये तो काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, माँतगी तथा कमला ये सभी दस महाविद्याएँ उनकी सहयोगिनी बनी और ‘यतो धर्मस्ततोजयः’ के महा सत्य को प्रमाणित करते हुए विजय दशमी धर्म विजय का महापर्व बन गयी।


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