एक संत नदी के किनारे बैठे बैठे छोटे छोटे पत्थरों का ढेर जमा कर रहे था। ढेर बड़ा हो गया था तो भी उनका प्रयास रुका नहीं।
एक राजा उधर से निकला, पूछा-”यह पत्थर किसलिए जमा किए जा रहे हैं?”
संत ने कहा, “मरने के दिन नजदीक हैं। परलोक में महल चिनाना है तो साथ ले जाने के लिए पत्थर जमा कर रहा हूँ।”
राजा हंस पड़ा, “परलोक में तो साथ कुछ नहीं जाता। यहाँ का सामान यहीं पड़ता रहता है।”
संत गंभीर हो गए। उन्होंने राजा को पास बिठाते हुए, प्यार से कहा, “यदि यह ज्ञान आपने स्वयं अपनाया होता तो वैभव बढ़ाने के बदले जीवन को उस पुण्य परमार्थ में लगाया होता, जो मरने के बाद भी साथ जाता है।”
राजा का दृष्टिकोण ही नहीं कार्यक्रम भी बदल गया।
गैरीवाल्डी ने अपने देश का स्वतंत्रता संग्राम जिस कुशलता और बहादुरी से लड़ा, उसकी चर्चा उन दिनों दूर देशों तक फैली हुई थी और उन्हें बहुत कुछ बड़ा माना जाता था।
एक सेनापति सैन्य संचालन संबंधी कुछ महत्वपूर्ण परामर्श करने उनके पास पहुँचे। इन दिनों वे एक मामूली डेरे में रहते थे। साज सज्जा के सामान का अभाव था। उसी सादगी के वातावरण में सारगर्भित वार्तालाप होता रहा।
अंत में सेनापति को, एक गोपनीय नक्शा दिखाकर स्थानीय परिस्थितियों के संबंध में पूछताछ करनी थी, पर कठिनाई यह थी कि लालटेन का कोई प्रबंध नहीं था। अस्तु, नक्शे को देखना दिखाना संभव ही न हो सका।
गैरावाल्डी जैसे विश्व विख्यात व्यक्ति को इतनी सादगी, गरीबी और अभावग्रस्त स्थिति में देखकर सेनापति को आश्चर्यमिश्रित दुःख हुआ।
दूसरे दिन प्रकाश होने पर जब नक्शे के संबंध में परामर्श करने के लिए सेनापति आए तो उन्होंने बड़ी नम्रता और सम्मान के साथ पाँच हजार पौंड भेंट किए और कहा, “अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए यह नगण्य सी भेंट स्वीकार करने का अनुग्रह करें।”
गैरीवाल्डी ने मुस्कराते हुए कहा, “वस्तुतः मुझे कभी इन चीजों की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई, जिन्हें आप अभाव समझ रहे हैं। इस पैसे की मुझे तनिक भी आवश्यकता नहीं है।”
सेनापति का अत्यधिक आग्रह देखा और अस्वीकार करने पर उन्हें खिन्न पाया तो फैसला यहाँ समाप्त किया गया कि सेनापति पाँच पौंड वजन की मोमबत्तियाँ दे जाएं, ताकि भविष्य में रात्रि के समय कोई परामर्श करने आएं तो उनके लिए प्रकाश की सुविधा हो सके।