आनंद का अक्षय स्रोत अपने ही अंदर

October 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कस्तूरी की खोज में हिरन भटकता रहता है। वनों, कंदराओं में वह ढूंढ़ता है, पर कही नहीं मिलती। जो भीतर है, उसे बाहर खोजने में उसका जीवन खप जाता है। व्यर्थ की इस भाग दौड़ से उसे निराशा ही हाथ लगती है। अतृप्ति यथावत बनी रहती है। यह बोध हो सके कि जिसे प्राप्त करने की आकुलता में वह वन एवं कंदरा में विचरता रहता है, वह उसके अपने ही भीतर विद्यमान है तो उसे तृष्णा की आग में इस तरह न जलना पड़े। उसकी निकटता प्राप्त कर मृग स्वयं परितृप्त हो जाए।

मृग ही क्यों ? मनुष्य भी तो आनंदं की खोज में मृग मरीचिका की तरह जीवनपर्यंत भटकता रहता है। आनंद की प्राप्ति उसकी चिरंतन माँग है। बचपन से लेकर जरावस्था तक वह इस आकांक्षा की पूर्ति में लगा रहता है, पर हिरन की भाँति दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण मनुष्य सोचता है कि आनंद के स्रोत बाहर है। दृश्य संसार और उससे संबंध परिवर्तनशील पदार्थों के आकर्षण में वह स्थाई और शाश्वत आनंद की खोज करता है। इंद्रियों की तुष्टि के लिए विषयरूपी साधन जुटाता है, पर उनका उपभोग अतृप्ति की आग को ओर भी अधिक भड़कता और बढ़ाता है।

बचपन से लेकर वृद्धावस्था की मध्यावधि में शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में अनेकों तरह से परिवर्तन होते है। उन परिवर्तनों के साथ साथ आनंदप्राप्ति के बाह्य साधन भी बदलते रहते है। शैशव अवस्था की मांग अलग प्रकार की होती है और किशोरावस्था की अलग। युवावय की मनःस्थिति और वृद्धों की मनोदशा सर्वथा एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती है। इस कारण आनंदप्राप्ति के बाह्य स्रोत भी क्रमिक रूप से बदलते रहते हैं। नवजात शिशु माँ की छाती से चिपका रहता है। पयपान में ही उसे सामयिक तृप्ति मिलती है, पर थोड़ा बड़ा होते ही दुग्धपान के प्रति उसकी अभिरुचि समाप्त हो जाती है। जो कभी माँ के हृदय से चिपका रहता था, वह अब चित्र विचित्र खिलौनों में रमण करता है। सुखानुभूति के केंद्रबिंदु खिलौने बनते हैं, पर यह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं चलने पाती। खिलौने, जो बचपन में अत्यंत ही आकर्षक मनोरंजक लगते थे, किशोरावस्था में नहीं भाते। वह घर की सीमा से बाहर प्रवेश करता है। मित्रों की टोली में उसका अधिकाँश समय व्यतीत होता है। पढ़ने लिखने की, आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्द्धा चल पड़ती है।

बचपन में जो खिलौनों से चिपका रहता था, अब अपना भविष्य बनाने में जी तोड़ परिश्रम करता है। उसकी प्रसन्नता इस बात में सन्निहित रहती है कि कैसे अधिक से अधिक योग्यता संपादित की जाए। संतुष्टि इस आकाँक्षा की पूर्ति से भी नहीं होती। एक की आपूर्ति दूसरे तरह की इच्छा को जन्म देती है। वयस्क होते ही अनुकूल साथी जीवनसंगिनी की खोज चलती है। मिलते ही पत्नी के यौवन, रूप और लावण्य पर वह मुग्ध बना आनंद की अनुभूति करता है, किंतु यह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं रहने पाती। शरीराकर्षण कुछ दिनों बाद ही समाप्त हो जाता है, तब तक प्रजनन का दौर चल पड़ता है।

नवागंतुक शिशु प्रसन्नता का नवीन केंद्रबिंदु बनता है। उसकी किलकारियाँ सुनकर वह बड़े से बड़े दुःख भी भूल जाता है। उसकी एक मुस्कान के लिए अपना सर्वस्व लुटाने के लिए मनुष्य तैयार रहता है, जिससे प्रेरित होकर मानव बच्चे के लिए कष्ट उठाने के लिए तत्पर रहता है।

धनोपार्जन, संपदा संग्रह तथा लोकयश पाने की आकांक्षापूर्ति में वह अब सुख आनंद ढूंढ़ने लगता है, तदनुरूप प्रयासों का ताना बाना बुनता है। वह सब मिलने के बाद भी संतोष नहीं होता। अतृप्त और अशाँत मनः स्थिति पुनः नए तरह के खे खिलौने, मन बहलाने के साधन ढूंढ़ती है। संपूर्ण जीवन ही इन बाह्य प्रयासों में खप जाता है। जितना मनुष्य आनंद पाने का प्रयत्न करता है, उतना ही वह उससे दूर होता चला जाता है।

हर मनुष्य की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। परस्पर एक दूसरे की अभिरुचि भी भिन्न होती है। एक को एक तरह के काम में आनंद आता है, दूसरे को भिन्न प्रकार के काम में। स्वास्थ्य, धन, ऐश्वर्य, यश, सम्मान, योग्यता की प्राप्ति में अधिकाँश व्यक्ति जीवन खपाते और तदनुरूप सफलता मिलने पर मौज मनाते है, पर वह प्रसन्नता भी चिरस्थायी नहीं होती। कुछ ऐसे भी होते है, जो समाज के ढर्रे से अलग हटकर अपना मार्ग चुनते है, वे असामान्य दुस्साहस का परिचय देते तथा ऐसे काम कर गुजरते है, जिन्हें देखकर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। जीवट के धनी व्यक्तियों को संकटों से युक्त कार्यों को करने में ही आनंद आता है। कुछ व्यक्तियों की मनः स्थिति विकृत स्तर की बन जाती है। निकृष्ट कामों में ही उन्हें रस आता है। व्यसनी शराब के प्याले में आनंद देखता और ढूंढ़ता है, उसी में डूबा रहता और अपना सर्वस्व गंवाता है। कामी कामतृप्ति की क्षणिक रसानुभूति में अपने शरीर को गलाता, मन शक्ति को क्षीण करता रहता है। क्रूर आतताइयों को जघन्य अपराधों को करने में प्रसन्नता होती है। दूसरों को रोते कलपते, पीड़ा से कराहते तड़पते देखकर आनंद आता है। यह विकृति उनसे हत्या जैसे पाप कराती है।

बाह्य संसार में आनंदप्राप्ति के लिए मनुष्य भटकता रहता है, यह इस बात का परिचायक है कि शाश्वत सुख की अनुभूति उसके जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए कभी वह एक तरह का माध्यम ढूंढ़ता है तो कभी दूसरे प्रकार का। व्यक्ति के सुख का केंद्र सदा बदलता रहता है। शैशवकाल माँ की गोद में, बाल्यावस्था खिलौने में, छात्र जीवन पुस्तकों में, यौवन पत्नी तथा धन संचय में, गृहस्थाश्रम पुत्रमोह, यशप्राप्ति में नियोजित रहता है। गंभीरता से विचार करने पर पता चलता है कि जिन भौतिक चीजों से आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है, वे पदार्थ वस्तुतः आनंद से रहित है। यदि इनमें आनंद होता तो मन सदा उनमें लीन रहता , पर आनंद प्राप्ति के केंद्र सतत बदलते रहना इस बात का प्रमाण है कि यह विशेषता उन भौतिक वस्तुओं में नहीं है।

सुख एवं आनंद का केंद्र भीतर है, बाहर नहीं। आनंद की भावना मनुष्य की अंतरात्मा में विद्यमान है। यह भावना ही विभिन्न वस्तुओं में आरोपित होकर हमें आनंददायक प्रतीत होती है। इसी कारण भ्रमवश लोग वस्तुओं को ही आनंद का हेतु समझ लेने की भूल की बैठते है, भ्रमवश विभिन्न वस्तुओं में उसे ढूंढ़ने का प्रयास करते है, फलस्वरूप असफलता ही हाथ लगती है। यह स्थिति उस हिरन जैसी ही है, जो कस्तूरी की गंध से मोहित होकर उसे बाहर तो खोजता है, पर भीतर नहीं झांकता।

आनंद आत्मा का शाश्वत गुण है। वही भीतर बैठा आनंदप्राप्ति का भाव संप्रेषित करता तथा अपनी आनंदमय स्थिति का भान कराता है। इंद्रियों की बनावट बहिर्मुखी है । अंतर्मुखी होकर मूल केंद्र को तलाशने की अपेक्षा वे बाहर की ओर चंचल रहती है। साँसारिक आकर्षणों में वे सुख और आनंद खोजती है। उन्हें ही सुख का आधार मान लेती है।

आनंद की प्रतिच्छाया भावों के रूप में आरोपित होकर जड़ वस्तुओं तक को आकर्षक बना देती है, जबकि उनमें अपना कोई आकर्षण नहीं होता और न ही आनंद। लुभावने दृश्य तथा संसार वही रहते है। समग्र इंद्रियों से युक्त काया का स्वरूप भी नष्ट नहीं होता, पर चैतन्य आत्मा के शरीर से निकलते ही सब खेल समाप्त हो जाता है। कही कोई आकर्षण नहीं दीख पड़ता। जड़ काया के भीतर विद्यमान अंतरात्मा के सौंदर्य प्रवाह की किरणें ही वस्तुओं पर पड़कर सुंदरता का आभास कराती है। दर्पण में दिखाई पड़ने वाली मुखाकृति की प्रतिच्छाया को देखकर दर्पण को माना जाए तो यह मान्यता अविवेकपूर्ण ही होगी। प्रतिच्छाया से आनंदप्राप्ति का भ्रमपूर्ण प्रयास असफल ही सिद्ध होगा।

विषयों में रमण करती कर्मेंद्रियां, भनेंद्रियां कुछ क्षणों के लिए आनंद की अनुभूति करती है, पर उनकी ये विशेषताएं तब तक ही रहती है, जब तक कि आत्मा काया में निवास करती है। इंद्रियों उसी से गति एवं सामर्थ्य प्राप्त करती है। उनकी विभिन्न तरह की क्षमताएं आत्मशक्ति का ही अनुदान है। शब्द,रूप, गंध,स्पर्श, रस आदि कायिक अनुभूतियों से लेकर प्रसन्नता , प्रफुल्लता, उत्साह, उमंग आदि की मानसिक विशेषताएं भी उस आंतरिक चेतन शक्ति की ही प्रतिच्छाया है। शरीर एवं मन से जुड़ी हुई विभिन्न इंद्रियों के काय कलेवर में आत्मसत्ता के बने रहने से ही पदार्थों, दृश्यों एवं विषयों में सुख की अनुभूति कर पाती है। ऐसे सुख की अनुभूति, जो क्षणिक और अस्थाई है।, अतृप्ति को और भी अधिक बढ़ाने वाली है। आत्मा के शरीर छोड़ते ही इंद्रियों किसी प्रकार की अनुभूति नहीं कर पाती। पार्थिव शरीर मिट्टी तुल्य हो जाता है। उसे गाड़ने, दफनाने, जलाने की तुरन्त बात सोची जाती है।

आनंद का केंद्रबिंदु अंतरात्मा है। वह चैतन्य गतिविधियों का प्रेरणास्थल भी है, पर चेतना की यह विशेषता होती है कि वह जड़ वस्तुओं में अधिक समय तक नहीं टिक सकती। जब तक उसका प्रकाश आनंद की किरणें वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा विषयों पर पड़ती है, तब तक वे आकर्षक लगती है। जैसे ही किरणें सिमटती है, वह दृश्यमान सौंदर्य लुप्त हो जाता है। वस्तुतः अंतरात्मा से निकली भावतरंगें दृश्य संसार तथा उससे संबंध वस्तुओं में अपने उद्गम स्थल की खोज करती है। बाहर वह नहीं मिलता। अतृप्ति मिटाने के लिए वह साँसारिक चीजों का सहारा लेती है। मिटने के स्थान पर वह और भी बढ़ती है तथा उसकी स्थिति उस प्यासे व्यक्ति की तरह होती है, जो पानी की तलाश में निकलता है, पर मदिरालय पहुंचकर मद्यपान से अपना होश हवाश गंवा बैठता है। शराबी की तरह ही हालत जीवात्मा की हो जाती है, जो सदा अतृप्त बनी आकुल व्याकुल रहती है।

यह एक विडंबना ही है कि जीव स्वयं आनंद का स्रोत होते हुए भी जीवनपर्यंत उस अमृतत्व से वंचित रहता है। खेल खिलौने, भोग विलास, इच्छाओं, आकाँक्षाओँ, ऐषणाओँ की पूर्ति में बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था खप जाती है, तब वृद्धावस्था में मनुष्य हाथ मलता रह जाता है। व्यतीत हुए भूतकाल के जीवन को स्मरण करके हर व्यक्ति की अंतर्व्यथा जेम्स एलन की भांति मूक रूप से प्रस्फुटित होती,” मैंने सांसारिक जीवन एवं उससे जुड़ी वस्तुओं में आनंद की खोज का प्रयास किया, किंतु वह नहीं मिल सका। विद्याभ्यास किया, ऐश आराम के साधन जुटाए, श्रेय सम्मान अर्जित किया, पर अशांति बढ़ती ही गई। मैंने दर्शनों का अनुशीलन किया, किंतु मेरा हृदय अहंभाव से विदग्ध हो गया, तब पहली बार मुझे अनुभव हुआ है कि शाँति एवं आनंद का केंद्र बाहर नहीं भीतर है।”

ऐसी व्यथा वेदना की अनुभूति हर व्यक्ति को कभी न कभी अवश्य होती है, जिसकी अभिव्यक्ति विभिन्न व्यक्तियों में अलग अलग प्रकार की होती है। यह एक ऐसा अभाव है, जिसकी आपूर्ति भौतिक वस्तुओं, विषयों अथवा भौतिक ज्ञान द्वारा नहीं हो सकती। वे मनुष्य के अंतराल को तृप्त नहीं कर सकते। अंतराल में इस पीड़ा का होना इस शाश्वत तथ्य का परिचायक है कि शाश्वत आनंद की प्राप्ति जीव की प्रमुख मांग है। उसे पाने की उत्कंठा भी उसमें प्रबल है। भीतर की यह आकांक्षा और उत्कंठा उस दिव्य आनंद की प्राप्ति के लिए सतत प्रेरित करती रहती है। दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण मानव उसे बाह्य संसार में ढूंढ़ता है। उसका सामर्थ्य एवं पुरुषार्थ इस प्रयास में ही खप जाता है। इंद्रियों की क्षणिक तृप्ति आग में घी डालने का काम करती है तथा अतृप्त अग्नि को और भी तीव्र करती है। एक कामना की पूर्ति दूसरी कामना को और दूसरी , तीसरी को इस तरह अनेकों प्रकार की कामनाओं की शृंखला चल पड़ती है। उन सभी की पूर्ति कभी नहीं हो पाती। छोटा जीवन और अनंत कामनाएं। ईश्वरप्रदत्त अलभ्य अनुपम जीवन कामनाओं की पूर्ति में ही नष्ट होता रहता है और अंततः पल्ले पड़ती है, अशांति, अतृप्ति, असंतोष और पश्चाताप।

आँतरिक भावों पर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि आनंद का अजस्र स्रोत अंदर बैठा सतत अपना प्रवाह संप्रेषित कर रहा है। यह समझाते ही दुश्चिंतन, दुर्बुद्धिजन्य क्रियाकृत्य समाप्त होने लगते है, लालसाएं कम होने लगती तथा चेष्टाएं अंतर्मुखी बन जाती है। ऐसा आत्मबोध, चेतना के उद्गम स्थान पर ही पहुंचने पर संभव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles