आत्मानं विद्धि

October 2003

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संसार में जानने को बहुत कुछ है, पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आप के संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है। जो अपने को नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा?

आत्मज्ञान जहाँ कठिन है, वहाँ सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुएं दूर भी है और उनका सीधा संबंध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा ज्ञान पाया और जाना जा सकता है, पर अपना आपा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति है। आदि से अंत तक उसमें समाए हुए है। इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य एक ही तथ्य है, आविष्कृत किए जाने योग्य एक ही चमत्कार है, यह है अपना आपा, जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।

बाहर की चीजें ढूंढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके, क्योंकि जिस स्थिति में आज हम है, उसमें अंधेरा दीखता है और अकेलापन यह डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसंद करता है? खालीपन किसे भाता है? मनुष्य ने स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागता है। अपने को देखने , खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजें खोजते फिरते है। कैसी है विडंबना !

क्या वस्तुतः भीतर अंधेरा है? क्या वस्तुतः हम अकेले और सूने है? नहीं, प्रकाश का ज्योतिपुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने ओर देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने पर तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बंद हो जाता है। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जाए तो शून्य के अतिरिक्त और दीखेगा भी क्या?

बाहर केवल जड़ जगत है, पंचभूतों का बना हुआ निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आँखों से दीखता, कानों से सुनाई पड़ता है, जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जाएगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अंदर जो है, वही सत है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अंतर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।

स्वर्ग, मुक्ति,सिद्धि, शाँति आदि विभूतियों की खोज में कही अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना कैसे पाई जा सकेगी? जिसे ढूंढ़ने की प्यास और पाने की चाह है, वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है, यही से मिला है। कस्तूरी वाला हिरन तब तक उद्विग्न और अतृप्त ही फिरता रहेगा, जब तक कि अपने ही नाभिकेंद्र में कस्तूरी की सुगंध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा। बाहर जो कुछ भी चमक रहा है, सब अपनी ही आंखों और प्रकाश का प्रतिबिंब मात्र है।

श्रुति कहती है अपने आपको जानो, अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। उसी को ऋषियों ने दुहराया है और तत्वज्ञानियों ने उसे बाहर दीख रहा है, वह भीतरी तत्व का ही विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है, संसार कर स्वरूप भी वैसा ही दीखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसंद हो, उसे भीतर से खोज निकाले। यही अन्वेषण की चरम सीमा है।

दुःख, दारिद्रय, शोक, संताप और अभाव उद्वेग का निवारण करने के लिए इन अनात्म तत्वों की अंतरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ेगा। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले हुए अंधकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है, उसकी समस्त संभावनाएं अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई है। आवश्यकता उन्हें प्रयोग करने की है अपने आपे को प्रयोग करना यदि हमें आया होता तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते है। अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूंढ़ने में जीवन गवा डाला, पर मिला कुछ नहीं। मिलता तब, जब बाहर कुछ होता।

अनात्म तत्वों की जो गंदगी भीतर भर गई है, उसे निकाल दे तो शेष वही रह जाता है, जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए, कुछ खोने के लिए तप साधन किए जाते है। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है। उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है। कहने की बात इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवांछनीय अपने भीतर भर लिया है, उसे निकाल कर फेंक दे। यह परिशोध ही उपलब्धि का निमित्त बन जाता है।

किसी तत्ववेत्ता से जिज्ञासु ने पूछा,” गुरुदेव! तप साधना से आपने क्या पाया?” उन्होंने उत्तर दिया,”खोया बहुत, पाया कुछ नहीं।”जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा,”ऐसा क्यों?” ज्ञानी ने कहा,”जो पाने लायक था, वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय विकार और अज्ञान अंधकार के अनात्म के अनात्म तत्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना ने निकाला भर है। अपने आपको खाली कर लिया।” इस तरह साधक साधना में खोता ही खोता है, पाता कुछ नहीं। हम स्वप्न खोते है, तब सत्य पाते है।

रोवर गोडल ने अपनी पुस्तक’दि कंटेन्योटेरी साइंसेज एंड दि लिवरेटिव एक्सपीरियेन्सेज आफ योगा’ में लिखा है,” मनुष्य के यह जानने से पहले कि वह वास्तव में क्या है? अब तक के जाने हुए को भूलना होगा। वर्तमान नकारात्मक मान्यताओं के कारण मानव अपने भीतर स्थूल अहंवाद के साथ जुड़ी हुई मिथ्या मान्यताओं से ही परिचित हो पाया है। आत्मिक प्रगति के लिए हमें आत्मबोध का प्रशिक्षण आरंभ से ही करना होगा, क्योंकि उन तथ्यों को, जिन पर आत्मोन्नति निर्भर है, एक प्रकार से हमने भुला दिया है।”

महर्षि रमण ने कहा है, “ अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिए जन्मे हो, उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गए तो वह प्राप्त करके रहोगे, जिसके पाए बिना अपूर्णता और अतृप्ति घेरे ही रहेगी।”

स्वामी विवेकानंद इस संदर्भ में एक कथा सुनाया करते थे, एक तत्वज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे संध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था। उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डरकर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए है। सिंह चिंता में डूब गया। उसे संध्या का डर सताने लगा।

पास के घाट का धोबी दिन छापने पर अपने कपड़े समेटकर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूंढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, समझा गधा है, सो लाठी से उसे पीटने लगा धूर्त यहां छिपकर बैठा है। शेर डर से थर थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लादकर घर चल दिया।

रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला। उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा, यह क्या हुआ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो। सिंह ने कहा,” संध्या के चंगुल में फंस गए हैं। यह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।”

सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रांति थी, जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देव दानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार कर लिया गया। यह तो मात्र एक दृष्टाँत है, हमारी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है, जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही माया कहा गया है। माया को ही बंधन कहा गया है और दुखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं, वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है।

गीता में माया की व्याख्या और प्रतिक्रिया समझाते हुए भगवान ने कहा है-

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्रान्ति जन्तवः।

ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढक दिया गया है, इस कारण सब प्राणी मोह को प्राप्त होते है।

नाहं प्रकाशं सर्वस्य योगमायासमावृतः।

अपनी योगमाया से ढके हुए होने के कारण में सबके लिए दृश्य नहीं हूँ।

दैवी ह्मेषा गुणमयी मम माया दृरत्यया।

तीन गुणों से युक्त इस मेरी माया को पार करना बड़ा कठिन है।

शरीर को आत्मा समझ बैठने, शरीर के सुख दुख हानि लाभ और संयोग वियोग को आत्मा पर घटित हुआ मान लेने से मनुष्य दुखी होता है। उपलब्धियों की अपेक्षा यदि अपना ध्यान आत्मा के निर्मल, निर्विकार स्वरूप में बना रहे और जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्तव्य कर्मों को करते रहने एवं दिव्य विचारों में रमण करने की प्रवृत्ति अपना ली जाए तो न दुख की गुंजाइश रहे, न शोक की। अपने को आत्मा बना इस संसार को परमेश्वर का स्वरूप मानकर परमात्मा के लिए आत्मा द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले अनुदानों,कर्तव्यों कर्मों को अपनाते हुए जीवनयात्रा पूरी करने लगे तो सारे दुख दूर हो जाए, जिन्हें अज्ञता के कारण मायाबद्ध जीव पग पग पर भुगतता रहता है।


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