जीत का डंका (kahani)

October 2003

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दैत्यराज बलि के सेनापतियों ने स्वर्ग पर आक्रमण करके विश्वकर्मा को पकड़ बुलाया और इंद्रपुरी के स्तर का राज्य भवन बनाकर खड़ा करने का आदेश दिया।

सामान जुटता गया और विश्वकर्मा का प्रयास चलता रहा। कुछ समय में ही दैत्यपुरी तैयार हो गई। अब बलि ने विश्व-विजय की तैयारी की और सेनापतियों को विश्व-विजय के लिए साज-सामान समेत भेजा।

सफलता कुछ ही दिन मिली। फिर आगे बढ़ सकना दैत्य सेना के लिए कठिन हो गया। कारण यह था कि अब सीमित सैनिकों से लड़ना नहीं हो पा रहा था। असीम जनता आक्रमणकारियों से जूझने के लिए कटिबद्ध हो गई थी।

बलि ने इरादा छोड़ दिया और सेनाएं यह कहकर वापस बुला लीं कि सैनिकों को जीता जा सकता है, किंतु जनचेतना को, संगठित जनमानस को परास्त कर सकना संभव नहीं।

अहमदशाह अब्दाली भारत पर अपने छोटे से सैन्य दल के साथ आक्रमण करता हुआ आगे बढ़ रहा था। मराठे वीरतापूर्वक उससे लोहा ले रहे थे।

रात हुई। दोनों ओर से लड़ाई बंद हुई, रात में उन दिनों लड़ाइयाँ नहीं हुआ करती थी। अहमदशाह ने मराठों की सेना में जगह-जगह धुआँ उठते हुए देखा तो उसे आश्चर्य हुआ कि इसका क्या कारण हो सकता है?

गुप्तचर भेजे गए। वे पता लगाकर आए। हिंदू एक दूसरे का छुआ नहीं खाते। सिपाही लोग अपनी अलग-अलग रसोई बना रहे हैं।

अहमदशाह की प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने सेनापति को बुलाकर कहा, “जिनमें एक−दूसरे का छुआ खाने जितनी भी एकता नहीं, वे बाहर से बलवान भले ही दीखें, भीतर से पूरी तरह खोखले होंगे। इन पर अभी ही हमला कर दो।”

पूरी शक्ति के साथ आक्रमण हुआ। रसोई बनाते सैनिक भारी संख्या में मार डाले गए और अब्दाली जीत का डंका बजाता हुआ आगे बढ़ता चला गया।


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