सुसंस्कारिता की फसल अंदर से उगाएँ

October 2003

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संपदा संपादित करना सर्वथा अपने हाथ के बलबूते की बात नहीं है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता उसमें बाधक भी हो सकती है। प्रकृति के कारण कई बार ऐसी विपन्नता उत्पन्न हो जाती है कि करा धरा पुरुषार्थ मटियामेट हो जाता है।

खेत में अच्छा बीज डालने और खाद पानी का उचित प्रबंध करने से भी यह निश्चित नहीं है कि इच्छित उत्पादन होकर ही रहेगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओले, कीड़े, टिड्डी जैसे कई उत्पात खड़े हो सकते है। दाव लगे तो वन्य पशु पक्षी भी उसके अधिकांश भाग को हड़प सकते है। चोर उपज को ही नहीं, खड़ी फसल को भी काट सकते है। आंधी तूफान से भारी क्षति हो सकती है। सहायता के लिए मजदूर न मिले, बैल बीमारी से चल बसें तो संपन्न बनने की योजना में प्रकृतिगत या मानवी कारणों से ऐसा कुछ हो सकता है, जिससे मनसूबे धरे के धरे ही रह जाए। प्रयास के साथ परिस्थिति की अनुकूलता और साधन सहयोग की विपुलता ही भौतिक प्रगति के पथ प्रशस्त करती है अन्यथा आकाँक्षाएं धरी की धरी रह जाती है।

उच्च शिक्षा की प्राप्ति, ऊँचे पद पर आरुढ होना, प्रतियोगिताओं में सफल होना उन्नतिशील बनने के लिए आवश्यक है। इनके लिए पूरी तैयारी करने पर भी आकस्मिक रुग्णता, दुर्घटना, आवेश भरी योजना कुछ से कुछ कर सकती है, जो संजोया गया था, वह उलटा हो सकता है। यह संभव हो सकता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने पर उपयुक्त पद न मिले और किसी छोटी नौकरी से संतोष करना पड़े। पहलवान भी दंगल में मात खा जाते है। अफसर पदावनत और निलंबित होते देखे गए हैं। जीवनभर की कमाई को चोर मार सकते है। घर के कुपात्र सदस्य ही कुसंग में पड़कर दुर्व्यसनों के शिकार बनकर उस संपदा को स्वाहा कर सकते है, जिसके बारे में सोचा गया था कि जिंदगी का सहारा बनेगी और सुख सुविधाओं में कोई कमी न पड़ेगी। संपन्नता अभीष्ट तो है, पर प्रयत्नरत व्यक्ति उसका समुचित लाभ उठा सकेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं।

इसकी तुलना में सुसंस्कारिता की फसल ऐसी है, जो मात्र अपने संकल्प के बलबूते उगाई और पकाई जा सकती है। मन अपना है। शरीर भी अपना है। उन दिनों पर पूरी तरह अपना स्वामित्व है। इच्छानुसार उन्हें सिखाया, समझाया, बदला सुधारा और मोड़ा मरोड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं। यदि प्रण कर लिया जाए कि सुसंस्कारी बनकर रहेंगे तो यह प्रतिभा अपने बूते ही पूरी की जा सकती है। दूसरों की सहायता इसके लिए आवश्यक नहीं। प्रतिकूलताओँ की स्थिति में थोड़ी कठिनाई तो हो सकती है, पर इतनी शक्ति किसी में नहीं, जो आदर्शों के प्रति निष्ठावान को पतित पराभूत कर सके। शरीर पर आघात हो सकते है। साधनों को नष्ट किया जा सकता है, किंतु यह संभव नहीं कि व्रतशीलों को उत्कृष्टता अपनाए रहने से विरत किया जा सके। देवमानवों की कथा गाथाएं इसकी साक्षी है कि उन्होंने कठिन समय में भी महानता अपनाए रखी, व्यवधानों को सहते या विकट संघर्ष करके उन्हें निरस्त करते रहे।

आदर्शवादी दृढ़ता ऐसा संबल है कि उसे एक बार दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया जाए तो फिर उससे डिगा सकने की सामर्थ्य किसी में नहीं। दधिची, भगीरथ, हरिश्चंद्र, मोरध्वज, कर्ण आदि ने महानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का निश्चय किया था। कठिनाइयां आती रही और वे उन्हें दुलराते रहे। ध्रुव प्रह्लाद जैसे बालकों के साहस भी कठिन प्रसंगों में न टूटे। दमयंती, सीता, सावित्री, सुकन्या, शैव्या, अरुंधती, इला, अपाला एवं मीरा जैसी महिलाएं जब अपनी उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हो गई तो उनकी गरिमा पर अंगुली उठाने की किसी में भी हिम्मत न हुई। विपत्तियों के तूफान उनसे टकराकर वापस लौट गए।

भौतिक संपदाओं को उन्नति का आधार तो माना जा सकता है, पर कोई दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि किसी की आकांक्षाएं उनसे पूरा होकर ही रहेगी। उस निमित्त पोषण ही पर्याप्त नहीं, परिस्थितियों की अनुकूलता भी चाहिए। प्रतिकूलता अड़ जाने पर तो सारा गुड़ गोबर हो जाता है।

सुसंस्कारिता संपादनं के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसे स्वावलंबनपूर्वक कमाया और बढ़ाया जा सकता है। सद्गुणों का अभ्यास अपने बलबूते हो सकता है। दुर्बल मन वाले ही कुसंग से प्रभावित होते है। मनस्वी के लिए आत्मा का संकल्प और परमात्मा का विश्वास इन दिनों के सुदृढ़ बने रहने पर ही काम चल जाता है। बुरी आदतें डाली जा सकती है, पर यह नहीं समझना चाहिए कि अच्छी आदतें डालना उससे कठिन है। कुम्हार अपनी मर्जी के अनुरूप चाक पर चित्र विचित्र आकृतियों के बर्तन बनाता रहता है। मनुष्य की अंतरात्मा यदि समर्थ सतेज बनी रहे तो वह भी अपने आप को जैसा भी चाहे भला या बुरा गढ़ सकता है। यह कार्य कठिन नहीं, सरल है। समृद्धि अर्जित करने की तुलना में प्रतिभा का उपार्जन सरल है।

करोड़ करोड़पति मिलकर भी एक गाँधी की बराबरी नहीं कर सकते। एक महामानव लाख पहलवानों से बढ़कर है। इस तथ्य को समझा जा सके तो व्यक्ति समृद्ध बनने के लिए जितना प्रयत्न करता है, उससे हजार गुना अधिक प्रबुद्ध बनने के लिए करे।

मूर्द्धन्य लोगोँ को यह सूझ पड़े कि प्रजाजनों की शारीरिक आवश्यकताओं की तरह अंतरात्मा की भावनाओं को विकसित करना भी आवश्यक है तो वे दूसरी तरह से सोचे और अपनी प्रयास योजनाओं का कम से कम आधा भाग सद्भाव संवर्द्धन के लिए निश्चय ही सुरक्षित रखे। विचारशील व्यक्ति आलस्य प्रमाद से छूट सकता है, अवगति के गड्ढे से उछलकर प्रगति की मुंडेर पर आ सकता है और उस राजमार्ग को पकड़ सकता है, जिस पर चलते हुए अपनी ही नहीं, प्रभावक्षेत्र की भी दरिद्रता को मार भगा सकता है। संपत्ति पुरुषार्थ को उत्पन्न नहीं करती, पुरुषार्थ संपत्ति को उत्पन्न करता है। संपदा से मनुष्य पैदा नहीं होता। मनुष्य के पसीने से दौलत पैदा होती है। यह समझा जा सके तो मनुष्य को समृद्ध, शिक्षित, बलिष्ठ, चतुर बनाने की अपेक्षा ऐसा शिल्पी बनाया जाए जो अपने आप को भी ढाल सके और समीपवर्ती मिट्टी खोदकर उसे देवप्रतिमा के रूप में सुसज्जित कर दे। यदि ऐसा एक भी व्यक्ति ढल सके तो उस पर स्नातक प्रमाण पत्रों के गाड़ी भरे कागज तोरणों की तरह स्वागतपथ पर लटकाए जा सकते है।

परिश्रमी पसीने की बूंदों से खेती उगाते है। सज्जन अपने अनेक सहयोगी और प्रशंसक बुला लेते है। जिज्ञासा उभरे तो समाधान बताने वाले ब्रह्मांड के किसी भी कोने से निकल आते है। पढ़ने में रुचि हो तो जेल के कैदी फर्श की स्लेट पर अभ्यास कर विद्यावान् बनते देखे जाते है। इसी प्रगतिशीलता को बोते, उगाते, सींचते, बढ़ाते और रखवाली करते हुए वैभव भरी उपज के स्तर तक पहुंचाया जाना चाहिए। यदि यह लगन लग पड़े तो अकबर जैसे निरक्षर इतने प्रवीण हो सकते है कि बचपन से ही काम काज संभाल ले और सभा के नवरत्नों का मार्गदर्शन करे।

शिक्षा का अपना महत्व है। साक्षरता संवर्द्धन के प्रयत्न तो सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चलते ही रहने चाहिए। यहां कहा यह जा रहा है कि उस प्रज्ञा उन्नयन की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, जिसके आधार पर मनुष्य अपनी गरिमा को पहचानता है, जिम्मेदारी को समझता है और साहस भरे पराक्रम के आधार पर जो हस्तगत हो सकता है, उसकी अनुभूति कर सके।

संपदा के संपादन से बढ़कर सुसंस्कारिता का उत्पादन महत्वपूर्ण है। हम श्रेष्ठ बने तो सहयोग सहकार के रूप में वैभव के बादल आकर्षित होते चले जाते है, पर अकेला वैभव मानवी जीवन को गरिमामय बनाने में विफल होता है, अतएव हर एक को अपनी आँतरिक समृद्धि के लिए प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिए।


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