चेतना की शिखर यात्रा-2- हिमालय से आमंत्रण-1

October 2003

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हिमालय से आमंत्रण

संवत् 1985 का चैत्र मास। संवत्सर आरंभ हुआ ही था। वासंती नवरात्र पर पूरे गाँव में शक्तिपूजा और मानपारायण के आयोजन शुरू हो गए थे। चार, पाँच दिन बीत गए थे। श्रीराम की साधना अपने ढंग से चल रही थी। उन्होंने चैत्र नवरात्र में विशेष कुछ नहीं किया। जो साधनाक्रम चल रहा था, वही अद्भुत और अलौकिक था। इन नौ दिनों में फिर भी उन्होंने पूरी तरह निराहार रहने का व्रत लिया। सिर्फ जल और दूध पर ही निर्भर रहे। संभवतः पंचमी का दिन था। सुबह ढाई तीन बजे उठे और नित्य के उपासना अनुष्ठान में प्रवृत्त हुए। उठने और स्नानादि के समय से मन हिलोरे ले रहा था। वस्तुतः पूर्व संध्या से ही मन में संकल्प विकल्प आ रहे थे। लग रहा था कि सुबह कुछ नया आरंभ करना है। क्या आरंभ करना है, यह आभास नहीं हो रहा था। किसी अगले पड़ाव के लिए रवाना होना है, यह जरूर लग रहा था।

महापुरश्चरण के लिए नियत जप और ध्यान पूरा हुआ। देवता के लिए जप का समर्पण करने के बाद प्रदक्षिणा करते हुए बैठे ही थे कि भीतर से पुकार उठी। वाणी अपनी उसी मार्गदर्शक सत्ता के कंठ से प्रकट हुई प्रतीत हो रही थी, जिसने दो वर्ष पहले वसंत पंचमी पर हिमालय यात्रा का निर्देश दिया था। उस दिन पूजा की कोठरी में साक्षात्कार के दिन जैसी पवित्र गंध व्याप्त हो गई थी और चेतना में पिछली वसंत पंचमी जैसा उल्लास छा गया था। वह सत्ता प्रकट तो नहीं हुई थी। वाणी भी ऐसी नहीं थी कि दूसरों को सुनाई दे। आँतरिक क्षेत्र में ही वह गुंजन हुआ था। कहा गया था कि पिछली बार प्रत्यक्ष सान्निध्य के लिए बुलाने की बात कही थी वह समय आ गया है। नया संवत्सर आरंभ होने पर हिमालय की ओर प्रयाण कर देना है। वही भेट होगी।

पाँचवे नवरात्र पर पिछले वसंत के उसी निर्देश का स्मरण कराया जा रहा था। अभी उत्तराखंड के रास्तों में बर्फ जमी हुई है। बदरी केदार के कपाट भी बंद हैं। महीने भर के भीतर वहाँ के द्वार खुलने वाले हैं। यात्रा की तैयारी और वहाँ तक पहुंचने में इतना समय लग ही जाएगा। इन स्थानों की यात्रा करते हुए आगे तक पहुँचना है। निर्देश कही बाहर से नहीं, अपने भीतर से ही आ रहे थे। लग रहा था कि अपने भीतर बैठकर कोई बोल बता रहा है। उस प्रेरणा या निर्देश से सोच विचार की जरा भी गुँजाइश नहीं थी। स्फुरणा ही संकल्प बन गई कि अब चलने की तैयारी करनी है। संध्या जप से निवृत्त होने के तुरंत बाद माँ से कहा, गुरुवर का आदेश हुआ है।

भीतर से आया निर्देश

‘क्या आदेश हुआ है? ‘ताई जी ने पूछा। ’कुछ समय के लिए उनके सान्निध्य में रहना है।’ श्रीराम ने कहा। ताई जी को अपने चिरंजीव के बारे में यह आशंका नहीं रह गई थी कि वह हिमालय चला जाएगा या कही और चला जाएगा और फिर वापस नहीं लौटेगा या साधु संन्यासी बन जाएगा। उन्होंने पूछा,’ कितने दिन के लिए जाना है?’

श्रीराम ने कहा,’ यह तो नहीं पता। लेकिन लगता है, वे तीन चार दिन अपने पास रखेंगे। आने जाने में दस बारह दिन समझो।

सुनकर ताई जी के चेहरे पर स्वीकृति का भाव आया। फिर बोली’ ठीक है। दो सप्ताह लगेंगे। इतने दिन के लिए पूरे इंतजाम से जाना। कुछ रुककर वे बोली,’ इधर मौसम बदल गया है, लेकिन जिस तरफ तुम्हें जाना है, वहाँ हमेशा सरदी रहती है। ओढ़ने पहनने में किसी तरह की ढील पोल मत रखना, सरदी के कपड़े अपने साथ ही रखना।’

वे बिना रुके कहे जा रही थी, तू क्या ले जाएगा। सारा सामान मैं ही अपने हाथों से जमा दूंगी और सुन, पंडित जी से पूछ लेना। वे हरिद्वार ऋषिकेश आते जाते रहते हैं। आगे गंगोत्री तक भी गए हैं। उन्हें रास्तों के बारे में ठीक से पता होगा। वे सही सलाह देंगे।

श्रीराम ने अपने हिमालयवासी गुरु के बारे में उनसे साक्षात्कार और भावी निर्देश के बारे में ताईजी से ज्यादा चर्चा नहीं की थी। दो चार बार ही छुटपुट रूप से बताया था कि गुरुदेव हिमालय में कही रहते है। वे कही भी आ जा सकते है। अपने आपको अंतर्धान कर सकते है, प्रकट हो सकते है आदि। जब उन्होंने कहा कि गुरुदेव का बुलावा आया है, तो ताईजी को समझने में देर नहीं लगी कि श्रीराम अपने उन्हीं सिद्ध गुरु के बारे में कह रहे हैं। यह विश्वास अविचल था कि वे श्रीराम को उनसे दूर नहीं करेंगे और न ही बाबा जोगी बनाएंगे। विश्वास का कोई स्पष्ट कारण समझ में नहीं आ रहा था। वे समझना भी नहीं चाहती थी। उन्होंने अपने चिरंजीव को हिमालय की ओर जाने की अनुमति दी तो रिश्ते में चाचा लगने वाले पंडित धर्मदीन ने उनसे कहा,’ भाभी , अकेले कहा जाने दे रही हो? वहाँ साधु संन्यासी वैराग की पुड़िया खिला देंगे।

ताईजी इस सलाह पर विनोदपूर्ण हंसी हंसकर रह गई थी। सिर्फ इतना ही कहा कि रास्ता सुगमता से कट जाए, ऐसी कोई सीख दे सको तो दे दो। श्रीराम जिस तरह जा रहा है, उसी तरह वापस भी आ जाएगा। अन्य लोगों ने भी अकेले नहीं जाने देने या हिमालय से बचने की सलाह दी थी, उन सबको ताईजी ने अनदेखा, अनसुना कर दिया।

उन्हें लग रहा था वैशाख में भी बदरी केदार के आसपास ठिठुरा देने वाली सरदी होती है। इधर पौष माघ में जैसा जाड़ा होता है, उधर वैशाख ज्येष्ठ में उससे भी ज्यादा सरदी होती है। वे कभी उस क्षेत्र में गई नहीं थी, लेकिन साधु संतों और बदरी केदार की यात्रा कर आने वालो से सुना था। इसलिए उन्होंने श्रीराम को सरदी के समय दिया जाने वाला आहार जारी रखा। इस आहार को वे चैत्र नवरात्र में बंद कर देती थी। आहार कोई विशेष नहीं था। ताईजी ने शहद, अदरक, तिल आदि गरम चीजें देना जारी रखा।

हिमालय यात्रा का अर्थ उनके लिए बदरीनाथ, केदारनाथ तक सीमित था। बहुत हुआ तो गंगोत्री और यमुनोत्री भी जाया जा सकता था, लेकिन वह बहुत आगे की बात थी। श्रीराम ने जब कहा कि हिमालय जाना है तो वे केदारनाथ तक ही समझी थी। न उन्होंने ज्यादा कुछ पूछने की जरूरत समझी और न ही श्रीराम ने बताया उन्हें स्वयं नहीं मालूम था कि हिमालय यात्रा का आमंत्रण किस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए है।

लोगों से पूछताछ कर ताईजी ने सूती और ऊनी कपड़ों के अलावा मोजे,रबर के मोटे तले वाले जूते, कंबल, लाठी, मोमबत्ती ,टार्च आदि का इंतजाम किया। सब सामान कपड़े के बने दो बड़े थेलों में बाँध दिया। किसी ने कहा कि ट्रक में रखना ज्यादा ठीक रहेगा। बारिश आदि से भीगेगा नहीं। ताईजी ने जवाब दिया, लेकिन ट्रंक कितना भारी होगा। उसे उठाए उठाए ही लड़का थक जाएगा। रही बारिश की बात तो लड़का खुद को जहां छुपाएगा, वही थैले भी सुरक्षित हो जाएंगे। यात्रा पर रवाना करने से पहले ताईजी को छाते की और याद आई। हवेली से ढूंढ़ खोजकर निकाला और थमा दिया। श्रीराम अब हिमालय की यात्रा के लिए पूरी तरह तैयार थे।

कम से कम सामान

ताईजी ने स्नेह और दुलार से जो सामान बांधा था, वह बहुत ज्यादा नहीं था। भार की दृष्टि से वह आधा मन (करीब बीस किलोग्राम) भी नहीं था। ऋषिकेश पहुंचकर लगा कि वह भी ज्यादा है। श्रीराम 23 अप्रैल को ऋषिकेश पहुंचे थे। उसी शाम को गंगातट पर बैठे ध्यान कर रहे थे। सायंकाल का समय था। अप्रैल के अंत तक ऋषिकेश का मौसम सुहाना हो जाता है। सर्दी बिलकुल नहीं रहती और गरमी पूरी तरह आई नहीं होती है। यात्रियों का आना जाना शुरू हो जाता है। यों अब तो सभी ऋतुओं में यात्रियों का रेला लगा रहता है। सरदी गरमी से बचाव के सस्ते महंगे सभी साधन आसानी से मिल जाते है। 1927-28 के दिनों में ऐसी स्थिति नहीं थी। तब गरम कपड़े लेकर चलना भी अच्छी आर्थिक स्थिति का द्योतक समझा जाता था। मध्यम और मध्यम से कुछ अच्छी आर्थिक स्थिति के लोग भी धूप सेंकने या आग तापने को ही सरदी से बचाव का तरीका मानते थे। दोनों उपाय नहीं हो सकने की स्थिति में तीन चार कपड़े एक साथ पहन लेते थे।

गंगा तट पर बैठे बैठे श्रीराम की निगाहें कुछ संन्यासियों पर पड़ी। वे गंगास्नान कर निकल रहे थे। धारा से बाहर आकर सीढ़ियों पर बैठ गए। शरीर पोंछने के बाद उन्होंने अपनी थैली में से भभूत निकाली और मलने लगे। भभूत रमाए साधु संन्यासी इससे पहले भी कई बार देखे थे। तब ध्यान नहीं गया था। उन संन्यासियों को देखकर ध्यान आया कि सरदी से बचाव का एक तरीका यह भी हो सकता है। साधुओं का वह दल सायंकालीन नित्यकर्मों से निपटकर जाने लगा तो श्रीराम भी अपने आसन से उठे। दल में सबसे बुजुर्ग संन्यासी के पास गए। उन्हें प्रणाम किया। संन्यासी ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया। श्रीराम ने पूछा-” महाराज आप किधर यात्रा करेंगे।”

संन्यासी ने बताया कि बदरीनाथ जाएंगे। फिर वह बोला,’ तुम्हें चलना हो तो चलो। अकेले ही जान पड़ते हो। यात्रा अच्छी कट जाएगी। कुछ ज्ञान ध्यान की बातें भी होती रहेंगी।

श्रीराम को लगा कि महाराज कुछ ज्यादा ही बोलने वाले हैं। साथ जाने के लिए उनका मंतव्य नहीं पूछा था। उद्देश्य यात्रा की तैयारी के बारे में कुछ समझना था। उन्होंने कहा,’ नहीं नहीं हमें बदरीनाथ नहीं जाना?’

‘तो कहाँ जाना है?’ संन्यासी चलते चलते रुक गए। घर से भागकर आए हो क्या? वैराग्य लेना है? यहाँ क्या कर रहे हो? कहां के रहने वाले हो..........?’ मंडलेश्वर लगने वाले उन साधु ने एक साथ ढेरों सवाल कर दिए। श्रीराम उन सवालों के कारण अचकचा गए। लगा कि किसे छेड़ दिया। वे बोले’ क्षमा करें महाराज, हमसे गलती हो गई। हमने आपका समय नष्ट किया?’

‘व्यर्थ ग्लानि में मत जाओ बच्चा। हम जानते है तुम क्या पूछना चाहते हो?’ उस संन्यासी ने कहा। श्रीराम कोई उत्तर दिए बिना महात्मा की ओर देखते रहे,’ जिसकी पुकार पर यहाँ आए हो न उसी का विश्वास रखो, वही तुम्हें जहाँ ले जाना होगा ले जाएगा। किसी संगत में जाने के बजाय अकेले जाना ही श्रेयस्कर है।’

बदरीनाथ की ओर

संन्यासी ने ये बाते क्या सोचकर कही थीं? श्रीराम को कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने अर्थ निकालने के लिए माथापच्ची भी नहीं की। संवाद से सिर्फ यह भाव जगा कि मार्ग की चिंता, सरदी से बचाव और कठिनाइयों के बारे में सोचना व्यर्थ है। जिस मार्गदर्शक सत्ता ने हिमालय के लिए बुलाया है, वही आगे का प्रबंध भी करेगी। उन्हीं भाव धाराओं में बहते हुए कुछ सामान ऋषिकेश में छोड़ दिया। जो सामान छोड़ा, उसमें छाता, कुछ वस्त्र और एक कंबल था। थैली में एक कंबल रखा तो प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता का दिगंबर रूप स्मरण हो आया। विचार आया कि सफेद बरफ से घिरे वातावरण में बिना वस्त्रों के रहा जा सकता है तो सरदी से बचाव के ताम−झाम लेकर चलने का क्या औचित्य है?

संतों की वह मंडली बदरीनाथ जा रही थी। उनसे कुछ दूरी बनाकर श्रीराम भी चल दिए। यह निर्धारित नहीं किया था कि बदरीनाथ जाना है, कहां जाना है यह भी निर्धारित नहीं था। आँतरिक स्फुरणा का अनुसरण करते हुए चलते रहे। देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग होते हुए बदरीनाथ तक पहुंचा जाता है। उन दिनों भी सामान्य वाहन और पैदल पथ थे, लेकिन संन्यासियों ने अलग ही रास्ता चुना। परिचित मार्गों से जाने पर ऋषिकेश से बदरीनाथ लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर पड़ता है। साधु मंडली ने जो रास्ता चुना वह मुश्किल से पचास किलोमीटर लंबा था। अज्ञात पहाड़ी मार्गों से गुजरते हुए वे लोग अगली शाम तक ही जोशीमठ पहुंच गए।

नृसिंह मंदिर के सामने पहुंचकर विश्राम किया। प्रातःकाल संध्या पूजा के बाद श्रीराम नृसिंह मंदिर गए। शालिग्राम शिला में तराशी गई यह मूर्ति अद्भुत है। प्रतिमा की एक भुजा बहुत पतली है पहली बार देखने पर लगता है कि थोड़ा भी छुआ या दबाया तो भुजा टूट सकती है, लेकिन यह भय निराधार है। शताब्दियों से विग्रह इसी स्थिति में हैं। किंवदंती है और लोगों का विश्वास भी कि जिस दिन यह भुजा अलग हो जाएगी, उस दिन नर नारायण पर्वत मिल जाएंगे। दोनों पर्वत जोशीमठ से थोड़े ही फासले पर हैं। उनके बीच से रास्ता निकलता है और बदरीनाथ तक जाता है। लोगों का मानना है कि नर नारायण पर्वत के मिलते ही बदरीनाथ जाना असंभव हो जाएगा। फिर बदरी विशाल की पूजा आराधना भविष्य में बदरी में होगी। यह भी कि उस दिन कलियुग का अंत हो जाएगा अथवा सृष्टि में प्रलय भी हो जाएगा।

मंदिर परिसर में ही श्रीराम ने इस तरह की चर्चाएं सुनी, लेकिन उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे नृसिंह भगवान के दर्शन करते ही जोशीमठ आ गए। मठ की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। यहाँ उन्होंने तोटकाचार्य को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। जोशीमठ की प्रतिष्ठा इस पीठ के कारण ही है। शीतकाल में बदरीनाथ की पूजा आरती का प्रचलन शंकराचार्य ने ही कराया था। प्रमाण तो यह भी मिलते है कि बदरीनाथ का मंदिर हिमालय के दर्रे से आने वाले आतताई विदेशियों ने ध्वस्त कर दिया था। वहाँ की प्रतिमा भी खंडित कर कुंड में फेंक दी थी। बदरीनाथ की पुनर्प्रतिष्ठा आदि शंकर ने ही की थी। उन्हीं विभूति ने जोशीमठ में शाँकरमठ की स्थापना की। सभी जानते है कि इस तरह के चार मठ देश के चारों कोनों में स्थापित किए गए।


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