युवाशक्ति : उम्मीद की एकमात्र किरण

October 2003

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आह्वान युवाओं का है! पुकार युवा रक्त के लिए है!! इक्कीसवीं सदी की इस प्रभात बेला में देश के युवक-युवतियाँ स्वार्थ की नींद में सोए हुए निजी प्रतिष्ठ के सपने देखते रहें, यह किसी भी तरह से उचित नहीं। अपनी भारत माता की सिसकियों, कराह भरी करुण पुकारों की यदि वही अनसुनी करेंगे, तो कैसे उन्हें सुपुत्र और सुपुत्रियाँ कहेंगे। देश आज गम्भीर संक्रमण संकट से गुजर रहा है। जैसी वैचारिक शून्यता अभी दिख रही है, वैसी इस देश के राजनैतिक इतिहास में पहले कभी नहीं रही। अवसरवादिता चहुँओर हावी है। जातिवाद और साम्प्रदायिकता के षड्यंत्र से समाज की समरसता रोज-रोज नष्ट हो रही है। दरकनों-दरारों एवं विभाजन की पीड़ा समाज में सब तरफ रिस रही है।

अर्थव्यवस्था का अन्तराल कम पीड़ित नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव, प्रलोभन और सम्मोहन के चक्रव्यूह में फँसा हुआ शासक वर्ग देश के प्राकृतिक संसाधनों एवं अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को कौड़ियों के भाव बेच रहा है। देश में ऐसी राजनैतिक संस्कृति का चलन बढ़ा है, जो अपनी सोच में पूरी तरह से सामंती है। जनता की सेवा और जनता के प्रति जवाब देही की भावनाएँ मुरझा गयी हैं। अमीरों और गरीबों के बीच फर्क बढ़ा है, तो दूसरी तरफ देश में कुछ ही जगहों पर न्यूनतम मजदूरी मिल पाती है। किसानों को कल तक जो न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी थी, वह खत्म हो रही है।

पानी जैसी चीज जो प्रकृति की देन है और जो सभी के सुलभ होनी चाहिए आज बिकाऊ है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को इस देश में पानी बेचकर मनमाना मुनाफा कमाने की छुट मिली हुई है। यहाँ तक कि नदियों को बेचने का सिलसिला शुरू हो चुका है। भ्रष्टाचार की स्थिति भ्रष्टता की सभी सीमा रेखाओं को लांघ चुकी है। गरीब से गरीब इंसान को मिलने वाली सुविधाएँ जैसे कि राशन का अनाज, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन भी रिश्वतखोरों के शिकंजे में हैं। सरकारी कर्मचारी-अधिकारी जनता का काम करते हुए अहसास जताते हैं तथा उसकी भारी कीमत वसूलते हैं। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सक पूरा समय नहीं देते, दवाएँ मुहैया नहीं होती। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।

दलितों-पीड़ितों के नाम से शासन करने वाले नेता स्वयं ही सामंती सोच के शिकार हैं। उनकी शानो-शौकत देखते ही बनती है। जबकि उन्हें वोट देने वाली जनता वैसा ही सामाजिक, आर्थिक पिछड़ापन भुगत रही है। साधारण जनता जमीन-जायदाद के छोटे-छोटे झगड़ों को लेकर पुलिस-कचहरी के चक्कर काटती रहती है और वहाँ उसका जमकर शोषण होता है। व्यवस्था इतनी जटिल हो गयी है कि जगह-जगह बिचौलिए और दलालों के बिना काम नहीं चलता। हार-थककर इनकी शरण में आना ही पड़ता है। स्थिति बनने की बजाय बिगड़ रही है और हम सभी कठपुतली बने असहाय पड़े हुए सारा तमाशा देख रहे हैं।

सवाल यह है कि अब किया क्या जाये? या तो हम मूक दर्शक बने रहें और किसी बड़ी दुर्घटना की प्रतीक्षा करें। अथवा चुप्पी तोड़कर इस व्यवस्था को बदलने के लिए अपनी भूमिका तय करें। इस देश में लोकसेवियों की महत्त्वपूर्ण परम्परा हमेशा मौजूद रही है, जो मूल्य आधारित विचारशक्ति जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। इसकी चिन्ता हमेशा समाज का अन्तिम इंसान होता है। लोकसेवियों की यह जीवनधारा शासन में कोई रुचि न रखते हुए भी राष्ट्रीय व्यवस्था एवं देश के भविष्य के लिए हमेशा ही चिंतनशील रहती है। जब देश की व्यवस्था गड़बड़ाती है, तो लोकसेवियों की परम्परा इसे अपना कर्त्तव्य समझकर उसे फिर से सुधारने का प्रयास करती है। लोकसेवियों की इस परम्परा को आम आदमी के जीवन से जुड़े हुए मुद्दों का हमेशा ध्यान रहता है। कोई निहित स्वार्थ न होने के कारण लोकसेवियों की इस परम्परा में सदैव इतना नैतिक साहस होता है कि सही को सही और महान लोकमत कह सकें। गलत को गलत कह सकें। यही इसकी विशेषता है और निश्चित रूप से यही इसकी उपयोगिता और ताकत भी है।

आचार्य चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, विनोबा एवं लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपने जीवनकाल में लोकसेवियों की इसी परम्परा को निभाया और राष्ट्रीय व्यवस्था को परिष्कृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने भारतीय समाज एवं मानवीय समाज के उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा। विनोबा ने तेरह वर्षों की पदयात्रा के अथक प्रयास से यह दिखाया कि एक पेचीदा समस्या का मानवीय समाधान क्या हो सकता है? विनोबा के प्रयासों से भारत में जितने भूमिहीनों को जमीनें मिली उतनी किसी और के प्रयास से नहीं मिली।

सवाल यह है कि आज के दौर में अँधेरी राहों के लिए प्रकाश दीप कहाँ है? किधर है वह दिशा सूचक यंत्र जिसके सहारे हम समाधान की खोज में चल पड़े। शान्तिकुञ्ज द्वारा संचालित विचार क्रान्ति अभियान में इन सभी प्रश्नों के उत्तर अन्तर्निहित हैं। नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति इसके महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण इसके अनिवार्य उद्देश्य हैं। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज इसकी क्रियात्मक गतिविधियों का आधार है। साँस्कृतिक संवेदना की सजल भावधारा इस राष्ट्रीय जनआंदोलन का ऊर्जा स्रोत है। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि एवं प्रगतिशील जीवन दर्शन को आधार बनाकर इसका समूचा ढाँचा खड़ा किया गया है। इस जनआंदोलन में जो नयी युवा शक्ति खड़ी होगी वह उम्मीद की नयी किरण होगी।

नव सृजन के इस राष्ट्रीय एवं मानवीय आन्दोलन में आदर्शवादी युवक-युवतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ऐसे युवा-युवतियों को जो एक आदर्श समाज की रचना का स्वप्न देखते हों, अपने संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। उन्हें अपने एवं परिवार से ऊपर उठकर समाज एवं देश को प्राथमिकता देनी होगी। अपनी-अपनी रुचि के कुछ रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कामों से स्वयं को जोड़ना होगा। उदाहरण के लिए कुछ कार्य सभी जगह किये जा सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा, साक्षरता, स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता, स्वच्छता आदि कार्य हर कहीं किये जा सकते हैं। दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन जैसे दहेज प्रथा विरोध, नशा निवारण आदि के लिए भी अपने आपको समर्पित किया जा सकता है।

युवा शक्ति आज के समय में क्या करें? इसके लिए शान्तिकुञ्ज में एक विस्तृत खाका-ब्यौरा तैयार किया गया है। युवा शक्ति के नियोजन एवं उनकी ऊर्जा के क्रियान्वयन के विषय में यह महत्त्वपूर्ण ब्लु प्रिन्ट है। बस जरूरत युवाओं के अन्तःकरण में उमड़ते, उफनते उत्साह की है आवश्यकता उस साहस और समर्पण की है, जो राष्ट्रीय नव निर्माण में शामिल होने के लिए विकल हैं, यदि आप में वह हिम्मत और जोश है, तो आप आज ही स्वयं को इस नव निर्माण आन्दोलन से सम्बद्ध कर सकते हैं। स्वयं को विचार क्रान्ति अभियान का एक प्राणवान कार्यकर्त्ता बना सकते हैं। युवा शक्ति द्वारा प्रेरित एवं प्रवर्तित विचार क्रान्ति अभियान में इस तरह युवा-युवतियों की व्यापक भागीदारी से इस देश को बचाने एवं बनाने का एक बड़ा आन्दोलन देश भर में व्यापक हो सकेगा। इक्कीसवीं सदी में होने वाले उज्ज्वल भविष्य की आधारभूमि यही होगी।


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