विजयदशमी संदर्भ - विश्वभर में लोकप्रिय है रामकथा

October 2003

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रामायण भगवान् राम के आदर्श चरित्र की पावन कथा है जो युगों से एक प्रचण्ड प्रेरक शक्ति के रूप में भारतीय संस्कृति को आदर्शोन्मुख दिशा की ओर प्रवृत्त किये हुए है। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने जहाँ देवभाषा में इसका आदि संकलन किया, बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के रूप में इस कथा को जन-जन के बीच लोकप्रिय बनाया। कम्बन रामायण के रूप में इसने दक्षिण भारत में लोकप्रियता पायी। इस तरह नाना भाषाओं में इस पावन कथा के भाषान्तरण के साथ भारतवर्ष में इतनी लोकप्रिय हुई है कि यहाँ ‘घर-घर में बसे है राम’ की उक्ति चरितार्थ होती है।

रामायण कथा की अपार लोकप्रियता का कारण इसमें निहित जीवन की समग्रता का बोध है, जिसमें पाठक, श्रोता एवं दर्शक को आदर्श एवं व्यवहार का, लौकिकता एवं अलौकिकता का, काम-अर्थ एवं धर्म-मोक्ष का, ज्ञान एवं भक्ति का विरल संयोग मिलता है। जीवन के हर पक्ष को छूते इसके आदर्श पात्रों के प्रेरक प्रसंग में दिशा निर्धारक दृष्टि सहज ही प्राप्त हो जाती है। अतिपावन राम कथा वस्तुतः जीवन के समस्त पाप-ताप, दुःख-दारिद्रय एवं संकट-कष्टों को हरने वाली है। और दशहरे के पावन पर्व पर तो इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। दशहरा, असुरता के प्रतीक रावण के वध, संस्कृति प्रतीक माता सीमा की स्वतंत्रता के साथ अधर्म के नाश व धर्म की स्थापना का उद्घोषक पर्व है। नवरात्र की दुर्गापूजा के बाद इस पर्व की स्थिति इसे और भी विशिष्ट रूप प्रदान करती है। इसे दशविध पाप को हरण करने वाली तिथि, दशजन्मकृत पाप को हरण करने वाली तिथि माना गया है। ‘दशहरा’ नाम के अर्थ में यही मर्म निहित है।

महर्षि शुक्राचार्य कृत शुक्रनीति (3,7-8) के अनुसार दशविधपाप हैं-1. हिंसा-किसी की हत्या या किसी को कष्ट पहुँचाना, 2. स्तेय-चोरी करना, 3. अन्यथाकाम-अवैध मैथुन, 4. पैशुन्य-चुगलखोरी, 5. निष्ठुर भाषण-कटुवचन, 6. अनृत-मिथ्या कथन, 7. भेदवार्ताव्यापार-भेदवार्ता से हृदय विदारण, 8. अविनय-विनय हीनता दिखाना, 9. नास्तिकता-आस्थाहीनता, निरीश्वरता तथा 10. अवैध आचरण-शास्त्र विरुद्ध आचरण।

वास्तव में पाप ही जीवन को दुख-कष्टमय, रोग-शोकमय एवं दरिद्र-संतापमय बनाने वाला मूल कारण है। दशहरे में भक्ति भाव पूर्ण किया गया रामकथा का श्रवण, दर्शन एवं परायण मानव को इन दशविध पापों से मुक्त करने वाला है। इसके साथ ही मानव मात्र की लौकिक समृद्धि एवं आन्तरिक शान्ति-संतोष एवं समग्र विकास का मार्ग भी सहज ही प्रशस्त हो जाता है। रामकथा की इस अद्भुत विशेषता के कारण ही यह भारतवर्ष भर में ही नहीं, बल्कि विश्व के हर कोने में लोकप्रिय होती गई है और आज रामायण का स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय विस्तार लिये हुए है। दक्षिण एशिया में थाईलैण्ड, मलेशिया, इण्डोनेशिया आदि से लेकर मध्य एशिया चीन तक व यूरोप में रूस से लेकर फ्राँस, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका तक इसके विश्वव्यापी विस्तार के दिग्दर्शन किये जा सकते हैं।

दक्षिण पूर्व एशिया में रामकथा किस कदर जनजीवन में व्याप्त है व यहाँ के साँस्कृतिक जीवन को प्रभावित कर रही है यह अद्भुत एवं आश्चर्य जनक है। हालाँकि इसमें भारत के अतीतकालीन उन गौरवशाली क्षणों की भी याद आती है जब यह समूचा क्षेत्र भारत का साँस्कृतिक उपनिवेश था। विश्व के इस भू-खण्ड ने राम और उसके देश की संस्कृति को भली-भाँति समझा और उसकी महत्ता स्वीकार किया है। थाईलैण्ड इसका जीवन्त उदाहरण है। इसके साँस्कृतिक और धार्मिक जीवन में राम पूर्णतः समरस हैं। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस देश में कहीं-कहीं राम और बुद्ध के बीच कोई पृथकता की रेखा नहीं है। यहाँ के जीवन में दोनों का सहअस्तित्व है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर हैं, जिसमें नीलम की मूर्ति है। यह मंदिर पूरे देश में बहुत प्रसिद्ध है तथा दूर-दूर से लोग इसके दर्शनार्थ आते हैं। मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण रामकथा चित्रित है। इस देश की अपनी रामायण है-रामकियेन, जिसके रचयिता थे- नरेश राम प्रथम। उन्हीं के वंश के नरेश रामनवम्, वर्तमान में देश के शासक हैं।

थाईलैण्ड में यदि किसी एक स्थल पर राम के भव्य दर्शन करने हो तो इसके बैंकाक स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में किये जा सकते हैं। यहाँ के संग्रहालय में प्रवेश करते ही धनुर्धारी श्रीराम के दर्शन होते हैं। रामकथा यहाँ के लोकजीवन में इतनी रची-बसी है कि थाईवासियों का यहाँ तक विश्वास है कि रामायण की घटनाएँ उनके देश में ही घटी। आश्चर्य की बात नहीं कि थाईलैण्ड में एक अयोध्या और लवपुरी (लोयबुरी) भी है। थाई जीवन में राम की लोकप्रियता की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसके प्रमाण यहाँ के शास्त्रीय नृत्य हैं, जिनमें रामकथा के दर्जनों प्रसंग प्रदर्शित किये जाते हैं और ये नृत्य आज भी थाईलैण्ड में लोकप्रिय हैं।

थाईलैंड की तरह कम्बोडिया में राम के महत्त्व का जीता-जागता प्रमाण है- अंगकोरवाट जो दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहाँ बुद्ध, शिव, विष्णु, राम आदि सभी भारतीय देवों की मूर्तियाँ पायी जाती हैं। इसका निर्माण ग्यारहवीं सदी में सूर्य वर्मन द्वितीय ने कराया था। इस मन्दिर के कई भाग हैं-अंगकोरवाट, अंगकोरथाम, बेयोन आदि। अंगकोरवाट में रामकथा के अनेक प्रसंग दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। जैसे सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में रामदूत हनुमान आगमन, लंका में राम-रावण युद्ध, बालि-सुग्रीव युद्ध आदि। यहाँ की रामायण का नाम है- रामकेर, जो थाई रामायण से बहुत मिलती-जुलती है। इसी तरह लाओस और वर्मा जैसे बौद्ध देशों के जीवन में भी रामकथा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इसे नृत्य नाटकों और छायाचित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। यहाँ के बौद्ध मंदिरों में इनके प्रदर्शन होते हैं।

इण्डोनेशिया में रामायण की लोकप्रियता उल्लेखनीय है। यहाँ चाहे बाली का हिन्दु हो या जावा-सुमात्रा का मुसलमान, दोनों ही राम को अपना राष्ट्रीय महापुरुष और राम साहित्य तथा राम सम्बन्धी ऐतिहासिक अवशेषों को अपनी साँस्कृतिक धरोहर समझता है। जोगजाकर्ता से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित प्राम्बनन का मंदिर इस बात का साक्षी है, जिसकी प्रस्तर भीतियों पर सम्पूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है। बाली में रामलीला या रामकथा से सम्बन्धित नृत्य-नाटिकाओं की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस द्वीप का वातावरण पूर्णतः राममय है। इण्डोनेशिया की प्रसिद्ध रामायण का नाम रामायण काकविन है।

मलेशिया में रामायण मनोरंजन का अच्छा माध्यम है। यहाँ चमड़े की पुतलियों द्वारा रात्रि में रामायण प्रसंग दिखाये जाते हैं। यहाँ की रामायण का नाम है- हेकायत सेरीरामा, जिसमें राम को विष्णु का अवतार माना गया है। हालाँकि इस पर इस्लाम का प्रभाव भी स्पष्ट है। सिंहल द्वीप में कवि नरेश कुमार दास ने छठी शताब्दी में जानकी हरण काव्य की रचना की थी। यह संस्कृत ग्रन्थ है। बाद में इसका सिंहली भाषा में अनुवाद हुआ। आधुनिक काल में जान डी सल्वा ने रामायण का रूपांतरण किया।

रामायण का विस्तार जहाँ दक्षिण पूर्व एशिया में साँस्कृतिक पृष्ठभूमि में हुआ है, वही यूरोप एवं अमेरिका में इसकी पृष्ठभूमि प्रमुखतः साहित्यिक रही है। यूरोपीय देशों व अमेरिका के विश्व विद्यालयों में इसकी पहुँच का माध्यम भारतवंशी नहीं बल्कि स्थानीय विद्वान रहे, जिन्होंने प्राच्य विद्या या भारतीय विद्या के रूप में संस्कृत का पठन-पाठन किया। इन्होंने रामायण को आध्यात्मिक ग्रन्थ की बजाये, एक साहित्यिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया, हालाँकि इसके आध्यात्मिक एवं साँस्कृतिक प्रभावों से वे अछूते न रह सके। देवभाषा संस्कृत को पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में स्थान मिलने के कारण वाल्मीकि रामायण से इनका परिचय शताब्दियों पूर्व हो गया था, किन्तु रामचरितमानस के प्रति पश्चिमी देशों का आश्चर्यजनक रुझान मुख्यतः पिछली शताब्दी से ही शुरू होता है, जिसका अनुवाद अभी तक लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विश्व भाषाओं में हो गया है और अभी हो रहा है।

फ्रांसीसी विद्वान गार्सादतासी ने 1839 में रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का अनुवाद किया था। फ्राँसिसी भाषा में मानस के अनुवाद की इस धारा को पेरिस विश्वविद्यालय के श्री वादिविल ने आगे बढ़ाया। अंग्रेजी में मानस का पद्यानुवाद पादरी एटकिंस ने किया, जो बहुत लोकप्रिय है। इसका प्रकाशन हिन्दुस्तान टाइम्स में देवदास गाँधी ने कराया था। इसी प्रकार के अनुवाद जर्मनी, सोवियत संघ आदि में हुए। रूसी भाषा में मानस का अनुवाद करके अलेक्साई वारान्निकोव ने भारत-रूस की साँस्कृतिक मैत्री की सबसे सशक्त आधारशिला रखी। उनकी समाधि पर मानस की अर्द्धाली ‘भलो भलाहिह पै लहै’ लिखी है, जो सेट पीटर्सबर्ग के उत्तर में उनके गाँव कापोरोव में स्थित है। चीन में वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों का पद्यानुवाद हो चुका है। डच, जर्मन, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद हो चुके हैं।

शोध ग्रन्थों के माध्यम से भी यह धारा पश्चिम में आगे बढ़ी है। हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम शोधग्रन्थ इटली निवासी डॉ. टेसीटोरी का माना जाता है, जिस पर फ्लोरेंस विश्वविद्यालय ने उन्हें 1910 में डॉक्ट्रेट की उपाधि दी थी। विषय था- ‘मानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन।’ दूसरा शोध ग्रन्थ जे. एन. कार्पेण्टर ने ‘थियोलॉजी ऑफ तुलसीदास’ शीर्षक के तहत लंदन विश्वविद्यालय में 1918 में प्रस्तुत किया था।

इस तरह रामायण की विश्वव्यापी भूमिका प्रकाश में आ रही है और इसमें अनेक साँस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं साहित्यिक धाराओं के साथ अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलनों की एक धारा की भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके अंतर्गत अब तक 12 देशों में 16 रामायण सम्मेलन हो चुके हैं। भारत से शुरू होकर कई विश्व-परिक्रमाएँ कर चुकी यह सम्मेलन शृंखला एक विश्व साँस्कृतिक मंच के रूप में उभर कर आयी है।

रामायण की साहित्यिक, साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विशेषताएँ रामकथा को अपने-अपने ढंग से विश्वव्यापी लोकप्रियता दिलाने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। हर धारा का व्यक्ति, परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र एवं विश्व के आध्यात्मिक उत्थान, संस्कार एवं साँस्कृतिक निर्माण के संदर्भ में अपनी भूमिका है। दशहरे के पावन पर्व के संदर्भ में हर स्तर पर इसके परायण की महत्ता कुछ विशेष ही हो जाती है। नवरात्रियों में इसका किया गया श्रद्धापूर्वक विधिवत् परायण या कथा श्रवण दस पाप-तापों के हरण के साथ दशहरे के नाम की सार्थकता सिद्ध करने वाला है। दशहरे के पुण्य पर्व पर रामकथा की इस विशेषता से किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए।


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