परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - अध्यात्म साधना का मर्म-3

October 2003

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समापन किश्त (गताँक से आगे)

पहले थ्योरी समझें

पूजा ओर पाठ किस चीज का नाम है? दीवार को गिरा देने का, इसी ने हमारे और भगवान के बीच में लाखों कि.मी. की दूरी खड़ी कर दी है, जिससे भगवान हमको नहीं देख सकता और हम भगवान को नहीं देख सकते। हम इस दीवार को गिराना चाहते है। उपासना का वास्तव में यही मकसद है। छैनी और हथौड़े को जिस तरह से हम दीवार गिराने के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसी तरीके से अपनी सफाई करने के लिए पूजा पाठ के , भजन के कर्मकांड का, क्रियाकृत्य का उपयोग करते है। भजन उसी का उद्देश्य पूरा करता है। यह मैं आपको फिलॉसफी समझना चाहता था। अगर आप अध्यात्म की फिलॉसफी समझ जाए, इस थ्योरी को समझ जाए तो आपको प्रेक्टिस से फायदा हो सकता है। नहीं साहब, हम तो प्रेक्टिस से इम्तिहान देंगे, थ्योरी में नहीं देंगे, किसका इम्तिहान देना चाहते है? हम तो साहब वाइवा देंगे और थ्योरी के परचे आएंगे तो? थ्योरी, थ्योरी के झगड़े में हम नहीं पड़ते, हम तो आपको सुना सकते हैं। हम फिजिक्स जानते हैं। देखिए ये हाइड्रोजन गैस बना दी। देखिए ये शीशी इसमें डाली और ये शीशी इसमें डाली, बस ये पानी बन गया। अच्छा अब आप हमको साइंस में एम एससी की उपाधि दीजिए। गैस क्या होती है? गैस, गैस क्या होती है, हमें नहीं मालूम। इस शीशी में से निकाला ओर इस शीशी में डाला, दोनों को मिलाया, पानी बन गया। अब आपको शिकायत क्या है इससे? नहीं साहब, आपको साइंस जाननी पड़ेगी, फिजिक्स पढ़नी पड़ेगी तब सारी बातें जानेंगे। नहीं साहब जानेंगे नहीं।

बेटे , आपको जानना चाहिए और करना चाहिए। जानकारी और करना दोनों के समन्वय का नाम एक समग्र अध्यात्मवाद होता है। मैंने आपको अध्यात्म के बारे में इन थोड़े से शब्दों में समझाने की कोशिश की कि आप क्रिया कृत्यों के साथ साथ आत्म संशोधन की प्रक्रिया को मिलाकर रखें तो हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है। बच्चों को यही करना पड़ता है। पूजा का हर काम बड़ा कठिन है। नहीं साहब! सरल बता दीजिए। सरल तो एक ही काम है और वह है मरना। मरने से सरल कोई काम नहीं है। जिंदगी, जिंदगी बड़ी कठिन है। जिंदगी के लिए आदमी को संघर्ष करना पड़ता है, लड़ना पड़ता है। प्रगति के लिए हर आदमी को लड़ना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा। मरने के लिए क्या करना पड़ता है? मरने के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ता। छत के ऊपर चढ़कर चले जाओ और गिरो, देखो अभी खेल खत्म। गंगाजी में चले जाओ झट से डुबकी मारना, बहते हुए चले जाओगे। बेटे,मरना ही सरल है। पाप ही सरल है, पतन ही सरल है। अपने आपका विनाश ही सरल है। दियासलाई की एक तीली से अपने घर को आग लगा दीजिए। आपका घर जो पच्चीस हजार रुपये का था, एक घंटे में जलकर राख हो जाएगा। तमाशा देख लीजिए। आहा गुरुजी! देखिए हमारा कमाल, हमारा चमत्कार। क्या चमत्कार है? देखिए पच्चीस हजार रुपये का सामान था, हमारे घर में, हमने दियासलाई की एक तीली से जला दिया। कमाल है न वाह भई वाह! बहादुर हो तो ऐसा, जो एक तीली से पच्चीस हजार रुपये जला दे।

कमाना कठिन गंवाना सरल

मित्रो! पच्चीस हजार रुपये कमाना कितना कठिन होता है, कितना जटिल होता है, आप सभी जानते है। इसी तरह जीवन को, व्यक्तित्व को बनाना, विकसित करना कितना कठिन, कितना जटिल है। यह उन लोगों से पूछिए जिन्होंने सारी जिंदगी मेहनत मशक्कत की और आखिर के दिनों में पंद्रह हजार रुपये का मकान बना पाए। देखिए साहब, अब हम मर रहे हैं, लेकिन हमने इतना तो कर लिया कि अपने बाल बच्चों के लिए एक मकान बनाकर छोड़े जा रहे है। निज का मकान तो है। पंद्रह हजार रुपये बेटा क्या है? पंद्रह हजार रुपये हमारी सारी जिंदगी की कीमत है। जिंदगी की कीमत किसे कहते है? अपने व्यक्तित्व को बनाना, अपने जीवन को बनाना, अपनी जीवात्मा को महात्मा, देवात्मा बनाना और परमात्मा बनाना, यह विकास कितना बड़ा हो सकता है? इसके लिए कितना संघर्ष करना चाहिए, कितनी मेहनत करनी चाहिए, कितना परिश्रम और कितना परिष्कार करना चाहिए।

अगर आपके मन में यह बात नहीं आई और आप यही कहते रहे कि सरल रास्ता बताइए, सस्ता रास्ता बताइए, तो मैं यह समझूंगा कि आप जिस चीज को बनाना चाहते है, असल में उसकी कीमत नहीं जानते। कीमत जानते होते तो आपने सरल रास्ता नहीं पूछा होता। आप इंग्लैंड जाना चाहते हैं? अच्छा साहब, इंग्लैंड जाने के लिए छह हजार रुपये लाइए, आपको हवाई जहाज का टिकिट दिलवाएं। नहीं साहब, इतने पैसे तो नहीं खरच कर सकते। क्या करना चाहते हैं? सरल रास्ता बताइए इंग्लैंड जाने का। इंग्लैंड जाने का रास्ता जानना चाहते हैं? कैसा सरल रास्ता बताऊं बेटे? बस गुरुजी ज्यादा से ज्यादा मैं छह नए पैसे खरच कर सकता हूँ पहुंचा दीजिए न। अच्छा ला छह नए पैसे। इंग्लैंड अभी चुटकी में पहुंचाता हूँ ये देख हरिद्वार में बैठा था और पहुंच गया इंग्लैंड देख ये लिखा हुआ है इंग्लैंड। अरे महाराज जी, यह तो आप चालाकी की बात कहते हैं। अच्छा बेटे, तू क्या कर रहा था? तू चालाकी नहीं कर रहा था। नहीं महाराज जी, भगवान तक पहुंचा दीजिए, मुफ्त में अपनी सिद्धि से पहुंचा दीजिए। यहां पहुंचा दीजिए, वहां पहुंचा दीजिए। पागल कही का, पहुंचा दे तुझे जहन्नुम में। तू कही नहीं जा सकता, जहां है वही बैठा रह।

कीमत चुकाइए

इसलिए मित्रो! ऊंचा उठने और श्रेष्ठ बनने के लिए जिस चीज की, जिस परिश्रम की जरूरत है, उसके लिए आप कमर कसकर खड़े हो जाइए, कीमत चुकाइए और सामान खरीदिए। पाँच हजार रुपये लाइए, हीरा खरीदिए। नहीं साहब, पाँच पैसे का हीरा खरीदूंगा। बेटे, पाँच पैसे का हीरा न किसी ने खरीदा है और न कही मिल सकता है। सस्ते में मुक्ति बेटे हो ही नहीं सकती। अगर तुम कठिन कीमत चुकाना चाहते हो तो सुख शाँति पा सकते हो। सुख और शाँति पाने के लिए हमको कितनी मशक्कत करनी पड़ी है, आप इससे अंदाजा लगा लीजिए। सुख बड़ा होता है या शाँति? पैसे वाला बड़ा होता है या ज्ञानवान? बनिया बड़ा होता है या पंडित? तू किसको प्रणाम करता है- बनिया को या पंडित को और किसके पैर छूता है? लालाजी के या पंडित जी के? पंडित जी के क्यों? क्योंकि वह बड़ा होता है। ज्ञान बड़ा होता है और धन कमजोर होता है। इसलिए सुख की जो कीमत हो सकती है, शाँति की कीमत उससे ज्यादा होनी चाहिए। सुख के लिए जो मेहनत, जो मशक्कत, जो कठिनाई उठानी पड़ती है, शाँति के लिए उससे ज्यादा उठानी पड़ती है और उठानी भी चाहिए। आपको यदि यह सिद्धाँत समझ में आ जाए तो मैं समझूंगा कि आपने कम से कम वास्तविकता की जमीन पर खड़ा होना तो सीख लिया। आप इस पर अपनी इमारत भी बना सकते है और जो चीज पाना चाहते है वह पा भी सकते है।

इतना बताने के बाद अब मैं आपको क्रियायोग की थोड़ी सी जानकारी देना चाहूंगा। उपासना की सामान्य प्रक्रिया हम आपको पहले से बताते रहे है। उसमें सबसे पहला प्रयोग चाहे वह उपासना के पंचवर्षीय साधनाक्रम में शामिल हो, चाहे हवन में, चाहे अनुष्ठान में, पाँच कृत्य आपको अवश्य करने पड़ते है- यह आत्मशोधन की प्रक्रिया पाँच है-(1) पवित्रीकरण करना (2) आचमन करना (3)शिखाबंधन (4)प्राणायाम और (5) न्यास। इन चीजों के माध्यम से मैंने आपको एक दिशा दी है, एक संकेत दिया है। हमने यह नियम बनाया है कि आपको स्नान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए न्यास करना चाहिए। इन माध्यमों से आपको अपनी प्रत्येक इंद्रिय का परिशोधन करना चाहिए।

आत्मशोधन

मित्रों! हमारी हर चीज संशोधित और परिष्कृत होनी चाहिए, स्नान की हुई होनी चाहिए। न्यास में हम प्रत्येक इंद्रिय के परिशोधन की प्रक्रिया की ओर आपको इशारा करते है और कहते है कि इन सब इंद्रियों को आप सही कीजिए, इंद्रियों को ठीक कीजिए। न्यास में हम आपको आंख से पानी लगाने के लिए कहते है, मुंह से, वाणी से पानी लगाने के लिए कहते है। पहले आप इनको धोइए। मंत्र का जप करने से पहले जीभ को धोकर लाइए। तो महाराज जी! जीभ का संशोधन पानी से होता है? नहीं बेटे, पानी से नहीं होता। पानी से इशारा करते हैं जिह्वा के संशोधन का, इंद्रियों के संशोधन का। जिह्वा का स्नान कही पानी पीकर हो सकता है? नहीं, असल में हमारा इशारा जिह्वा के प्राण की ओर है, जिसका शोधन करने के लिए अपने आहार और विहार दोनों का संशोधन करना पड़ेगा।

मित्रो! हमारी वाणी दो हिस्सों में बांटी गई है, एक को ‘रसना’ कहते हैं, जो खाने के काम आती है ओर दूसरी को वाणी का भाग कहते हैं, जो बोलने के काम आती है। खाने के काम से मतलब यह है कि हमारा आहार शुद्ध और पवित्र होना चाहिए, ईमानदारी का कमाया हुआ होना चाहिए। गुरुजी! मैं तो अपने हाथ का बनाया हुआ खाता हूँ। नहीं बेटे, अपने हाथ से बनाता है कि पराये हाथ का खाता है, यह इतना जरूरी नहीं है। ठीक है सफाई का ध्यान होना चाहिए, गंदे आदमी के हाथ का बनाया हुआ नहीं खाना चाहिए, ताकि गंदगी आपके शरीर में न जाए, लेकिन असल में जहाँ तक आहार का संबंध है, जिह्वा के संशोधन का संबंध है, उसका उद्देश्य यह है कि हमारी कमाई अनीति की नहीं होनी चाहिए, अभक्ष्य की नहीं होनी चाहिए। आपने अनीति की कमाई नहीं खाई है, अभक्ष्य की कमाई नहीं खाई है, दूसरों को पीड़ा देकर आपने संग्रह नहीं किया है। दूसरों को कष्ट देकर, विश्वासघात करके आपने कोई धन का संग्रह नहीं किया है तो आपने चाहे अशोका होटल में बैठकर प्लेट में सफाई से खा लिया हो, चाहे पत्ते पर खा लिया हो, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं है।

अपने श्रम की कमाई खाएँ

मित्रों! ईमानदारी का कमाया हुआ धान्य, परिश्रम से कमाया हुआ धान्य नहीं है। ध्यान रखें, हराम की कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। जुए की कमाई, लाटरी की कमाई, सट्टे की कमाई ओर बाप दादाओं की दी हुई कमाई को भी मैंने चोरी का माना है। हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध का मतलब यह था कि जो कमाऊ बेटे होते थे, बाप दादो की कमाई को श्राद्ध में दे देते थे, अच्छे काम में लगा देते थे, ताकि बाप की जीवात्मा, जिसने जिंदगी भर परिश्रम किया है, उसकी जीवात्मा को शाँति मिले। हम तो अपने हाथ पांव से कमाकर खाएंगे। ईमानदार बेटे यही करते थे। ईमानदार बाप यही करते थे कि अपने बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसे इस लायक बनाकर छोड़ा करते थे कि अपने हाथ पांव की मशक्कत से वे कमाए खाएं।

अपने हाथ की कमाई, पसीने की कमाई खा करके कोई आदमी बेईमान नहीं हो सकता, चोर नहीं हो सकता, दुराचारी नहीं हो सकता, व्यभिचारी नहीं हो सकता, कुमार्गगामी नहीं हो सकता। जो अपने हाथ से कमाएगा, उसे मालूम होगा कि खरच करना किसे कहते हैं। जो पसीना बहाकर कमाता है, वह पसीने से खरच करना भी जानता है। खरच करते समय उसको कसक आती है, दर्द आता है, लेकिन जिसे हराम का पैसा मिला है, बाप दादों का पैसा मिला है, वह जुआ खेलेगा, शराब पिएगा और बुरे से बुरा कर्म करेगा। कौन करेगा पाप? किसको पड़ेगा पाप? बाप को। क्यों पड़ेगा? मैं इसे कमीना कहूंगा, जिसने कमा कमाकर किसी को दिया नहीं। बेटे को दूंगा, सब जमा करके रख गया है दुष्ट कही का। वह सब बच्चों का सत्यानाश करेगा। मित्रो! हराम की कमाई एक और बेईमानी की कमाई दो, दोनों में कोई खास फर्क नहीं है, थोड़ा सा ही फर्क है। ईमानदारी और परिश्रमी व्यक्ति हराम की और बेईमानी की कमाई नहीं खाते।

वाणी का सुनियोजन करिए

मित्रो! आपकी जिह्वा इस लायक है कि इससे जो भी आप मंत्र बोलेंगे, सही होते हुए चले जाएंगे और सार्थक होते चले जाएंगे, अगर आपने जिह्वा का ठीक उपयोग किया है तब और आपने दूसरों को बिच्छू के से डंक चुभोए नहीं है, दूसरों का अपमान किया नहीं है। दूसरों को गिराने वाली सलाह दी नहीं है , दूसरों की हिम्मत तोड़ने वाली सलाह दी नहीं है। जो यह कहते हैं कि हम झूठ नहीं बोलते। अरे! झूठ तो नहीं बोलता, पर दूसरों का दिल तोड़ता है दुष्ट। हमें हर आदमी की हिम्मत बढ़ानी चाहिए और ऊंचा उठाना चाहिए। आप तो हर आदमी को मार गिरा रहे हैं, उसे डिमारलाइज कर रहे हैं। आपने कभी ऐसा किया है कि किसी को ऊंचा उठाने की बात की है। आपने तो हमेशा अपनी स्त्री को गाली दी कि तू बड़ी पागल है, बेवकूफ है, जाहिल है। जब से घर में आई है सत्यानाश कर दिया है। जब से वह आपके घर आई, तब से हमेशा बेचारी की हिम्मत आप गिराते हुए चले गए। उसका थोड़ा बहुत जो हौसला था, उसे आप गिराते हुए चले गए।

महाभारत में कर्ण और अर्जुन दोनों का जब मुकाबला हुआ तो कृष्ण भगवान ने शल्य को अपने साथ मिला लिया। उससे कहा कि तुम एक काम करते रहना, कर्ण की हिम्मत कम करते जाना। कर्ण जब लड़ने के लिए खड़ा हो तो कह देना कि अरे साहब! आप उनके सामने क्या है? कहा भगवान और अर्जुन और कहा आप सूत के बेटे, दासी के बेटे? भला आप क्या कर सकते है? देखिए अर्जुन सहित पांचों पाँडव संगठित है। वे मालिक है और आप नौकर है। आपका और उनका क्या मुकाबला? बेचारा कर्ण जब कभी आवेश में आता, तभी वह शल्य ऐसी फुलझड़ी छोड़ देता कि उसका खून ठंडा हो जाता। आपने भी हरेक का खून ठंडा किया है। आपने झूठ बोलने से भी ज्यादा जुर्म किया है। एक बार आप झूठ बोल सकते थे।

आपके झूठ में इतनी खराबी नहीं थी, जितनी कि आपने हर आदमी को जिसमें आपके बीबी बच्चे भी शामिल हो, आपने हरेक को नीचे गिराया। आपने किसी का उत्साह बढ़ाया, हिम्मत बढ़ाई? किसी की प्रशंसा की? नहीं, आपने जीभ से प्रशंसा नहीं की, हर वक्त निंदा की, इसकी निंदा की, उसकी निंदा की। आप निंदा ही करते रहे। मित्रो! हमारी जीभ लोगों का जी दुखाने वाली, टोचने वाली नहीं होनी चाहिए। टोचने वाली जीभ से जब भी हम बोलते है, कड़ुवे वचन बोलते है। क्या आप मीठे वचन कहकर वह काम नहीं करा सकते, जो आप कड़ुवे वचन बोलकर या गाली देकर कराना चाहते है, वह प्यार भरे शब्द, सहानुभूति भरे शब्द कहकर नहीं करा सकते? करा सकते है।

जिह्वा ही नहीं, हर इंद्रिय का सदुपयोग करें

मित्रो! ये जिह्वा का संकेत है, जो हम बार बार पानी पीने के नाम पर, पवित्रीकरण के नाम पर, आचमन करने के नाम पर आपको सिखाते है और कहते है कि जीभ को धोइए, जीभ को साफ कीजिए। जिह्वा को आप ठीक कर लें तो आपका मंत्र सफल हो जाएगा। तब राम नाम भी सफल हो सकता है, गायत्री मंत्र भी सफल हो सकता है और जो भी आप चाहें सफल हो सकता है।

यह आत्मसंशोधन की प्रक्रिया है। जीभ का तो मैंने आपको एक उदाहरण दिया है। इसके लंबे में कहा तक जाऊँ कि आपको सारी की सारी इंद्रियों का वर्णन करूं और उनके संशोधन की प्रक्रिया बताऊं कि आप अमुक इंद्रिय का संशोधन कीजिए। आंखों का संशोधन कीजिए। आंखों में जो आपके शैतान बैठा रहता है, जो छाया के रूप में प्रत्येक लड़की को आपको वेश्या दिखाता है। स्कूल पढ़ने कौन जाती है वैश्या ये कौन बैठी है वेश्या! सड़क पर कौन जाती है? गंगाजी पर कौन नहा रही है? सब वेश्या । अरे साहब! दुनिया में कोई सती साध्वी, बेटी,माँ,बहन कोई है? नहीं साहब! दुनिया में कोई बहन नहीं होती, कोई बेटी नहीं होती। जितनी भी रेलगाड़ियों में चल रही है, जितनी भी गंगाजी में नहाती है, जो स्कूल जा रही है, ये सब वेश्या है। नहीं बेटे, ये वेश्या कैसे हो सकती है। तेरी भी तो कन्या होगी? तेरी भी तो लड़की स्कूल जा रही होगी। वह भी फिर वेश्या है क्या? नहीं साहब! हमारी लड़की तो वेश्या नहीं है। बाकी सब वेश्या है। ये कैसे हो सकता है? बेटे, यह तेरे आँखों का राक्षस, आंखों का शैतान, आंखों का पशु और आंखों का पिशाच तेरे दिल दिमाग में छाया हुआ है। यही तुझे यह दृश्य दिखाता है। इसका संशोधन कर, फिर देख तुझे हर लड़की में, हर नारी में अपनी बेटी, अपनी बहन ओर अपनी माँ की छवि दिखाई देगी।

दृष्टि बदले, अपने आपे को संशोधित करें

बेटे, इन आंखों से देखने की जिस चीज की जरूरत है, वह माइक्रोस्कोप तेरे पास होना चाहिए। क्या देखना चाहता है? गुरुजी। सब कुछ देखना चाहता हूँ। बेटे, इन आँखों से नहीं देखा जा सकता । इसको देखने कि लिए माइक्रोस्कोप के बढ़िया वाले लेंस चाहिए। कौन से बढ़िया वाले लेंस “दिव्य ददामि ते चक्षुः” तुझे अपनी आँखों में दिव्यचक्षु को फिट करना पड़ेगा। फिर देख कि तुझे भगवान दिखाई पड़ता है कि नहीं पड़ता। “सियाराममय सब जग जानी” की अनुभूति होती है कि नहीं। फिर जर्रे जर्रे में भगवान, पत्ते पत्ते में भगवान तुझे दिखाई पड़ सकता है, अगर तेरी आँखों के लेंस सही कर दिए जाए तब। अगर लेंस यही रहे तो बेटे, फिर तुझे पाप के अलावा, शैतान के अलावा, हर जगह चालाकी, बेईमानी, हर जगह धूर्तता और दुष्टता के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ सकता।

मित्रो! अध्यात्म पर चलने के लिए आत्मसंशोधन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। पूजा उपासना के सारे कर्मकाँड, सारे के सारे क्रिया कृत्य आत्मसंशोधन की प्रक्रिया की ओर इशारा करते है। मैंने आपको जो समझना था, वह सूत्र बता दिया। हमारा अध्यात्म यही से शुरू होता है। इसलिए यह जप नहीं हो सकता, भजन नहीं हो सकता, कुछ नहीं हो सकता। केवल यही से अर्थात् आत्म संशोधन से हमारा अध्यात्म शुरू होता है। आत्मसंशोधन के बाद ही देवपूजन होता है। देवता बनकर ही देवता की पूजा की जाती है। आज की बात समाप्त।


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