जागरण गान (kavita)

October 2003

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भारती पुकारती, संस्कृति गुहारती। जाग! नौजवान जाग! राह पथ निहारती।

जाग, राष्ट्र को जगा, जागरण के गीत गा। देख तो सही उधर , सूर्य सुबह का उगा। 

किलकिला उठी किरण तिमिर को बुहारती। जाग! नौजवान जाग! राह पथ निहारती।

किंतु भारती निराश, क्योंकि सामने विनाश। और देश का तरुण, इन क्षणों भी है उदास। 

संस्कृति की व्यथा, तरुण को पुकारती। जाग! नौजवान जाग! राह पथ निहारती।

देश के जवान जाग! शौर्य, स्वाभिमान जाग। राष्ट्र, संस्कृति, समाज, भाग्य के विधान जाग। 

जागी तरुणाई ही, राष्ट्र को संवारती। जाग! नौजवान जाग! भारती पुकारती।

परिवर्तन काल है, हवा में उछाल है। जो चला प्रवाह संग, हो गया निहाल है। 

महाकाल की उमंग, प्रखरता निखारती। जाग! नौजवान जाग! भारती पुकारती।

-मंगल विजय ‘विजयवर्गीय’

*समाप्त*


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