अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान - वैराग्य से अस्मिता और समाधि की ओर

October 2003

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अन्तर्यात्रा का विज्ञान- महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक प्रयोगों का निष्कर्ष है। परम पूज्य गुरुदेव ने बार-बार अपने इस जीवन सत्य को दुहराया है कि अध्यात्म एक सम्पूर्ण विज्ञान है। हाँ यह अंतर्जगत का विज्ञान है, जबकि प्रचलित विज्ञान की अन्य शाखा-प्रशाखाएँ बाह्य जगत् की हैं। इस दृष्टि से अन्तर्यात्रा का विज्ञान सब तरह से अनूठा है। इसके वैज्ञानिकद्वय भी अनोखे हैं। क्योंकि जो अन्तर्यात्रा का अन्वेषण करते हैं, वे सामान्यतया रहस्यदर्शी कवि होते हैं- वैदिक ऋषियों की भाँति, कबीर-मीरा की भाँति। और जो जीवन की बाह्य यात्रा का पथ अन्वेषित करते हैं, वे वैज्ञानिक होते हैं- आइन्स्टीन की भाँति, वारनर हाइज़ेनबर्ग, स्टीफेन हाकिंग की भाँति। परन्तु महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि गुरुदेव मानव चेतना के अति दुर्लभ पुष्प हैं। वे सम्पूर्णतया वैज्ञानिक हैं, लेकिन उनकी यात्रा आन्तरिक है।

इसलिए उनके एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करनी होगी। दरअसल यह कठिन कार्य है। क्योंकि उनकी शब्दावली तर्क की, विवेचना की, विज्ञान की है, पर उनका संकेत परमात्मा की ओर है, महाभाव की ओर है, प्रभु प्रेम के अहोभाव की ओर है। अपनी शब्दावली में ये दोनों महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन एवं स्टीफेन हाकिंग की भाँति हैं, परन्तु उनकी प्रयोगशाला मानव की अन्तर्चेतना है, मानवीय अस्तित्त्व का रहस्यमय क्षेत्र है। उनके वैज्ञानिक ज्ञान में परम काव्य की सुगन्ध है। हालाँकि उनके काव्य में वैज्ञानिक प्रयोगों की निरन्तरता समायी है। इस अनूठे मेल को अन्तर्यात्रा के सभी पथिक अब पहचानने लगे हैं। यह योग कथा अब तो उनकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। इस योग कथा की पिछली कड़ी में सिद्ध वैराग्य की चर्चा की गयी थी। महर्षि के अनुसार यह सिद्ध वैराग्य निराकाँक्षा की अन्तिम अवस्था है। यह पुरुष के परम आत्मा के अन्तरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना है। वैराग्य की यह अति दुर्लभ अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि की ओर ले जाती है।

यह सम्प्रज्ञात समाधि क्या है? इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि कहते हैं-

वितर्कविचारानंदास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः॥1/17॥

शब्दार्थ- वितर्क विचारानन्दास्मितानुगमात्= वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता- इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (चित्तवृत्ति का समाधान), सम्प्रज्ञातः= सम्प्रज्ञात समाधि है।

अर्थात्- सम्प्रज्ञात समाधि वह समाधि है, जो वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता के भाव से संयुक्त होती है।

दरअसल यह वैराग्य से धुले हुए निर्मल चित्त की सहज परिणति है। इस स्थिति में मन पूरी तरह से सूक्ष्म और शुद्ध हो जाता है। यह इतना शुद्ध एवं सूक्ष्म हो जाता है कि उसकी कोई प्रवृत्ति नहीं रहती चिपकने की। हालाँकि यह समाधि का पहला चरण है। इसके अगले चरण में तो मन ही नहीं रहता। अ-मन की अवस्था है वह। लेकिन यह जो पहला चरण है वह भी पुलकन और आनन्द से ओत-प्रोत है। ज्यादातर साधक तो यहीं ठहर जाते हैं। उन्हें आगे बढ़ने की सुध ही नहीं रहती। इस पहले चरण में भी चार भाव दशाएँ हैं।

पहली भावदशा है वितर्क की। यह तर्क का एक खास रूप है। यूँ तर्क साधारण तौर पर तीन रूपों में प्रकट होता है। इनमें से पहली अवस्था है कुतर्क की। यह तर्क की निषेधात्मक स्थिति है। कुतर्क में जीने वालों की नजर हमेशा ही जिन्दगी के अन्धेरे पहलुओं पर होती है। उदाहरण के लिए गुलाब के पौधे में सुन्दर फूल होते हैं, लेकिन चुभने वाले काँटे भी होते हैं। कुतर्क वाला व्यक्ति काँटों की गिनती करेगा और अन्ततः यह नतीजा निकालेगा कि वास्तविक सच्चाई तो काँटे ही हैं, यह गुलाब तो निरा भ्रम है। फिर है तर्क- यानि की गोल-गोल चक्करों वाली भूल−भुलैया। तर्क में प्रवीण व्यक्ति कितना ही तर्क करे, पर पहुँचेगा कहीं नहीं। वह यूँ ही पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में भटकता हुआ ऊर्जा गंवाएगा। बिना ध्येय का विचार तर्क कहलाता है।

जबकि वितर्क की भूमि विधेयात्मक है। एक तरह से वितर्क ‘आर्ट ऑफ पॉजिटिव थिंकिंग‘ है। विधेयात्मक चिन्तन की कला है। यह सम्प्रज्ञात समाधि का पहला तत्त्व है। जो व्यक्ति आन्तरिक शान्ति पाना चाहता है, उसे वितर्क को अपनाना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति ज्यादा प्रकाशमय पक्ष की ओर देखता है। वह फूलों को महत्त्व देता है, काँटों को भूल जाता है। उसके लिए अपने आप ही शुभ और सुन्दर के द्वार खुलते हैं।

परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि जो व्यक्ति हमेशा पॉजिटिव सोचता है, तो समझो उसका अध्यात्म राज्य में प्रवेश निश्चित है। उसने समाधि के द्वार पर अपना पहला कदम रख दिया। उनका कहना था- विधेयात्मक सोच से विचारणा उदय होती है। विचारणा का अर्थ है-सुव्यवस्थित विचार। इसे विचारों की समग्रता भी कह सकते हैं। गुरुदेव का कहना था कि विचार और विचारशीलता में भारी फर्क है। विचार तो यूँ ही उठते-गिरते रहते हैं, बनते-बिगड़ते रहते हैं। जबकि विचारशीलता अपने अस्तित्त्व की आन्तरिक गुणवत्ता है। विचारशीलता का अर्थ है-सजग एवं जागरुक बने रहना। यह विचारशीलता सम्प्रज्ञात समाधि की दूसरी भावदशा है। यहाँ चिन्तन की नवीन कोपलें फूटती हैं। चेतना का अंधियारा समाप्त होता है।

महर्षि पतंजलि कहते हैं कि वितर्क यानि की सम्यक् तर्क ले जाता है- विचारणा की ओर और विचारणा ले जाती है आनन्द की ओर। इस आनन्द की अनुभूति में अपनी अन्तर्चेतना की पहली झलक मिलती है। सम्प्रज्ञात समाधि की यह ऐसी अवस्था है, जैसे बादल हट गए और हमने क्षण भर के लिए सही चाँद को देख लिया। फिर से बादल घिर आते हैं। इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि जैसे हम हिमालय यात्रा पर गए और वहाँ चहुँओर धुँध छायी हुई है। यकायक धुँध हटी और हिमालय के उच्चतम शिखर की शुभ्र धवल ज्योतिर्मय झलक मिल गयी। सच कहें तो यथार्थ में यह सम्प्रज्ञात समाधि का पहला स्वाद है।

आनन्द की यह भावदशा ले जाती है विशुद्ध अंतस् सत्ता की अवस्था में। यह विशुद्ध अंतस् सत्ता ही अस्मिता है। अंतस् सत्ता का अशुद्ध प्रकटीकरण अहंकार के रूप में होता है। अहंकार में तुलना होती है। यह किसी से ज्यादा होने का सुख हो उठता है। किसी का विरोध करने में, उससे जीवन में इसे बड़ा आनन्द आता है। अहंकार जीवन का नकारात्मक दृष्टिकोण है। जबकि अस्मिता विधेयात्मक दृष्टिकोण की अनुभूति है। इस अनुभूति में अपने स्वरूप की झलक मिलती है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अस्मिता मैं का सम्यक् बोध है, जबकि अहंकार मैं का गलत बोध है। ध्यान की प्रगाढ़ता में अस्मिता की बड़ी सम्मोहक झलक मिलती है। ऐसा लगता है, जैसा सागर के बीच बूँद- जो अपने होने का अहसास तो कर पाती है, परन्तु अलगाव की अनुभूति नहीं कर पाती।

इस तरह सम्प्रज्ञात समाधि में सम्यक् तर्क, सम्यक् विचारणा, आनन्द की अवस्था और ‘हूँ’ पन की या अस्मिता का अनुभव समाया है। इस समाधि की भावदशा में चेतना अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। परन्तु यहाँ अभी कर्मों के संस्कारों के बीज बने रहते हैं। इन्हें निर्बीज करने के लिए समाधि के अगले चरण में प्रवेश आवश्यक है। इसकी चर्चा और इसका चिन्तन महर्षि के अगले सूत्र की विषय वस्तु है। जो अखण्ड ज्योति के अगले अंक में प्रकट होगा।


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