स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर (kahani)

October 2003

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पाँच तत्वों की मंडली एक सुरम्य पर्वत पर पहुँची। चर्चा छिड़ी तो अपने अपने बड़प्पन का प्रसंग उभर आया।

पृथ्वी बोली-”सारी दुनिया का बोझ मैं उठाती हूँ।”

जल ने कहा-”मेरे बिना जीवन ही नहीं।”

पवन बोला-”दीखता नहीं हूँ, तो क्या। मेरे बिना घुटन ही सबका गला न घोंट देगी?”

अग्नि ने कहा-”गरमी रोशनी के बिना इस लोक में शीत निस्तब्धता के अतिरिक्त और क्या बचेगा?”

चारों का कथन पूरा हो गया, फिर भी आकाश बोला नहीं। बार बार पूछने पर उसने एक शब्द ही कहा, “आप सबके मिलने से ही यह संसार गतिशील है। न तो किसी के अकेले चलाने से यह चलेगा और न किसी अकेले के रूठ जाने से, सब लोग मिलकर रहेंगे तो ही खुशहाली रहेगी।”

युधिष्ठिर का अंतकाल आया। पुण्य पाप का लेखा जोखा लिया गया। एक बार उनने अश्वत्थामा के प्रसंग में अर्द्ध झूठ बोला था, इसके लिए उन्हें एक दिन नरक में रहना था और सौ वर्ष स्वर्ग में।

पूछा गया, आप पहले स्वर्ग भुगतेंगे या नरक! युधिष्ठिर ने पहले एक दिन नरक में रहना उचित समझा, सो वे वहीं चल दिए।

नरक में सभी दुःखी थे। युधिष्ठिर के आगमन से उस जलते क्षेत्र में शीतलता की लहर आई। यमदूतों के व्यवहार बदल गए। वहाँ के निवासियों ने संतोष की साँस ली। पुण्यात्मा के आगमन की सभी ने खुशी मनाई।

दूसरे दिन युधिष्ठिर जब विदा होने लगे तो नरक निवासी रोने लगे। कहने लगे-आप यहीं ठहरे रहते तो हम लोगों का कितना उपकार होता।

युधिष्ठिर गंभीर हो गए। सोचने लगे, कोई ऐसा उपाय होता, जिससे मुझे स्वर्ग न जाना पड़ता, इन दुखियारों के बीच ही सदा सर्वदा यहीं बना रहता। उपाय चित्रगुप्त से पूछा। उन्होंने कहा-”यदि युधिष्ठिर अपना समस्त पुण्य नरक निवासियों को दान दे दें और वहाँ के निवासियों का पाप अपने ऊपर ओढ़ लें तो ऐसा हो सकता है।”

युधिष्ठिर तैयार हो गए। उनने अपना सारा पुण्य नरक वासियों को दे दिया। वे सभी स्वर्ग चले गए। नरक वालों के पाप अपने ऊपर लेकर वे अकेले ही नरक में रहने लगे। अपने सद्व्यवहार से उन्होंने यमदूतों को अपना परम मित्र बना लिया। सभी लोग हिल−मिलकर रहने लगे। कुछ दिनों में नरक लोक ही सद्भावना, सहकारिता और स्नेह सौजन्य का घर बन गया तथा वहाँ स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं।


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