अपनों से अपनी बात-9 - जीवन जीने की कला का विधिवत शिक्षण अब होगा प्रारंभ

October 2003

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जीवन व्यवस्थित ढंग से जीना भी एक कला है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधा है, जिसे हर युवा जिज्ञासु मानव को जानना चाहिए। दुर्भाग्य का विषय है कि आज विभिन्न विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों एवं विद्यालयों में बाकी तो सब पढ़ाया जा रहा है, पर जीवन जीने की कला, आर्ट आफ लिविंग का अर्थ है- हर श्वास में अध्यात्म को जीना। श्री अरविंद कहते थे। होल लाइफ इज योगा।”

(संपूर्ण जीवन योग है) परमपूज्य गुरुदेव ने कहा, होज लाइफ इज स्प्रिचुएल्टी (संपूर्ण जीवन ही अध्यात्म है) दोनों ने एक ही तथ्य को भिन्न भिन्न रूपों में कहा। आर्ट आफ लिविंग को आज ए. ओ. एल. संक्षिप्त नाम देकर श्वसन से जुड़ी प्राणायाम की क्रिया के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। नाक से हवा खींच या छोड़कर कोई जीवनकला में माहिर नहीं हो सकता। इससे शारीरिक स्वास्थ्यपरक यत्किंचित् लाभ अवश्य होगा, पर जीवनकला से मिलने वाले अन्य लाभ नहीं मिलेंगे, क्योंकि उसे उस व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा ही नहीं गया।

वस्तुतः भारतीय अध्यात्म अपने शुद्ध परिष्कृत रूप में जीवन जीने की कला ही है। इसलिए अपनी संस्कृति ही जीवन प्रबंधन, जीवनकला की मूल धुरी बन सकती है, पाश्चात्य सभ्यता नहीं। जीवन जीने की कलारूपी विधा में वे सभी सूत्र समाए पड़े है, जो मनुष्य को महान बनाते है। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में आगामी वर्ष 2004-2005 के शैक्षणिक सत्र से जीवन जीने की कला को विधिवत पाठ्यक्रम में समाहित किया जा रहा है। इसमें जीवन की विभिन्न समस्याएं , जीवनशैली से जुड़े घटकों, व्यवहारकुशलता , जप साधना से लेकर आत्मप्रबंधन के सूत्र सिखाए जाएंगे। निश्चित ही इस विद्या कि प्रशिक्षण से छात्रों में आज की शिक्षणपद्धति में पाई जाने वाली एक बहुत बड़ी कमी दूर होगी, शिक्षा सर्वांगपूर्ण बनेगी।

जीवन जीने की कला के पाठ्यक्रम को चार भागों में बाटा गया है। ये चार सेमेर्स्टस में बड़ी कुशलता से गूंथ दिए जाएंगे। प्रथम सेमेस्टर में रचनात्मक जीवन की कला सिखाई जाएगी। दूसरा सेमेस्टर जीवन की विकृतियाँ निदान व समाधान पर केंद्रित होगा। तीसरा सेमेस्टर आध्यात्मिक जीवन की कला का शिक्षण देगा तथा चौथा सेमेस्टर आध्यात्मिक शिक्षण की कला को मूल मानकर चलेगा। चार सेमेस्टर वाले सभी डिग्री/परास्नातक

(पी.जी.) कोर्सेस में इन चार सेमेर्स्टस के प्रशिक्षणों को इस तरह समाहित कर दिया जाएगा कि देवसंस्कृति पर आधारित यह अनिवार्य पाठ्यक्रम योग, मनोविज्ञान ,भारतीय संस्कृति, समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन सहित स्वावलंबन एवं अन्य भविष्य में खुलने वाले संकायों के साथ अनिवार्य रूप में जुड़ जाए। योग का छात्र भी इस जीवन विद्या में प्रवीण होकर निकले एवं आई. टी. या बी. टी. या होलिस्टिक मेडिसिन का छात्र भी। फिर धीरे धीरे इसकी वर्कशॉप्स का आयोजन विभिन्न विश्वविद्यालयों में भी किया जाएगा, ताकि यह हमारी शिक्षण प्रणाली का एक अंगं बन सके।

इस जीवन जीने की कला के पाठ्यक्रम के प्रथम सेमेस्टर में रचनात्मक जीवन की कला को मूल आधार बनाया गया है। इसमें सैद्धांतिक व प्रायोगिक दोनों ही शिक्षण है। थ्योरी की दृष्टि से मानव जीवन का परिचय ,अनंत श्रेष्ठतम संभावनाएं , लक्ष्य निर्धारण , अपने व्यक्तित्व की समझ आदि के बारे में सामान्य परिचय दिया जाएगा। आज मानव की जीवनशैली विकृत हो गई है। शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल के साथ लाइफ स्टाइल (जीवनशैली, खान पान, रहन सहन , वेशभूषा बोलचाल) को कैसे ठीक रखा जाए। संयम सदाचार का जीवन में महत्व क्या है।? परिवेश परिस्थिति के अनुसार जीवन का समायोजन कैसे हो, यह शिक्षण भी अनिवार्य है। इसी के अभाव में कुछ गिने चुने छात्र क्रूरता पर उतर आते हैं, रेगिंग करते हैं, कुछ भुक्तभोगी प्रवीण बुद्धिमान किंतु जीवनशैली से अपरिचित छात्र उनके शिकार होते हैं।

कल्पनाशक्ति, इच्छा संकल्पशक्ति, भावना, बुद्धि, स्मृति, रचनात्मकता, विधेयात्मक चिंतन की कला (पी.एम.ए. पॉजिटिव मेटल एटीच्यूड) भी इसी प्रथम छह माह के पाठ्यक्रम में आते है। श्रेष्ठ विचारो व आदर्शों का महत्व, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, आत्म मूल्यांकन, सफलता के सही मायने, व्यवहारकुशलता व घर परिवार तथा सामाजिक परिस्थितियों में उसका समायोजन इसी विधा में आता है। समय प्रबंधन (टाइम मैनेजमेंट), संतुलित एवं आकर्षक व्यक्तित्व का निर्माण, प्रभावी आत्म प्रस्तुतिकरण एवं नेतृत्व क्षमता का विकास इसी सेमेस्टर में आते हैं। क्रियात्मक प्रायोगिक रूप में प्रज्ञायोग, शिथिलीकरण प्राणाकर्षण प्राणायाम डायरी लेखन, सेल्फ विजुअलाइलेशन, योजनाबद्ध कार्यपद्धति का निर्धारण, आत्मबोध तत्वबोध, 15 मिनट का सार्थक गायत्री जप, ज्योति अवतरण की ध्यान धारणा तथा स्वाध्याय को लिया गया है।

दूसरा सेमेस्टर जीवन की विकृतियों के निदान एवं समाधान पर केंद्रित रखा गया है। इसमें थ्योरी पक्ष में मानव जीवन में सफलताओं का अभाव, संभावनाएं साकार न होने की स्थिति, कर्मफल का विधान , नैतिक आस्था में होती कमी, इससे घटती कार्यक्षमता, परिवार, कार्यालय एवं सामाजिक परिस्थितियों में असमायोजन जैसे पक्ष लिए गए है। अव्यवस्थित उच्छृंखल जीवनशैली, अस्वच्छता, दिशाहीन जीवन, दुर्व्यसन, असंयम, आलस्य व प्रमाद से होने वाली हानियाँ इनका निदान व समाधान भी इसी में लिया गया है। नकारात्मक चिंतन, तनाव, निराशा, कुंठा, अवसाद, उद्विग्नता, असफलता का भय आत्ममुग्धता दिवास्वप्न, आत्महीनता,अपराध भाव,निंदा, परदोषारोपण, ईर्ष्या द्वेष जैसे दुर्गुणों के निदान व समाधान इसी में आते है। दंभ, उग्रभाव, हिंसक स्वभाव ,लालच, अतिमहत्वाकांक्षा,अपराधी मनोवृत्ति,विखंडित व्यक्तित्व के निदान समाधान पक्ष इसी में है।

प्रायोगिक रूप में प्रथम सेमेस्टर की सभी विधियों के साथ लोम विलोम प्राणायाम,दिव्य अनुदान की ध्यान धारणा, प्रार्थना, प्रायश्चित विधान, मृदु चाँद्रायण, निष्कासन तप, निष्काम सेवा के विभिन्न क्रियात्मक पहलुओं का शिक्षण होगा।

तीसरे सेमेस्टर की धुरी है-आध्यात्मिक जीवन। इसमें मनुष्य में निहित आध्यात्मिक संभावनाएं, अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन), अतींद्रिय क्षमताएं, आध्यात्मिक जीवनदृष्टि के जागरण का विज्ञान तप एवं योग सिखाया जाएगा। गुरु की आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में भूमिका, गुरु शिष्य संबंध, आध्यात्मिक साधना में सहायक तत्व,आने वाले अवरोध, पुनर्जन्म एवं मोक्ष, आध्यात्मिक जीवनशैली क्या है, यह बताया जाएगा। स्थूल, सूक्ष्म व कारणशरीर का आध्यात्मिक परिचय,विभूतियां, इनके जागरण की विधि,कर्मयोग ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं इनके लिए आराधना, साधना, उपासना का शिक्षण भी इसी में आता है। श्रद्धा प्रज्ञा निष्ठा का तत्वदर्शन भी इसी में है। पंचकोशों का आध्यात्मिक परिचय, इनमें निहित दिव्य संभावनाएं, इनके जागरण की विधियाँ, षटचक्रों एवं कुंडलिनी का परिचय, जागरण का विज्ञान तथा आध्यात्मिक जीवन के लक्षण एवं मापन इसमें सिखाए जाएंगे।

क्रियात्मक पक्ष में प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर की विधियों के साथ साथ साधक दैनंदिनी का नित्य पालन, साप्ताहिक उपवास, सोऽहम्, प्राणायाम, सविता ध्यान, आत्मदर्शन की साधना एवं नादयोग इसमें है।

चौथा सेमेस्टर आध्यात्मिक शिक्षण की कला को केंद्र में रखकर बनाया गया है। इसमें आध्यात्मिक आचार्य के अनिवार्य गुण, उच्च ध्येय, ईश्वरनिष्ठ जीवन, तपश्चर्या, सादगी विनम्रता परिष्कृत एवं प्रभावशाली व्यक्तियों के विषय में शिक्षण होगा। विद्यार्थियों में छिपी योग्यताएं, विशेषताएं, संभावनाएं, दुर्बलताएं, द्वंद्व दुविधा आदि द्वारा उनके मन एवं व्यवहार की समझ समुचित सहानुभूतिपूर्ण मार्गदर्शन का शिक्षण इस सेमेस्टर में होगा। साथ ही भावपूर्ण संप्रेषण,सहृदयता,संवेदनशीलता का स्थान, प्रभावी आध्यात्मिक शिक्षण की विधियाँ, सूक्ष्म वैचारिक संप्रेषण,दीक्षा तत्व आदि सिखाए जाएंगे। चिर, चिंतन एवं व्यवहार की प्रामाणिकता, गुण कर्म, स्वभाव की श्रेष्ठता, लोकसेवा के प्रति प्रतिबद्धता, ईश्वरीय कार्यों के प्रति समर्पण,निरहंकारिता जैसे स्वर्णिम सूत्र इसमें सिखाए जाएंगे। भगवान बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, महर्षि रमण एवं आचार्य श्रीराम शर्मा जी की शिक्षण विधियाँ भी बताई जाएगी। क्रियात्मक रूप में पहले तीन सेमेस्टर की सभी कार्यविधियों को पुनः कराकर निष्णात बनाया जाएगा।

जैसे अनगढ़ स्वर्ण को अग्नि में प्रविष्ट कराकर शुद्ध व फिर भस्म रूप में औषधीय प्रयोजन में दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार जीवन जीने की कलारूपी अग्नि विद्या द्वारा तपाकर भविष्य के भारत के नागरिकों को प्रबुद्ध, संवेदनशील एवं जीवन प्रबंधन में कुशल बनाए जाने का यह शिक्षण होगा। कहना न होगा कि ये सभी पक्ष जीवन में कितना महत्व रखते है। आज नहीं तो कल, सभी विश्वविद्यालयों तकनीकी भी, गैर तकनीकी भी, को अपना पाठ्यक्रम की धुरी इसी जीवन कला को बनाना होगा।


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