संतोष से मर रहा हूँ (kahani)

October 2003

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अमीन पाशा अफ्रीका में औषधि शोध संस्थान की ओर से काम करने गए थे। जड़ी बूटियों की खोज में घूम रहे थे।

एक गाँव में पहुंचे तो देखा कि वहां शीतला का भयानक प्रकोप है। गुलामों की उस बस्ती में लोग मर रहे है।” यहां से जल्दी चलिए। वह छूत का रोग है।” सरकारी ने कहा।

“तुम जाओ। मुझे यहां खुदा की पुकार सुनाई पड़ रही है।” पाशा ने यात्रा रोक दी और उस गाँव में रोगियों की सेवा में जुट गए।

अनेक रोगियों को पाशा की सेवा ने जीवन दिया। अंतं में रोग उन्हें लगा। चेचक निकली। मरते मरते वे प्रसन्न थे। कह रहे थे,” खुदा की मेहरबानी है, जो उसने इस नाचीज को गरीब निराधार रोगियों की सेवा करने का अवसर दिया। मैं बड़े संतोष से मर रहा हूँ।


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