युगगीता-48 - संकल्पों से मुक्ति मिले तो योग सधे

October 2003

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(आत्मसंयम योग नामक श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय की युगानुकूल व्याख्या-प्रथम किस्त)

जीवन जीने की शिक्षण संदर्शिका

श्री गीताजी के प्रथम छह अध्याय कर्मयोग प्रधान है, यह तथ्य सभी जानते है। फिर भी योगेश्वर स्थान स्थान पर ज्ञान व भक्ति की महिमा बताते चलते हैं। योगमयी का गुंथन पारस्परिक समन्वयात्मक प्रतिपादन जिस सुंदर ढंग से हुआ है, उसमें ही इस काव्य की विशेषता है। हर व्यक्ति के लिए इन श्लोकों व उनकी व्याख्या के माध्यम से जीवन जीने का विधिवत मार्गदर्शन है। अर्जुन युद्धक्षेत्र में जब श्रीकृष्ण का शिष्यत्व स्वीकार कर लेता है।

(शिष्यस्तेडह शाधि माँ त्वाँ प्रपन्नम-2/7) तब श्रीकृष्ण उसे उपदेश देते है। ‘ततो युद्धाय युज्यस्व’ कहकर वे उसे बार बार कर्मयोग में तत्पर होने को कहते है। तो क्या युद्ध ही एकमात्र कर्म है? भगवान अर्जुन के माध्यम से कर्मों का जीवन में महत्व, कर्म अकर्म विकर्म की व्याख्या, दिव्यकर्मियों के लक्षण, युगधर्म के अनुरूप कर्म यज्ञरूपी सत्कर्म तथा माहात्म्यपरक विस्तृत विवेचन हम सभी जनसामान्य स्तर के जिज्ञासु साधकों के लिए प्रस्तुत करते है। पहले से पांचवें अध्याय की यात्रा में उन्होंने केवल स्थितप्रज्ञ की विस्तार से व्याख्या की है, सृष्टि की उत्पत्ति, यज्ञ एवं यज्ञीय जीवन का महत्व तथा ज्ञान से मिलने वाली परम शाँति का बोध भी कराया है। अब कर्मयोग की पराकाष्ठा पर योगेश्वर’ आत्म संयमयोग‘ नामक ब्रह्मविद्या के योग शास्त्र की व्याख्या पर आते है। बिना संयम सधे न अर्जुन साधक बन पाएगा, दिव्यकर्मी बन सकेगा, न हम। हम सभी को आत्मसंयम का मर्म समझाने हेतु युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के बीच खड़े श्रीकृष्ण बड़ा सरस प्रतिपादन प्रस्तुत करते है।

संयम मन की महिमा का योग

इस छठे अध्याय में कही भी श्रीकृष्ण ने युद्ध की चर्चा नहीं की है, पर युद्ध तो वही कर सकता है, जो एकाग्रचित्त हो, संयत मन वाला हो, बलशाली हो तथा समबुद्धि से सब कुछ देखता हो। जीवन संग्राम भी ऐसे ही व्यक्ति जीतते है। जीवन जीने की कला की धुरी है

आत्मसंयम योग। जीवन को हर पल हर श्वास में कैसे जिया जाए, इसकी व्याख्या है इस अध्याय में। अर्जुन इस अध्याय में श्रीकृष्ण को दो बार टोकता है, अपनी जिज्ञासाएं सामने रखता है। एक प्रकार से वे हम सबकी जिज्ञासाएं भी है। उसे सम्यक् समाधान मिलता है -जीवन जीने की दृष्टि मिलती है एवं “ यो माँ पर्श्यात सर्वत्र......सचमेन प्रणश्यति”(6/30) जैसे सुविख्यात श्लोक रूपी आश्वासन के साथ उसे तपस्वी एवं योगाभ्यासी में अंतरं जानने को मिलता है। योगीजनों में, दिव्यकर्मियों में भी श्रीकृष्ण को भक्तिमार्ग पर चलने वाले ज्यादा प्रिय है, यह भी अंतिम श्लोक में उद्घाटन होता है।

‘आत्मसंयम योग‘ नामक इस अध्याय में कर्मयोग के विषय व योगारुढ़ पुरुष के लक्षण बताए गए है। साथ ही आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा एवं भगवत्प्राप्त पुरुष की विशिष्टताएं भी बताई गई है। ध्यानयोग की विस्तार से व्याख्या है। कैसे ध्यान किया जाए? कैसे विचारो का सुनियोजन हो, मन का निग्रह कैसे सधे? यह चर्चा इस अध्याय में बड़े स्पष्ट रूप में प्रस्तुत की गई है। अंत में योगभ्रष्ट पुरुष की गति क्या होती है, यह समझाकर वे ध्यान योग की महिमा बताकर समापन कर देते है। संक्षेप में यह है इस सैंतालीस श्लोक वाले एक महत्वपूर्ण अध्याय की सिनाप्सिस।

इस अध्याय में हम प्रवेश कर रहे है तो पहले इसके मर्म को समझ ले। यहाँ विचार जल्दबाजी में, युद्ध की मनोभूमि में व्यक्त नहीं किए गए है, अपितु बड़ी शांति के साथ, धीरे धीरे बुद्धि संस्थान में स्थापित किए गए है। इस अध्याय को समझ लेने वाले को फिर एक दिव्यकर्मी, श्रेष्ठ योगी बनने में कोई संशय नहीं रहता। कई भ्रांतियां भी ध्यान के विषय में इस अध्याय के द्वारा निर्मूल की गई है। अपने प्रिय शिष्य के प्रति श्रीकृष्ण का भाव इस अध्याय में पूर्व में डाट लगाने वाले गुरु का नहीं है, अपितु बड़े ही प्रेमपूर्वक शाँतिभाव से उन्होंने अर्जुन को समझाने का प्रयास किया है। जब पहले व दूसरे अध्याय में उसके मन का विषाद निकला था, तब श्रीकृष्ण को डाट लगानी पड़ी थी, वे झल्ला पड़े थे, पर यहां वे पार्थ की ही नहीं हम सबकी मानसिक दुर्बलताओं को लक्ष्य कर बड़े विस्तार से (मात्र सूत्र रूप में नहीं) तथा स्नेहभाव से उसका समाधान खोज निकालते है। वे बताते है कि समस्त भ्रांतियों का, मन की चंचलताओं का समाधान ध्यान है। यदि ध्यानयोग भली भांति समझ लिया, आहार विहार के नियमों का पालन किया, भगवद्भक्ति का आश्रय लिया, तो लोक परलोक दोनों ही ठीक बने रहेंगे। ध्यान की धुरी है अपने आप पर अपना ही संयम।

एक सच्चे योगी की परिभाषा

इस अध्याय का शुभारंभ एक सच्चे योगी, आध्यात्मिक जीवन जीने वाले दिव्यकर्मी की परिभाषा से होता है। त्रिपुडंधारी, खड़ाऊ पहनकर, भ्रांति के ढोंग रचकर, भगवे कपड़े पहनने वाला संन्यासी नहीं बन जाता, यह तथ्य समझाते हुए श्रीकृष्ण संन्यासी योगी की परिभाषा अपने प्रिय शिष्य को बताते है। पहला श्लोक (6/1) इस प्रकार है-

अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।

अब इसका शब्दार्थ देखें

श्री भगवान ने कहा (श्रीभगवानुवाच) जो (यः) कर्म के फल का (कर्मफलं) आश्रय न करके (अनाश्रितः) कर्तव्य कर्म (कार्य कर्म) करते हैं (करोति) वह (सः) संन्यासी (संन्यासी चं) और योगी भी है (योगी च ); वैदिक कर्मत्यागी नहीं (न निरग्निः) , शारीरिक कर्मत्यागी भी नहीं (न च अक्रियः),

भावार्थ इसका हुआ-

“जो कर्म के फल की अपेक्षा न रखकर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्म करते है वही संन्यासी है और वही योगी है, किंतु जो यज्ञ होम आदि अग्नि में आहुति देने के कार्यों का त्याग करते है और जो लौकिक दृष्टि से परोपकार के कार्य भी नहीं करते, वह संन्यासी मानने योग्य नहीं है।”

श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे है कि जो कर्मफल त्यागी होकर शास्त्रविहित कर्म करते है वही संन्यासी है, किंतु जिनने वैदिक होम यागादि कर्म छोड़ दिए है। साथ ही लौकिक परोपकार के कार्य को नहीं करना चाहते, वे संन्यासी नहीं कहलाते। कर्मफल त्याग ही संन्यासी या दिव्यकर्मी योगी के लिए प्रथम साधन है। इस प्राथमिक शर्त के पूरा होने पर ही किसी को संन्यासी कहा जा सकता है। सब कार्य छोड़कर दंड कमंडल धारण करने मात्र से ही कोई संन्यासी नहीं हो जाता।

पलायनवाद के विरुद्ध

अर्जुन के मन में दुविधा है। वह सोचता है कि कभी श्रीकृष्ण कहते है- कर्मयोग से एवं कभी कहते है कि संन्यास से भी जीवनलक्ष्य की सिद्धि प्राप्त होती है। फिर कर्मयोग में लगने से क्या लाभ है? युद्ध करने से क्या फायदा? इससे तो अच्छा संन्यास ही ले लिया जाए। अर्जुन भिक्षाजीवी होना पसंद करता है, पर युद्ध को घोर व न करने योग्य कर्म कहता है। वह पलायनवादी बनना चाह रहा है। यह तो संन्यास नहीं है। सही अर्थों में संन्यास तब आता है, जब कर्मयोग करते करते मनुष्य अकर्म की स्थिति में चला जाए, ज्ञानयोग में प्रतिष्ठित हो जाए। कुछ ऐसे सिद्ध होते है कि पूर्वजन्मों के अपने प्रारब्ध अर्जित सिद्धियों के कारण कम उम्र में ही संन्यास में प्रवृत्त हो जाते है, यथा आद्य शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद। ऐसे लोग काम पूरा होते ही शरीर छोड़ देते है। सही अर्थों में यही संन्यासी है।

आज तो हमारा देश बाबाओं का अखाड़ा बना हुआ है। पूज्यवर ने 1970 में टैऊक्टस की शृंखला लिखी थी, उनमें एक थी” ब्राह्मण जागे साधु चेते।” इसमें उन्होंने क्रांतिकारी चिंतन प्रस्तुत किया था। ऐसी लगभग सौ किताबें थी। इस पुस्तिका में उन्होंने बाबाजी लोगों की संख्या छप्पन लाख लिखी थी व लिखा था कि यही लोग विद्याविस्तार, ग्रामोत्थान, स्वावलंबन, राष्ट्रधर्म में प्रवृत्त हो जाएं तो भारत को पुनः सोने की चिड़ियां बनाया जा सकता है। एक विकल्प के रूप में उन्होंने वानप्रस्थियों परिव्राजकों का तंत्र खड़ा किया। 1970 में जो संख्या संन्यास वेशधारी लोगों की थी। अब वह निश्चित ही 1 अरब 1/2 करोड़ के इस देश में डेढ़ करोड़ पार कर चुकी होगी। होगी क्यों नहीं? अकर्मण्यता के साथ सवेरे शाम का अन्नक्षेत्र में भोजन, कौन नहीं स्वीकार करेगा? सब ऐसे है, जो पलायनवादी होकर इस राह पर चले है। धर्मतंत्र के नाम पर यह कितना बड़ा छलावा है।

परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने कहा कि आज कलियुग की पराकाष्ठा की परिस्थितियों में संन्यास नितांत अव्यावहारिक है। सौ वर्ष पूर्व हो सकता है, वह प्रासंगिक रहा होगा। आज नवयुग का संन्यास परिव्राजक धर्म है। आज का अध्यात्म विद्याविस्तार की अपेक्षा इस समुदाय से रखता है। ब्राह्मणत्व के जन जन तक विस्तार की अपेक्षा रखता है। ब्राह्मण के दो धन पूज्यवर ने बताए है। तप और विद्या। तपस्वी बनें, संयमी बने, विद्या का विस्तार करे, योग महाविद्या को जन जन तक पहुंचाकर जीवन जीने की कला सिखाए।

निरग्नि का मर्म

यहाँ श्लोक में उद्धृत कुछ शब्द स्पष्ट कर दे। ‘निरग्निः’ शब्द का अर्थ है अग्नि का परित्याग करने वाला। चूंकि कर्म का प्रतीक है अग्नि, संन्यासी अग्नि से जुड़े कर्मकांड नहीं करते। वे यज्ञ नहीं करते एवं अग्नि का पका नहीं खाते। यज्ञ कर्म की अविरल धारा का प्रतीक है। पहले जो गृहस्थ होते थे उनके घर गार्हपत्याग्नि होती थी। उसे साथ लेकर चलते थे। हवन नित्य करते थे। देवताओं और मनुष्य के बीच की कड़ी यज्ञ है। सृष्टि संचालन के एक घटक के प्रतीक के रूप में है यह विद्या सन्न्यस्थ होते ही व्यक्ति ब्राह्मी स्थिति में पहुंच जाता है। परमात्मसत्ता में अवस्थिति के लिए अग्नि की जरूरत नहीं है। इसी कारण विधिवत संन्यास में दीक्षित अग्नि से जुड़े वैदिक कर्मकांड संपन्न नहीं करते। “च अक्रियः” शब्द के माध्यम से श्रीकृष्ण इसी श्लोक में कहते हैं कि केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला भी योगी नहीं है। कर्मयोग मूल धुरी है। अकर्म की स्थिति में तो साधक बहुत आगे चलकर पहुंचता है, पर संन्यासी सच्चा है तो वह अकर्म की स्थिति में जा पहुंचता है। श्रीकृष्ण कहते है कि जो युगधर्म का पालन करता है, घर घर जाकर ज्ञान बांटता है, कर्म के फल की आकांक्षा न रखकर सतत कर्म क्रियाशील बन परोपकार करता रहता है, वही सच्चा योगी है। ऐसे योगी ही सच्चे संन्यासी कहलाने योग्य है। मात्र कर्मकांडों तक सीमित रह अग्नि व कर्म छोड़ देने वाला किसी भी स्थिति में संन्यासी नहीं कहा जाना चाहिए। न यह मानना चाहिए कि ऐसा संन्यास लेने से हमारा कल्याण हो जाएगा। कल्याण तो दूर आत्मा का पतन और होगा।

अनासक्त ही संन्यासी

योगेश्वर श्रीकृष्ण की स्पष्ट मान्यता है कि कर्म ज्ञान का सूक्ष्मतम रूप है। कर्म से ऊपर उठकर ज्ञान में स्वयं को स्थापित कर देना होता है। अर्जुन को वह समझाते है कि युद्ध छोड़कर (कर्म छोड़कर) चले गए, गेरुए वस्त्र पहन लिए, अग्नि से परहेज कर लिया तो भी संन्यासी नहीं कहलाओगे,। संन्यासी की परिभाषा है- वह दिव्यकर्मी, जिसकी कर्मफल में आसक्ति नहीं है। सतत वह औरों के लिए परमार्थरत हो कर्म करता रहता है। अर्जुन की अज्ञान की जड़ पर भगवान बार बार कुठाराघात करते है। उसे समझाते है कि संन्यास ले लेने मात्र से, उसे युद्ध से, रक्तपात से, कौरवों से, निंदा से, अपयश से, द्रौपदी के तानों से, विभिन्न प्रकार से होने वाली लोकभर्त्सना से मुक्ति नहीं मिलेगी। क्यों? क्योंकि भगवान का कर्मफल का अकाट्य सिद्धाँत सब जगह लागू होता है। जब तक अर्जुन श्रीकृष्ण के समक्ष है, वे बार बार उसे आसक्ति छोड़कर कर्म करने रहने का शिक्षण देते है। यह बता रहे है कि असली संन्यास आँतरिक है, बाह्य नहीं। जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पों का त्याग नहीं किया, वह योगी नहीं हो सकता। कर्म तो किसी भी स्थिति में करना ही होगा। कर्म ही मुक्ति के, ब्रह्मनिर्वाण के कारण बनेंगे। आँतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ साथ कर्म करते रहने से वासनात्मक मन और निम्न प्रकृति पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है।

इसी प्रतिपादन को आगे बढ़ाते हुए भगवान अगले श्लोक में कहते है-

यं सन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाँडव। न हासन्न्यस्तसडकल्पो योगी भवति कश्चन। 6/2

इसका शब्दार्थ पहले देखते है-

“हे अर्जुन! (पांडव) जिसे (यं) (पंडित लोग) संन्यास शब्द से कहते हैं (संन्यास इति प्राहुः) उसी को (तं) (तू) योग रूप से जानना (योगं विद्धि) क्योंकि (हि) फल का संकल्प न छोड़ने से (असन्नयस्त संकल्पः) कोई भी (कश्चन) योगी (योगी) नहीं बन जाता (न भवति)।” कितना स्पष्ट अर्थ है-

भावार्थ हुआ-”हे अर्जुन! जिसको संन्यास कहते है उसी को तू योग रूप में जान, क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने संकल्प का त्याग न किया हो, योगी नहीं हो सकता।” 6/2

संकल्पों का त्याग

संन्यास को योग मानकर संकल्पों का त्याग करने वाला ही सच्चा कर्मयोगी दिव्यकर्मी बनता है, यह श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत है। संन्यास और कर्मयोग दोनों एक−दूसरे का पोषण करते है। जब मनुष्य अपना अहं त्याग देता है तो वह संन्यास के माध्यम से एक श्रेष्ठ योगी बनने की दिशा में आगे बढ़ता है। जब वह निस्वार्थ भाव से किए गए कर्मों को संपन्न करता है, कर्मफल की आकांक्षा ही त्याग देता है तो वह सच्चा कर्मयोगी बन जाता है। आकाँक्षाओं इच्छाओं संकल्पों को त्याग देने वाला अपने अहं के ढांचे को गिराकर सच्चा योगी बनने की दिशा में आगे बढ़ता है।

संकल्प और ‘संकल्पशक्ति अलग अलग शब्द है। संकल्पशक्ति अर्थात् आत्मबल मनोबल इच्छाशक्ति। यहाँ संकल्प से योगेश्वर का आशय है, सकाम कर्म। जिन कर्मों से इच्छाएं जुड़ जाए, वह संकल्प बन जाता है। हमें इतना मिल गया, उतना और मिल जाए। इच्छाएं संकल्प कभी मिटते नहीं, कभी पूरे होते नहीं। पहले संकल्पों को हम पालना बंद कर दे। जो भी ले अणु व्रत ले। उसे पूरा करे। उसके निभते ही संकल्पशक्ति बढ़ती चली जाएगी। हमने कामनाओं महत्वकांक्षाओं संकल्पों का जखीरा अपने अचेतन में बिठा रखा है। यही हमें बार बार जीवनयात्रा में तंग करता है। संन्यास लेना है तो वेशभूषा वाला नहीं, संकल्पों से मुक्ति वाला ले।

भावी सुखों के स्वप्नों से बाहर आए

भारतीय मनोविज्ञान में प्रयुक्त यह संकल्प शब्द बड़ा ही भावपूर्ण एवं व्यापक अर्थ लिए है। मनुष्य शेखचिल्ली की तरह भावी सुखों की संभावनाओं के विषय में सोचता है। उसके बाद उन स्वप्नों को मजबूती से पकड़े रहता है। उन्हें पूरा करने के लिए वह जी जान से श्रम करता है। उसके मन की इसी तल्लीनता को संकल्प क्रीडा नाम दिया गया है। जब तक हमें कामनाएं वासनाएं तंग करती रहेगी, मन कभी भी शाँत हो, लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं हो सकता। इसलिए श्रीकृष्ण कहते है कि जिसने अपने संकल्पों सकाम इच्छाओं ऐषणाओं का त्याग नहीं किया है, वह कभी भी दिव्यकर्मी नहीं बन सकता एक श्रेष्ठ लोकसेवी, सम्मानित कार्यकर्ता नहीं बन सकता। कभी भी एक योगी नहीं बन सकता। लोग भाँति भांति की योजनाएं बनाते रहते हैं और अपने कर्मों का फल भोगने की उत्सुकता में इस इच्छा के साथ कि फल कब मिलेगा, अशाँत बने रहते है। ऐसा व्यक्ति कभी भी योगी नहीं बन सकता, हो सकता है तप का दिखावा वह कर लेता हो, पर मन से योगी बनना अत्यंत अनिवार्य है।

ध्यान की प्रक्रिया आरंभ हो, इसके पूर्व मन को शाँत करने की जो प्रणाली श्री गीताजी के माध्यम से योगेश्वर ने अपनाई है, वह अनूठी है। इतिहास में अपने आप में एक ही है। ध्यान ऐसे ही नहीं हो जाता। उसके लिए पहले योगी बनना होता है, संकल्पों को त्यागना होता है। मन स्वतः नहीं चुप होगा, उसे निग्रह की स्थिति में लाना होगा। यह और कोई नहीं करेगा, हमें स्वयं ही करना होगा। यही संदेश है प्रथम दो श्लोकों का।


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