ज्योति अवतरण का ध्यान-साधना

October 2003

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ध्यान किस तरह से करें? यह सवाल उन अनेक साधकों का है, जो मानव चेतना के रहस्यों को अनुभव करना चाहते हैं। जिनकी चाहत जिन्दगी के अनसुलझे रहस्यों को सुलझाने की है। जो अन्तर्यात्रा के पथ पर तेजी से कदम बढ़ाना चाहते हैं। शास्त्रकार एवं अनुभवी योग साधक सभी एक स्वर से ध्यान की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। सबका यही मानना है कि ध्यान अध्यात्म राज्य का द्वार है। मानवीय चेतना के रहस्यों को अनुभव करने की विधि है। जिन्दगी के अनसुलझे रहस्यों को सुलझाने की सरल प्रक्रिया है। अन्तर्यात्रा पथ के लिए समर्थ पाथेय है। ध्यान के इस महत्त्व निरूपण के क्रम में विभिन्न साधना परम्पराओं में अनेकों विधियाँ भी सुझाई गई हैं। साधकों की समस्या यह है कि इन अनगिनत विधियों में किसका चुनाव करें?

ध्यान साधना के जिज्ञासुओं के सवालों के सटीक समाधान के लिए इन पंक्तियों के माध्यम से ध्यान की अतिसुगम किन्तु अति समर्थ विधि प्रस्तुत है। इसका प्रयोग सभी आयु वर्ग के साधक सरलता से कर सकते हैं। इसका प्रयोग उनके लिए भी लाभकारी है जो वर्षों से नियमित साधना कर रहे हैं। इनके साथ वे साधक भी इस प्रयोग को अपना सकते हैं, जिन्होंने साधना पथ पर अभी पहला पग रखा है। ध्यान साधना के इस महाप्रयोग का नाम है-’ज्योति अवतरण की ध्यान साधना’। यह साधना इतनी अधिक प्रभावी है कि साधकों को पंद्रह दिन के अभ्यास के बाद अपने अस्तित्व एवं अन्तःकरण में स्पष्ट परिवर्तन नजर आने लगते हैं। ध्यान के इस महाप्रयोग की प्रक्रिया निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट है।

(1) जहाँ तक सम्भव हो साधक इस साधना के लिए शान्त, एकान्त, खुले एवं हवादार स्थान का चुनाव करे। इस क्रम में अपनी पूजा स्थली का भी चुनाव किया जा सकता है। सामूहिक ध्यान साधना के योग्य स्थान का चुनाव आचार्य एवं साधक मिल कर करें। उपयुक्त स्थान पर स्थिर चित्त हो, सुखासन पर बैठें। ध्यान साधना के लिए बैठते समय यथासम्भव शरीर पर कसे हुए कपड़े न रहे। ढीले वस्त्र पहनें। सुखासन पर स्थिरता पूर्वक बैठकर रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए भावना करें कि अपना मन, शरीर एवं आत्म चेतना पूर्ण शान्त निश्चिन्त एवं प्रसन्न स्थिति में अवस्थित है। यह भावना प्रगाढ़ता पूर्वक पाँच मिनट करने से अन्तःकरण में ध्यान के लिए उपयुक्त शान्ति उत्पन्न होने लगती है।

(2) अब यह धारणा करें कि आपके अपने चारों ओर श्वेत, शीतल, स्निग्ध प्रकाश पुञ्ज फैला हुआ है। आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सब तरफ प्रकाश फैल रहा है। हर तरफ से आप प्रकाश से घिरे हुए हैं। प्रकाश की यह आभा सूर्य मण्डल के मध्य में स्थित भगवती आदिशक्ति माता गायत्री से निकलकर सीधी आप तक आ रही है। वही इस प्रकाश का परम स्रोत है जो इस समय हर ओर से आपको घेरे हुए है।

(3) अगले क्रम में आप भावना करें कि ये प्रकाश किरणें धीरे-धीरे आपके शरीर में त्वचा छिद्रों से प्रवेश करती हुई प्रत्येक अवयव में समा रही हैं। मस्तिष्क, हृदय, फेफड़े, आमाशय, आँतें, हाथ, पाँव आदि शरीर के सभी अंग इस प्रकाश पुञ्ज को अपने भीतर धारण कर परिपुष्ट एवं प्रकाशवान हो रहे हैं। जिह्वा, नेत्र, कान, नाक आदि सभी ज्ञानेन्द्रियाँ माता गायत्री के इस आलोक से आलोकित होकर पवित्र हो रही हैं। इनमें से प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय की असंयमवृत्ति जल रही है। समूची देह के कण-कण में अज्ञान एवं अपवित्रता का अँधेरा समाप्त हो रहा है। पवित्रता एवं ज्ञान की यह ज्योति शरीर के कण-कण को पवित्र बनाने में संलग्न हैं।

(4) स्थूल शरीर में रक्त-माँस अस्थि आदि से बने हुए अवयवों के प्रकाश पुञ्ज बनने और उनके परिपुष्ट, पवित्र, स्फूर्तिवान् एवं ज्योतिर्मय होने का ध्यान दस मिनट करना चाहिए। इसके उपरान्त दस मिनट इस ध्यान की सूक्ष्म शरीर पर केन्द्रित करना चाहिए।

(5) सूक्ष्म शरीर का स्थान मस्तिष्क है। इस साधना को प्रगाढ़ करें कि मस्तिष्क के भीतर मक्खन जैसे कोमल एवं बालू के जैसे बिखरे हुए कणों में अगणित प्रकार की मानसिक शक्तियों एवं विचारणाओं के केन्द्र छिपे हुए हैं। उन तक आदि शक्ति माता गायत्री के प्रकाश की धाराएँ पहुँच रही हैं और वे सभी कण उसके द्वारा रक्तकणों की तरह ज्योतिर्मय होकर जगमगाने लगे हैं।

(6) इस प्रकाश के प्रवेश होने से मन में छिपे हुए अज्ञान के अंधकार का, असंयम एवं स्वार्थ का, भय और भ्रम के जंजाल का विनाश हो रहा है और मानसिक संस्थान का कण-कण, सूक्ष्म शरीर का अणु-अणु विवेक, सद्विचार, संतुलन एवं सुरुचि जैसी विभूतियों से जगमगाने लगा है। माता गायत्री की इन ज्योति किरणों के द्वारा मनोभूमि पवित्र प्रेरणाओं का पुञ्ज बन गयी है।

(7) दस मिनट तक सूक्ष्म शरीर गायत्री माता के प्रकाश का प्रवेश अनुभव करने के बाद, दस मिनट हृदय स्थान में स्थित कारण शरीर में ज्योति अवतरण की धारणा करनी चाहिए।

(8) इस भावना को प्रगाढ़ करें कि ज्योतिर्मय आकाश से अनन्त प्रकाश की आभा अवतरित होकर अपने हृदय स्थान में अवस्थित आत्मा के अणु मात्र प्रकाश पुञ्ज में प्रवेश कर रही है। उसकी सीमाबद्धता, संकीर्णता और तुच्छता को दूर कर अपनी तरह बना रही है। लघु और महान् का यह मिलन-अणु ज्योति एवं विभु ज्योति का यह आलिंगन परस्पर महान् आदान-प्रदान के रूप में परिणत हो रहा है। जीवात्मा अपनी लघुता परमात्मा में विसर्जित कर रहा है और परमात्मा अपनी महानता जीवात्मा को सौंप रहा है।

(9) धारणा करें कि ये परम मिलन के दिव्य क्षण हैं। जीवात्मा का लघु प्रकाश परमात्मा के परम प्रकाश से लिपट रहा है और दीपक पर जलने वाले पतंगे की तरह, यज्ञ कुण्ड में पड़ने वाली आहुति की तरह अपने अस्तित्व को होम रहा है। इस महामिलन के फलस्वरूप अन्तःकरण में सद्भावनाओं की हिलोरें उठ रही हैं। आकाँक्षाएँ आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता से परिपूर्ण हो चली हैं। ईश्वरीय संदेशों और आदर्शों पर चलने की निष्ठ परिपक्व हो रही है। विश्व के कण-कण में परमब्रह्म को ओतप्रोत देखकर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना प्रबल हो रही है और सेवा धर्म अपनाकर ईश्वर भक्ति का मधुर रसास्वादन करने की उमंगें उठ रही हैं। आत्मा की महिमा के अनुरूप अपनी विचारणा और कार्य पद्धति रखने का निश्चय प्रबल हो रहा है।

(10) ध्यान की इस परम प्रगाढ़ स्थिति में अनुभव करें कि अनन्त प्रकाश के आनन्दमय समुद्र में स्नान करते हुए आत्मा अपने आपको धन्य एवं कृतकृत्य अनुभव कर रहा है।

ज्योति अवतरण की ध्यान साधना की यह समर्थ प्रक्रिया पूरा करने में लगभग पैंतीस मिनट लग जाते हैं। पैंतीस मिनट के इस क्रम में पाँच मिनट आसन पर बैठने एवं मनोभूमि के निर्माण में एवं शेष दस मिनट स्थूल शरीर ज्योति धारण करने में, दस मिनट सूक्ष्म शरीर में ज्योति अवतरण की भावना करने में, दस मिनट अंगुष्ठ प्रमाण जीवात्मा की ज्योति के साथ आकाश में स्थित भगवती आदिशक्ति के मिलन की अनुभूति में लग जाता है। समय कम हो तो इसी अनुपात में थोड़ा-थोड़ा समय चारों धारणाओं में कम किया जा सकता है। यह अति समर्थ एवं परम गोपनीय साधना है। इस साधनक्रम को अपनाने वाले अपने जीवनक्रम में कायाकल्प जैसा परिवर्तन होते हुए अनुभव करेंगे और उन्हें अपनी आन्तरिक प्रगति पर उत्साहवर्धक संतोष अनुभव होगा।


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