मनुष्य का जीवन स्वयं ही प्रत्यक्ष देवता है। अन्य देवताओं की कृपा तो परलोक में मिलती है, पर अपने जीवन को सुघड़, सुसंस्कृत बनाने की उपासना के लाभ तो इसी जीवन में ही मिलते हैं।