अनुष्ठान में पंचसूत्री तप साधना

October 2003

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दूध को गरम करने से उसका घृत वाला अंश मलाई के रूप में ऊपर तैरने लगता है। गरमी से पिघलकर विशेष पत्थरों के भीतर रमा हुआ शिलाजीत बाहर निकल आता है। सूर्य की गरमी बढ़ते ही सभी प्राणी निद्रा त्याग की जाग पड़ते और काम में लगते है। तप की गरमी से मनुष्य की अंत चेतना जाग्रत, सक्रिय और सक्षम बनती है। झकझोरने से सोया व्यक्ति जाग पड़ता है। आँतरिक मूर्च्छा और उदासी को दूर करने के लिए तपश्चर्या से उत्पन्न ऊर्जा अपना चमत्कार दिखाए बिना नहीं रहती। उसका प्रभाव संचित कुसंस्कारोँ को जलाता है और ऐसी अभिनव शक्ति प्रदान करता है, जिसके सहारे प्रगतिपथ पर द्रुतगति से बढ़ चलना संभवं हो सके। आग तापने से ठंडक दूर होती है। अगति और अकर्मण्यता को निरस्त करने में तप की गरमी से भी वैसा ही उद्देश्य पूरा होता है।

गायत्री साधना पंचमुखी है। उसके प्राणरूपी प्रकरण पाँच पाँच अध्याय सोपानों में बंटे हुए है। तप साधना वाला प्रकरण भी पाँच भागों में विभक्त है। पाँच तत्वों से बना हुआ काय कलेवर, पाँच प्राणों से बने हुए चेतना संस्थान भी पाँच प्रकार की तपश्चर्याओं से प्रभावित परिष्कृत होते है। गायत्री उपासना को सफल बनाने वाली पाँच तपश्चर्याएं (1)उपवास (2)मौन (3)ब्रह्मचर्य (4)तितिक्षा (5)अनुदान इन पांचों नामों से प्रसिद्ध है। साधना के साथ साथ इनका समन्वय जितना हो सकेगा उसी अनुपात से उसकी कार्यक्षमता बढ़ती चली जाएगी।

उपवास का प्रयोजन है- आहार की संयमशीलता और सात्विकता। पापों के प्रायश्चित के लिए तो चाँद्रायण, संतापन आदि कितने ही विशिष्ट व्रत है। अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी एवं साप्ताहिक उपवासों का क्रम कितने ही लोग चलाते है। श्रावण, कार्तिक, माघ बैसाख महीने के पूरे व्रत साधना का विस्तृत माहात्म्य है। रमजान में रोजे तो मुसलमान भी रखते है। जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि, गंगा दशहरा, नवरात्र आदि पर्वों पर उपवास की परंपरा हैं। आहार न करने से पेट को विश्राम मिलना और उसका नई शक्ति, नई स्फूर्ति अर्जित करना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हितकर है ही, उसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है। शारीरिक आवश्यकता भूख के रूप में प्रकट होती और आहार मांगती है। धर्मश्रद्धा के साथ जुड़ी हुई संकल्प शक्ति उस मांग को पूरा करने से इंकार करती है। संस्कार और संकल्प के बीच विग्रह खड़ा होता है। समझाकर या बलपूर्वक संस्कार का दमन किया जाता है और धर्मबुद्धि के सहारे शरीर को संतोष समाधान कराया जाता है। उपवास की तपश्चर्या के सहारे आत्मानुशासन स्थापित करने का महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होता है।

उपवास किसे, किस प्रकार, कितना करना चाहिए? यह साधक की मन स्थिति और परिस्थिति पर निर्भर है। पूर्ण उपवास तो वही है, जिसमें मात्र जल पर रहा जाए। आंशिक उपवास के कितने ही प्रकार है- (1) दूध छाछ, फलों का रस, शाकोँ का रस जैसे पेय पदार्थों पर रहना (2)अन्नाहार छोड़कर शाक फल दूध आदि पर निर्वाह करना (3) एक समय भोजन करना (4) एक अन्न, एक लगावन, रोटी शाक, दाल भात आदि से पेट भरना (5) खिचड़ी दलिया जैसी एक ही पात्र से पकाई वस्तु से काम चलाना। उपवास की इन प्रक्रियाओं में से जो जितना कठिन सरल चुनाव कर सके, वह उसे अपना सकता है।

अस्वाद व्रत इसी उपवास प्रक्रिया का एक अतिरिक्त भाग है। नमक शक्कर मसाले छोड़कर बिना स्वाद का भोजन करना इंद्रिय निग्रह का एक बड़ा कदम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसमें तनिक भी हानि नहीं। खाद्य पदार्थों में उपयोगी क्षारों की मात्रा प्रकृतितः होती है। उसमें ऊपर से नमक शक्कर आदि मिलाने की स्वास्थ्य की दृष्टि से तनिक भी आवश्यकता नहीं है। सृष्टि का कोई भी प्राणी ऊपर से नमक मसाले नहीं खाता। शरीर के लिए सभी आवश्यक तत्व सामान्य खाद्य पदार्थों में ही मिल जाते हैं। जीभ को चटोरेपन की आदत डालकर भोजन को अखाद्य बनाया जाता है और उसे अनावश्यक मात्रा में खाकर पेट खराब किया जाता है। मन में चंचलता और तामसिकता की वृद्धि भी उन मिलावटों के कारण ही उत्पन्न होती है।

अस्वाद व्रत जिह्वा इंद्रिय का संयम है। जीभ को चटोरेपन के दुर्गुण से छुड़ा लेने से साहसिकता का समावेश है। इसे जीत लेने पर अन्य सभी इंद्रियों पर अनुशासन स्थापित कर सकना सरल हो जाता है। इसमें भी आत्म निग्रह का, आत्मानुशासन का संकल्प प्रखर होता है और इससे बढ़ा हुआ साहस अन्य कुसंस्कारी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पा सकने में समर्थ हो जाता है। स्वाद छूटने पर जो कुछ खाया जाएगा, प्रायः वह सीमित और सात्विक ही रहता है। आहार का संयम मन का संयम होता है। उससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए उपवास ओर उसकी एक महत्वपूर्ण शाखा अस्वाद व्रत का पालन तपश्चर्या में ही सम्मिलित हैं। उसका लगातार कितने समय तक पालन किया जाए, यह साधक की इच्छा पर निर्भर है। न्यूनतम सप्ताह में एक बार इस तप के पालन के अभ्यास तो करना ही चाहिए।

जप स्तवन, कीर्तन, पठन आदि जिह्वा से किए जाते हैं। इस उपकरण की शुद्धि नितांत आवश्यक है। जिस जीभ रूपी बंदूक से मंत्र रूपी कारतूस चलाया जाता है, उसकी सफाई पहले ही कर लेनी चाहिए। नली में कूड़ा करकट भरा हो, दबाने का घोड़ा तथा दूसरे पुरजे अस्त व्यस्त हो तो अच्छे कारतूस होने पर भी निशाना लगाना कठिन है। वंशी बजाने वाले यह देख लेते है कि उसके छेद साफ है या नहीं। मैले बर्तन में दूध दुहने या उबालने से उसके फटने की आशंका रहेगी। यही बात अशुद्ध जिह्वा के संबंध में भी है, उसके द्वारा किए गए पूजा उपचार एवं मंत्र साधन सफल नहीं होते। अस्तु, उपासना को सार्थक बनाने के लिए जिह्वा शुद्धि की प्रक्रिया पर पूरा ध्यान देना चाहिए।

जिह्वा का एक कार्य है आहार ग्रहण, दूसरा है उच्चारण। उच्चारण का तात्पर्य है- साधक के संभाषण में पवित्रता का समावेश। असत्य भाषण, छल, शेखीखोरी ,अवाँछनीय परामर्श, अपमान, तिरस्कार,कटुवचन, चुगली, हिम्मत गिराना जैसे अनेक वाणी दोष है। इनके रहते भी वाणी की पवित्रता नहीं बन पाती। साधक को नपा-तुला बोलना चाहिएं। व्यर्थ की बकझक करते रहने की आदत पड़ गई हो तो वह दूर करनी चाहिए। अन्य वाणी दोषों को सुधारने के लिए पूरा पूरा ध्यान देना चाहिए। इस संदर्भ में वाणी का विश्राम, निरीक्षण,संशोधन करने के लिए मौन का अभ्यास करना चाहिए। मौन को वाणी का तप कहा गया है।

सुविधानुसार हर दिन जाग्रत स्थिति में एक दो घंटे मौन रहने का अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिए। भोजन के समय, मल मूत्र विसर्जन में, उपासना के समय तो मौन रहने की परंपरा भी है। इसके लिए जिस समय कम जनसंपर्क रहता है उस समय एक दो घंटे का मौन रखने का नियम बनाना चाहिए। सप्ताह में या महीने में एक दिन पूरा मौन रखना भी जिह्वा की अवाँछनीय गतिविधियों पर रोक लगाने, पुरानी आदतें भुलाने का एक अच्छा उपाय है।

शक्ति संचय की दृष्टि से कम बोलना उपयोगी है। जब मनुष्य अधिक दुर्बल हो जाता है तो उसकी वाणी बंद हो जाती है या लड़खड़ाने लगती है। यद्यपि होश हवाश बने रहते है। बोलने में अंत शक्तियों पर बहुत जोर पड़ता है। अनेक अवयवों की संयुक्त शक्ति के अतिरिक्त उसमें शरीर की विद्युत शक्ति का भी एक बहुत बड़ा भाग खरच होता है। दुर्बलता की स्थिति में उतनी सामर्थ्य न रहने से ही बोलने में कठिनाई होती है।

वायस आफ साइलेस ग्रंथ में थियोसॉफी के जन्म दाताओं ने यह बताया है कि मौन रहने की स्थिति में दैवी वाणी को सुनने का अवसर मिलता है। कहने और सुनने की दोनों क्रियाएं साथ साथ चलाने में कितनी कठिनाई होती है, यह सभी जानते है। ईश्वर की वाणी सुनने, अदृश्य लोक के दिव्य संदेशों को पकड़ने के लिए मौन धारण का अभ्यास करना उचित ही है। गायत्री उपासकों के लिए उपवास, अस्वाद एवं मौन का अभ्यास करने के साथ में जिह्वा के माध्यम से की जाने वाली दोनों ही तपश्चर्याएं आवश्यक है। आहार की तामसिकता और अनर्गल वार्ता का संयम करने से जिह्वा में वह शक्ति उत्पन्न होती है जिससे उसके द्वारा किया हुआ जप आराधन सफल हो सके।

तीसरा तप है ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ है। वीर्य रक्षा। स्वास्थ्य सुरक्षा की दृष्टि से यह भी आवश्यक है । इस बहुमूल्य धातु का सूक्ष्म रूप ओजस है। नेत्रों में ज्योति, वाणी में प्रभाव, मस्तिष्क में स्मृति, व्यक्तित्व में प्रतिभा, शरीर में स्फूर्ति, चेहरे पर तेजस्विता, मन में साहसिकता के रूप में यह ओजस ही काम करता है। जीवन ज्योति का आलोक जिस तेल के आधार पर प्रकाशवान रहता है, वह वीर्यरक्षा से ही संचित होता है। आत्मिक प्रगति के लिए प्रचंड संकल्प शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। भौतिक आकर्षणों से लेकर कुसंस्कारों के अवरोधों से पग पग पर जूझना होता है। इसके लिए योद्धाओं जैसे शौर्य साहस की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति संचय की दृष्टि से ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। दांपत्य जीवन का अर्थ आत्मघात नहीं है। पति पत्नी भी दो भाइयो और मित्रों की तरह, दो बहनों और सहेलियों की तरह मित्रता और प्रसन्नता भरा जीवन सरलता और सफलतापूर्वक जी सकते है।

ब्रह्मचर्य का सूक्ष्म और महत्वपूर्ण भाग वह है, जिसमें नर नारी को और नारी नर को कामुकता की दृष्टि से न देखकर सामान्य प्राणी की तरह देखते है। अश्लील विचारों और वासनात्मक कुदृष्टि कस समन्वय नहीं होने देते। यदि स्नेहपूर्वक एक दूसरे को देखना आवश्यक हो तो पुत्र भागिनी या माता की, पुत्र, भाई या पिता की पवित्र दृष्टि रखते हुए घनिष्ठता एवं मित्रता का भी निर्वाह हो सकता है। मस्तिष्क को अनावश्यक रूप से उत्तेजित करने में चिंतन को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न न होने देने में कामुकता के विचार ही अत्यधिक बाधक होते है। कल्पना शक्ति का महत्वपूर्ण भाग इन्हीं कुप्रसंगों का ताना बाना बुनने में नष्ट हो जाता है। कामुक दृष्टि रहने पर नेत्रों की दिव्य दृष्टि का बुरी तरह अपव्यय होता रहता है। ऐसा चिंतन वीर्यपात से भी अधिक हानिकारक होता है। रति कर्म से स्थूल शरीर में जैसी हानि होती है वही कामुक चिंतन से सूक्ष्मशरीर की प्राण प्रतिभा को क्षति उठानी पड़ती है, इसलिए ब्रह्मचर्य की तप साधना में न केवल वीर्यरक्षा का वरन् कामुक दृष्टि को निरस्त करने का भी अनुशासन है।

गायत्री माता का चित्र युवा नारी का है, उसमें पवित्रता भरी मातृबुद्धि की श्रद्धा जमाने का एक उद्देश्य यह भी है कि नारी यौवन पर दृष्टि जाते ही उत्कृष्ट चिंतन उभरने का अभ्यास होता रहे। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि अन्य देवियों की प्रतिमाओं में भी यौवन के साथ भावभरी श्रद्धा संजोए रहने की मान्यता है। इसी प्रकार देवताओं को रूपयौवन संपन्न बनाकर नारी को वह अभ्यास करने का अवसर दिया गया है कि ये नर यौवन से कामुक उत्तेजना ग्रहण न करे वरन् ईश्वरतुल्य मान्यताओं का अभ्यास करे। मीरा आदि की आराधना इसी स्तर की थी।

चौथी तपश्चर्या है तितिक्षा। तितिक्षा का अर्थ है-सुविधाओं का स्वेच्छापूर्वक परित्याग और कष्टसाध्य जीवनक्रम का अभ्यास यह कई कारणों से आवश्यक है। मितव्ययी ब्राह्मण जीवन की स्थिति अपनाने पर ही परमार्थ प्रयोजनों के लिए समय, मन और धन बच सकता है। विलासी व्यक्ति की आवश्यकताएं आकांक्षाएं इतनी बढ़ी चढ़ी होती है कि उसके लिए परमार्थ प्रयोजन के लिए कुछ कर सकना तो दूर, सोच सकना भी कठिन पड़ता है। अल्प व्यय में निर्वाह करने वाले को कई प्रकार की असुविधाएं सहन करनी पड़ती है, इसका पूर्वाभ्यास तितिक्षा से ही करना पड़ता है।

लोकमंगल की सेवा साधना ईश्वर उपासना का अविच्छिन्न अंग है। विराट ब्रह्म की, विशाल विश्व की सेवा आराधना से विरत रहकर पूजा अर्चा मात्र से कोई भी जीवनलक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। सेवा साधना में निरत व्यक्तियों को कितने ही प्रकार के कष्ट सहने पड़ते है। परिव्राजक जीवन की कठिनाइयाँ तो सर्वविदित ही है। वानप्रस्थ संन्यास में भी कष्टसाध्य जीवनयापन ही करना पड़ता है। तितिक्षा इसी का पूर्वाभ्यास है, ताकि समय आने पर अभ्यास प्रक्रिया अपनाने में कठिनाई अनुभव न हो।

सचाई और न्याय निष्ठा अपनाने वाले को अनीति के विरुद्ध संघर्ष भी करना पड़ता है, इसमें प्रतिपक्षी असुरता के प्रत्याक्रमण होने स्वाभाविक है। ईसा, गाँधी, सुकरात, दयानंद, मसूर, वंदा वैरागी, गुरु गोविंद सिंह के बालक जैसे असंख्य पुरुषों को प्राणों से हाथ धोने पड़े हैं वास तो असंख्यों ने सहे है। हिंस्र व्याघ्र आदि तो आक्रमण करने से रोकने पर प्रतिरोध करने वाले पर ही टूट पड़ते है। असुरता की यही नीति रही है कि वह सज्जनता को अपने अस्तित्व के लिए संकट मानती है और उस पर आक्रमण करती है। जिनके स्वार्थों को क्षति पहुंचती है, वे सब अपने विराने अध्यात्मवादी से रुष्ट रहते और उसे हानि पहुंचाने का प्रयत्न करते है। ऐसी विपत्तियों के फंसने की जानकारी एवं तैयारी पहले से ही बनी रहे इसलिए कई प्रकार के काय कष्ट सहने की तितिक्षा को तपश्चर्या माना गया है और साधक को उसका अभ्यास करते रहने के लिए कहा गया है।

सरदी, गरमी, भूख, प्यास सहने का अभ्यास तितिक्षा है। भूमिशयन, बिना जूते के चलना, कम वस्त्रों का उपयोग भी इसी श्रेणी में आता है। बिना दूसरों की सहायता का स्वावलंबी जीवन, अपनी शरीरयात्रा के कार्य अपने हाथों करने का अभ्यास भी इसी प्रयोजन के लिए है। कपड़े धोना, हजामत बनाना जैसे दैनिक आवश्यकता के काम बिना दूसरों की सहायता लिए करने के नियम इसी तितिक्षा तप के अंतर्गत आते है।

पाँचवा तप है अनुदान। अपने सुविधा साधनों में कमी करके उस बचत को सत्प्रयोजन में लगाते रहना अनुदान अथवा अंशदान है। समयदान, श्रमदान, धनदान, ज्ञानदान आदि इसी वर्ग में आते है। अपने धर्मकृत्यों में से प्रत्येक के साथ किसी न किसी रूप में दान देने का विधान जुड़ा हुआ है। विविध प्रकार के दान पुण्य परमार्थ एवं धर्मकृत्य माने गए है।

अंशदान का अर्थ है-अपना उपार्जन उसका एक न्यूनतम अंश ही अपने निर्वाह में खरच करना, शेष को परमार्थ प्रयोजनों में लगा देना तपश्चर्या का एक रूप है। समयदान ओर धनदान का न्यूनतम अनुदान गायत्री परिवार के सदस्यों को ज्ञानयज्ञ के लिए प्रस्तुत करना पड़ता है। ज्ञानघटों की स्थापना से इसी तपश्चर्या का शुभारंभ होता है। अपने युग का सबसे बड़ा परमार्थ ज्ञानयुग माना गया है। हमें प्राचीनकाल के ऋषियों महामानवों और देवपुरुषों की तरह बढ़ा चढ़ा अंशदान पीड़ा और पतन का समग्र निवारण कर सकने वाले ज्ञानदान के निमित्त करते रहना चाहिए। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के पुण्य प्रयोजन के निमित्त अधिकाधिक अंशदान निकालना भी एक तप है। तपश्चर्या का यह पंचम चरण है। इन पांचों को किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करके नवरात्रि की गायत्री उपासना का वास्तविक सत्परिणाम देखने का अवसर प्राप्त करना चाहिए।


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