मनुष्य अपना स्वामी स्वयं

October 2003

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हल को थामे हुए बैलों के पीछे-पीछे चलते हुए उसके पाँव थक गये। माथे पर पसीने की बूंदें छलक आयी। एक पल के लिए उसने आँख उठाकर आसमान की ओर देखा। सूरज सिर पर चढ़ आया था। उसका प्रखर ताप समूचे वातावरण को तपाने लगा था। इस तपन और थकान से उसका अपना तन-मन भी चूर हो रहा था। सो उसने बैलों को हल के साथ वहीं खेत में छोड़ा और खुद खेत के कोने पर खड़े इमली के वृक्ष के नीचे आकर बैठ गया। इमली के वृक्ष की घनी छाँव ने उसे सुखद आश्रय दिया। हल्की बयार की अनुभूति से उसके माथे पर छलक आयी पसीने की बूंदें सूखने लगी। देह पर छायी तपन और थकान से भी राहत मिली।

राहत के इन पलों में उसने देखा भगवान् तथागत एक पगडण्डी से गुजर रहे हैं। उनके साथ कुछ और भिक्षु भी हैं। तथागत को निहार कर उसके अन्तःकरण में एक अद्भुत शान्ति उतर गयी। भगवान् का शान्त एवं प्रसादपूर्ण व्यक्तित्व उसके समूचे अस्तित्व में व्याप्त हो गया। न जाने क्यों उन्हें देखकर उसे अनूठी तृप्ति मिलती थी। खेतों की जुताई या निराई-गुड़ाई अथवा सिंचाई करते समय प्रायः रोज ही उसे भगवान् के दर्शन होते थे। उन्हें देखते ही वह अपना काम रोककर खड़ा हो जाता और दो क्षण उन्हें आँख भरकर देख लेता। फिर अपने काम में जुट जाता। भगवान् के मुख पर छायी हुई शान्ति एवं प्रसन्नता भिक्षु संघ के सदस्यों में उमड़ता उल्लास उसके अन्तःकरण को विभोर कर देता।

शुरुआत के दिनों में उसने भगवान् तथागत के बारे में पता लगाया, काफी खोज बीन की। क्योंकि उन्हें देखकर उसे कुछ अचरज सा लगता था। वह सोचता, यह आदमी इतना प्यारा, इतना सुन्दर लगता है। किन्तु है यह भिक्षु, हालाँकि लगता है सम्राटों का सम्राट। उसने जब उनके बारे पता लगाया तो पता चला कि यह तो राजमहलों को छोड़कर भिक्षु बना है। भगवान् की जीवन गाथा को जानकर उसके मन में तरंगें उठने लगी। उसने सोचा कि अरे! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। यह एक हल है, यह ..। थोड़ी सी खेती। इसके अलावा भला क्या है मेरे पास छोड़ने को। मैं भी क्यों न इस महान् व्यक्ति की छाया बन जाऊँ। मैं भी क्यों न इसके पीछे चलने लगूँ? इनके व्यक्तित्व से जो अमृत छलक रहा है, एकाध बूँद शायद मेरे भी हाथ लग जाये। .. माना कि मैं निर्धन और अभागा हूँ फिर भी शायद मुझ पर इनकी कृपा हो जाये।

आज जब बुद्ध की परम ज्योति उस पर पड़ी, तो ये भाव प्रकाश समुद्र की भाँति उसके अन्तःकरण में उफन उठे। उससे रहा नहीं गया और उसने भगवान् तथागत की शरण में संन्यास ले लिया। फिर भी अभी कहीं उसके मन में शंका बाकी थी। उसने सोचा-अनजान रास्ते पर निकला हूँ। आज उत्साह-उमंग में हूँ, कल न निभा पाऊँ। शायद कहीं फिर से लौटना पड़े तो..? बस इसी शंकाकुल मनोदशा के कारण उसने बौद्ध विहार के पास खड़े एक वृक्ष के ऊपर अपने नंगल को सम्हाल कर टाँग दिया। अतीत से सम्बन्ध तोड़ना इतना आसान नहीं। यादों की चुभन रह-रहकर उसका अहसास कराती रहती है।

संन्यास लेने के बाद कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन्न रहा। लेकिन फिर चारों ओर से उसे उदासी घेरने लगी। क्योंकि जब भगवान् कहते ध्यान करो तो उसे केवल अपना हल-नंगल नजर आता। जब वह कहते अब तुम अपने भीतर जाओ। तब वह सोचता कि आखिर यह कहाँ की झंझट, कहाँ जाना है भीतर? क्या है भीतर? हर तरफ तो अँधेरा-अँधेरा नजर आता है। उसे लगने लगा कि अजीब झंझट है यह। इससे तो तभी अच्छा था जब अपना हल चलाते थे। कम से कम अपनी दो रोटी तो कमा लेते थे। अब तो वह भी गयी। इस उदासी में उसे वैराग्य से वैराग्य पैदा हो गया।

इस विराग से वैराग्य की भावदशा में वह अपने हल-नंगल को लेकर पुनः खेती-बाड़ी करने के विचार से वृक्ष के नीचे गया। किन्तु वहाँ पहुँचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा कि मैं यह क्या कर रहा हूँ। बोध होते ही उसे अपनी भूल समझ में आयी। वह पुनःविहार वापस लौट आया। फिर तो जैसे यह उसकी साधना बन गयी। जब-जब उसे उदासी होती, वृक्ष के पास जाता, अपने हल को देखता और फिर से वापस लौट आता। संघ के अन्य भिक्षुओं ने उसे बार-बार अपने हल-नंगल को देखते और बार-बार नंगल के पास जाते देखकर उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया।

एक दिन वह भी आया जब वह हल-नंगल के दर्शन करके लौटा तो फिर कभी दुबारा वापस नहीं गया। उसे अर्हत्व उपलब्ध हो गया। पकती गई बात-पकती गई बात और एक दिन फल टपक गया। अतीत गया और वर्तमान का उदय हो गया। अर्हत्व का अर्थ ही यही है कि चेतना वर्तमान में आ गयी। एक पल में सब कुछ हो गया। इस क्षण में चेतना निर्विकार होकर प्रज्वलित होकर जल उठी। फिर किसी ने उसे दुबारा हल-नंगल की ओर जाते नहीं देखा। उसकी यह स्थिति देखकर भिक्षुओं को स्वाभाविक जिज्ञासा जगी; इस नंगलकुल को क्या हो गया है? अब यह नहीं जाता उस वृक्ष के पास। पहले तो बार-बार जाता था।

उन्होंने उससे पूछा - आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता, आखिर बात क्या है? भिक्षुओं की बात सुनकर नंगलकुल हँसा और बोला-जब तक आसक्ति रही अतीत से, जाता था। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब वह जंजीर टूट गयी है। मैं अब मुक्त हूँ। यह सुनकर कुछ भिक्षु ईर्ष्या में जल उठे। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने भगवान् से शिकायत के लहजे में कहा-भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है।यह अर्हत्व प्राप्ति की घोषणा कर रहा है। यह कहता है कि मैं मुक्त हूँ। भिक्षुओं की इस शिकायत पर भगवान् करुणार्द्र हो उठे। उनके नेत्रों से करुणा की शुभ ज्योति बरस उठी। उन्होंने बड़े ही स्नेहसिक्त स्वर में कहा- भिक्षुओं! मेरे उस पुत्र ने अपने आपको उपदेश देकर प्रव्रजित होने के कृत्य को पूर्ण कर लिया है। उसे जो पाना था, उसने पा लिया और उसे जो छोड़ना था सो छोड़ दिया। वह निश्चय ही मुक्त हो गया है।

ऐसा कहते हुए उन्होंने दो धम्म गाथाएँ कहीं।

अत्तना चोदयन्तानं परिवासे अत्तमतना। सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखम् भिक्खु विहाहिसि॥

अत्ताहि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति। तस्मा सञ्जमयत्तानं अस्सं भद्रं व वणि जो॥

अर्थात्, जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा। जो आप ही अपने को संलग्न करेगा। वह आत्मगुप्त अपने द्वारा रक्षित-स्मृतिवान् भिक्षु सुख से विहार करेगा। वह मुक्त हो जायेगा।

मनुष्य अपना स्वामी आप है। आप ही अपनी गति है। इसलिए अपने को संयमी बनावें। जैसे सुन्दर अश्व को वणिक संयत करता है।

भगवान् के इन प्रबोध वचनों को सुनकर भिक्षुओं को आत्म विवेक एवं आत्म विचार की महिमा का बोध हुआ। उन्हें यह समझ में आया कि विवेक और विचार के समुचित प्रयोग से कोई भी अर्हत्व की प्राप्ति कर सकता है।


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