शिष्य अपने गुरु से शिकायत भरे स्वर में कह रहा था, “गुरुदेव! आपने ही तो उस दिन कहा था, जो व्यक्ति त्यागी होते हैं और प्रतिष्ठा से दूर भागने का प्रयास करते हैं, सामाजिक सम्मान उनके पीछे दौड़ा-दौड़ा आता है। मैं गत 15 वर्षों से अपना सर्वस्व समाज सेवा पर न्यौछावर करता आ रहा हूँ, पर सम्मान मेरे पीछे अभी दौड़कर नहीं आया।”
गुरु का उत्तर था, “बात ठीक है, पर तुम्हारी दृष्टि सदैव पाने पर लगी रही, देना तो तुम्हारा नाटक मात्र था।” शिष्य को अपनी भूल समझ में आई।
एक गृहस्थ ने तीन यज्ञ किए। सब धन खरच हो गया। वह गरीबी से घिर गया। उसका दुःख देखकर किसी विद्वान ने कहा, “तुम अपने एक यज्ञ का पुण्य धर्मराज सेठ को बेच दो, तो उतने भर से तुम्हारा काम चल जाएगा।”
गृहस्थ चल पड़ा। रास्ते में खाने के लिए रोटियाँ बाँध लीं। चलते चलते एक जगह रास्ते में एक कुतिया मिली। बच्चे जने थे, पर खाने के लिए उसके पास कुछ न था। भूख से दम तोड़ रही थी। गृहस्थ को सेठ के पास तक पहुँचने में तीन दिन भूखा रहना पड़ा।
जाते ही धर्मराज ने पूछा, “तुम्हारे चार यज्ञ हैं, इनमें किन्हें बेचना चाहते हो।” गृहस्थ ने कहा, “मैंने तो तीन ही यज्ञ किए हैं।” धर्मराज ने कहा, “चौथा दया यज्ञ तो तुमने अभी अभी रास्ते में ही अपने रोटियाँ खिलाकर किया है। उसका पुण्य उन तीनों के बराबर है।”
गृहस्थ ने पिछले तीनों यज्ञ बेच दिए और उसके बदले जो कुछ मिला, उसे आएदिन दया यज्ञों का अवसर ढूंढ़ने और लगाने में खरच करता रहा।