दीपावली पर्व संदर्भ - ज्योतिपर्व पर करें कुछ आत्मावलोकन

October 2003

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समग्र जीवन की प्रतिपादक भारतीय संस्कृति की एक मौलिक विशेषता है-इसके पर्व त्यौहारों की अविरल शृंखला। ये पर्व-त्यौहार जहाँ सामूहिक उल्लास एवं जीवन्तता के द्योतक हैं वहीं सामाजिक चेतना के परिष्कार के सशक्त माध्यम भी हैं। वर्ष के 365 दिनों में वह कौन सा दिन है जिस दिन कोई पर्व न हो। पर्वों की इस अटूट शृंखला में मुकुटमणि का स्थान यदि किसी को प्राप्त है तो वह है- प्रकाश पर्व दीपावली को। दीपावली मात्र एक पर्व अथवा त्यौहार नहीं अपितु पर्व पुञ्ज है। कार्तिक कृष्णा एकादशी अर्थात् रमा एकादशी से प्रारम्भ कर गोवत्स द्वादशी, धन्वन्तरी त्रयोदशी, नरकचतुर्दशी एवं हनुमान जयन्ती, कमला जयन्ती एवं दीपावली, अन्नकूट-गोवर्धन-विश्वकर्मा प्रतिपदा और भ्रातृ अथवा यम द्वितीया तक पूरे सात दिन तक, यत्र-तत्र-सर्वत्र दीपमालिका का प्रकाश दृष्टिगोचर होता है। यह श्रेष्ठ पर्व पुञ्ज भारतीय संस्कृति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। जिसमें आनन्द और प्रकाश की शाश्वत विजय का बड़ा मार्मिक इतिहास जगमगा रहा है।

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस दिन रघुवंशी भगवान् श्रीराम ने वनवास की चौदह वर्षीय अवधि को पूरा कर अयोध्या में पदार्पण किया था। इस आगमन की खुशी में अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाये थे। तब से दीपावली प्रतिवर्ष मनायी जाने लगी। इसी दिन धर्मराज यम ने जिज्ञासु नचिकेता को ज्ञान की अंतिम वल्लि का उपदेश दिया था। पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश को तार-तार कर मनवाँछित वरदान पाया था। एक अन्य कथा के अनुसार जैनतीर्थंकर भगवान् महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवलोक से समस्त देवताओं ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी।

ज्योतिपर्व के साथ जुड़े पावन प्रसंगों की यह शृंखला अनन्त है। जो भी हो भारतभूमि का सबसे विशाल पर्व दीपावली सदैव अंधकार से लड़ने की हमारी उत्कट अभिलाषा और प्रबल जिजीविषा का प्रतीक रहा है। परन्तु न जाने क्यों दीपावली का पर्व शताब्दियों से पसरे उस अंधकार को दूर नहीं कर पा रहा है जो भारतीय जनजीवन को निराशा और संत्रास की अतल गहराइयों में धकेल रहा है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के छप्पन वर्षों बाद भी भारतीय जनमानस की जो स्थिति है, वह एक व्यापक मोह भंग एवं एक भयंकर मनोवैज्ञानिक संघात की है। सामाजिक, साँस्कृतिक एवं नैतिक धरातल पर एक विचित्र सी सड़न व्याप्त है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, और सांप्रदायिकता की बेड़ियों में जकड़ी राजनीति अपने ही संकीर्ण स्वार्थों की कारा में बंदिनी है। देशकाल पर छाया महाशून्य सुरसा की तरह अपना आकार बढ़ाता जा रहा है। चहुँओर हिंसा, आतंक, भय, घृणा व संशय का वातावरण जनजीवन को आक्राँत कर रहा है।

आज रक्तरंजित कश्मीर, मर्मांतक संघात सहती गुर्जर भूमि, सुलगता तेलंगाना, झारखण्ड, बिहार और उत्तरपूर्व हमें सौगात में मिले हैं। बाहरी आक्रमणों का भय पूर्व की अपेक्षा बढ़ा है। पाकिस्तान और चीन के कुत्सित इरादे छद्मयुद्ध एवं आतंकी घुसपैठ आये दिन देश की नींद हराम किये हुए हैं। इनकी आतंकी गतिविधियाँ, अबाध घुसपैठ एवं आत्मघाती बम-विस्फोटों की रक्तरंजित शृंखलाएं जहाँ राष्ट्र को बाह्य चुनौतियों के रूप में सतत् आक्राँत किये हुए हैं। उस पर करेला-नीम चढ़ा की भाँति देश की भीतरी दुर्दशा से स्थिति और बदतर हो रही है। बेरोजगारी, युवा असंतोष, जातीय हिंसा, साम्प्रदायिक तनाव, माफिया गिरोहों का अंतरजाल, आये दिन रक्तपात आदि समस्याओं ने स्थिति भयावह होती जा रही है। इन भयावह आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं तथा चुनौतियों के मकड़जाल में उलझा राष्ट्र इनसे मुक्त होने के लिए तड़प रहा है, छटपटा रहा है। कब, कैसे व किस तरह वह इस भयावह एवं दुसह्य प्रारब्ध से मुक्त होगा? कौन इस दुर्दशा से उसका उद्धार करेगा? ये महाप्रश्न सौ करोड़ अभिशप्त लोगों के समक्ष खड़े हैं, जिनका वे यथोचित उत्तर चाहते हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात् जिस लोकसम्पदा एवं शक्ति का नियोजन लोकहित में गरीब, असहाय-अशिक्षित, पिछड़े एवं दलित वर्ग के उत्थान में होना था, उसकी बँदर बांट स्वार्थी एवं भ्रष्ट राजनेताओं और कालाबाज़ारी करने वाले व्यापारियों के बीच हुई। इनमें एक ओर वर्ग जुड़ा शहर-कस्बे स्तर पर उग आये छुटभैया नेताओं का, धूर्त और ढपोरशंख लोगों का। ओछी हरकतों, खोखले भावुक नारों, बाहुबल और काले धन से जीती हुई राजनीतिक शक्ति के मद में चूर राजनेताओं ने उत्पादन के समस्त स्रोतों को जोंक की तरह चूसना प्रारम्भ किया। बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से खोखले ये नेता सर्वशक्तिमान बन बैठे। सारी प्रशासनिक व्यवस्था इनकी चैरी बन गयी। इनकी बदौलत आज भ्रष्टाचार का धंधा फल-फूल रहा है और भारत विश्व के भ्रष्टतम देशों की शृंखला में शीर्षतम देशों में से एक हैं।

जनता की सामूहिक रचनात्मक शक्ति के विकास के स्थान पर इस विगलित एवं महाभ्रष्ट राजनीति ने इसे अपने राजनैतिक व्यापार का अस्त्र बना लिया है। वस्तुतः आज की राजनीति सौ करोड़ जनता की पराजय का दस्तावेज है। सौ करोड़ भारतवासी अभिशप्त हैं और कुछ आदमी राजनीतिज्ञ मदमस्त। ये राजनीतिज्ञ एक आम आदमी की पीड़ा और निराशा को समझने के लिए अपनी-अपनी अट्टालिकाओं से नीचे उतरने को तैयार नहीं हैं। जो शोषण एवं पीड़ा के अभिशाप को झेलने को मजबूर हैं वे इस कदर पंगु, निकम्मे और असहाय बना दिये गये हैं कि इस झंझावात से उबरना उनके लिए दुष्कर है।

ऐसे में ज्योतिपर्व तो अब एक औपचारिकता बनकर रह गया है। अपनी परम्परागत प्रवाह की लीक में बहते असंख्य दीप अवश्य जलाते हैं, किन्तु इनकी ज्योति अंतर्मन को प्रकाशित नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप आन्तरिक अंधकार गहराता ही जाता है और हमारी कुण्ठित आशाएँ मानसिक विकृति की दशा में बहाये जा रही हैं। संक्रान्ति के परिवर्तनशील दौर में नैतिकता, मर्यादा एवं मूल्यों का पथ धुँधलके में विलीन होता जा रहा है। इससे उपजी कुण्ठा व्यक्तिगत जीवन में अर्द्धविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में वैमनस्य एवं सामाजिक जीवन में विघटन एवं टूटन के साथ चतुर्दिक् अराजकता एवं आतंक एवं अशान्ति के रूप में परिलक्षित होती है।

पारिवारिक जीवन में घुलता विष, आने वाली पीढ़ी को कुसंस्कारित ही बना रहा है। इसका दुष्परिणाम पूरे समाज और देश को भुगतना पड़ रहा है। अभिभावक अपने नौनिहालों के प्रति महान् दायित्व से, समय की कमी का रोना-रोकर, पल्ला झाड़ ले रहे हैं। उनका समय कटता है तो चौराहों की गप्प-शप में, दुनिया भर के प्रपंच-जाल में और महफिल-पार्टियों की अय्याशी एवं विलासिता में। माताएँ बाल कटाकर ब्यूटी पार्लर में प्रत्येक सप्ताह जाकर सौंदर्य के टिप्स लेना जरूरी समझती हैं। बच्चों को आया या ट्यूटरों के हवाले करके अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझने वाली ये तथाकथित आधुनिकायें यदाकदा कथा प्रवचनों में भी पधारती हैं, बर्थडे पार्टियों को भी अपनी उपस्थिति से आकर्षक बनाने की जिम्मेदारी निबाहती हैं। जिस गोद में आर्यावर्त का भविष्य खेलता दिखाई देना चाहिए उस गोद में कुत्ता घूमता है। देश का भविष्य किन संस्कारों को लेकर बड़ा होगा? विचारणीय है।

विशाल वट वृक्ष सरीखी देश की विराट् साँस्कृतिक अवधारणा भी आज खतरे में है। इसकी जड़ों पर कुठाराघात हो रहा है। इसकी टहनियों को कुतरा जा रहा है। सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए जिस वर्ण-व्यवस्था की स्थापना ऋषियों ने की थी, उसकी दुर्दशा-दुर्गति हो रही है। गुण-कर्म-स्वभाव की अपेक्षा जन्म से जाति को जोड़कर जातीय दम्भ-दुराग्रह सक्रिय है; उस पर राजनीति का रंग जातीय हिंसा के रूप में समाज को लहूलुहान किये हुए हैं। विश्व को धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता का पाठ पढ़ाने वाला राष्ट्र आज धार्मिक संकीर्णता एवं साम्प्रदायिक हिंसा के दावानल में दग्ध हो रहा है। यहाँ भी संकीर्ण साम्प्रदायिक सोच एवं राजनैतिक स्वार्थ ने धर्म के मूल भाव को कलंकित ही किया है, जिसके खूनी खेल में निर्दोष, असहाय, गरीब एवं धर्मभीरु जनता ही मोहरे बनते हैं।

ऐसे में प्रख्यात् गाँधीवादी मनीषी प्रो. रामचंद्र सिंह के ये वचन यहाँ प्रासंगिक है कि- ’कितनी ही सदियाँ बीतीं, कितने ही हमने दीप जलाये पर ज्योति पर्व मानव जीवन का अँधियारा दूर न कर सका। देश के भाग्य में अमावस्या की यह रात्रि न जाने कब और कितनी दूर तक लिखी है, यह तो भगवान् राम ही जानें। जीवन तो वायु का एक झोंका है जो दो पल का मेहमान है। जीवन और मृत्यु के बीच जो थोड़े से पल हैं, उन्हें जितनी निष्ठा और प्रेम के साथ जिया जाय, वही मानव जीवन की उपलब्धियाँ हैं। किन्तु सहस्रों दीपावलियाँ बीत गई, आशाओं की लतायें सूखी ही रही। मन की अयोध्या कभी भी दीपान्वित न हो सकी। दर्द जब तक भीतर रहता है, तभी तक वश में रहता है, बाहर आने पर यह बेकाबू हो जाता है। जिस पुनीत भूमि के लिए कहा जाता था कि, ‘गायन्ति देवा किल गीतकानि, धन्यास्तु हे भारतभूमि भागे।’ आज वह भारत भूमि नरक से भी अधिक कष्टप्रद स्थिति में है। किन्तु सोये हुए घावों को न जगाना ही उचित है। अभी ज्यादा देर नहीं हुई है। वसन्त की बयारें हमसे पूरी तरह रूठी नहीं है। पहल कौन करें? निश्चय ही हम राजनेताओं से कोई आशा रखने की मूर्खता नहीं कर सकते। चातक भी बिना पानी वाले बादलों से पानी नहीं माँगता। ‘निर्गलिताम्बुगर्भः शरद्धन नार्दति चातकोऽपि-कालिदास।’ हमें वह करना होगा जो हमारे वश में है।

हमें धर्माचरण करना होगा। बाल्मीकि ने कहा है, ‘धर्मोहि परमो लोके धर्मे सत्यम् प्रतिष्ठितम्’ अर्थात् धर्म ही संसार में श्रेष्ठ है, धर्म से ही सत्य की प्रतिष्ठ है। और धर्म का व्यावहारिक मर्म क्या है, इसे वेदव्यास ने महाभारत में स्पष्ट किया है-

श्रुयताम् धर्मसर्वस्व श्रुत्वा चैवावधार्यताम् आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्॥

सावधान होकर धर्म का वास्तविक रहस्य सुनो और उसे सुनकर उसी के अनुसार आचरण करो। जो कुछ तुम अपने लिए हानिप्रद समझते हो, वह आचरण दूसरों के साथ मत करो।

वर्तमान राष्ट्रीय संदर्भ में राजनीतिक मर्यादा हीनता ही सारे फसाद की जड़ है, उससे किसी समाधान की आशा व्यर्थ है। भर्तृहरि ने भी राजनीति को वैश्या समान कहा है। इससे सच्चाई, निष्कपटता और स्वार्थहीनता की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती है।’

वर्तमान परिस्थिति सचमुच जटिल है किन्तु युग मनीषा के अनुसार हमें जरूरत है बस थोड़ी सी समझदारी की और ढेर सारे विश्वास की। मनोवैज्ञानिक अनास्था के घोर संक्रमण काल में सौ करोड़ लोगों का देश सिर्फ मर-मरकर जीने के लिए नहीं है। घोड़ा हल में नहीं जुटता, उसकी नियति तो रणक्षेत्र में ही उतरने की होती है। हमें संघर्ष जीतना ही होगा। खोने के लिए अब हमारे पास कुछ नहीं बचा है। हमें जो कार्य मिला है, जितना हम कर सकते हैं, उसे निष्ठ पूरी लगन के साथ हम करें, यही वास्तविक पूजा, यही वास्तविक धर्माचरण है। ज्योतिपर्व तभी हमारे मन में और जीवन में कोटि-कोटि दीपों का प्रकाश स्थापित करने में समर्थ होगा, तभी जीवन कमल की पंखुड़ियाँ खिलेंगी और तभी चेतना के अंधतमस में उजाला छायेगा। भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के सर कट सकते हैं, प्यार में अगर थोड़ी सी धार हो। हमारे युगों से संजोये स्वप्न साकार हो सकते हैं यदि हमारी श्रद्धा के साथ थोड़ी सी निष्ठ का सबल आधार हो। आइये, इसी संकल्प के साथ अंतर्मन के दीप को प्रज्ज्वलित करने वाले ज्योतिपर्व के उल्लास को हृदयंगम करें।


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