गुरुकथामृत-48 - कबीरा बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ

October 2003

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“गायत्री तु पंर तत्वं गायत्री परमागतिः” (बृहत्पाराशर गायत्री मंत्र पुरश्चरण वर्णनम 4/4) के अनुसार कहा गया है कि गायत्री परम तत्व है, गायत्री परमगति है। गायत्री महाशक्ति सभी प्रकार की आपत्तियों से मनुष्य की रक्षा करती है। इसमें इतनी विलक्षण सामर्थ्य छिपी पड़ी है कि इसके दस सहस्र बार उच्चारण से साधक पर आई सारी विपत्तियों का निवारण हो जाता है। विपरीत परिस्थितियों की धारा से वाण पाने के लिए धैर्य, साहस, विवेक और प्रयत्न पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। इन चार कोनों वाली नाव पर चढ़कर ही संकट की नदी को पार करना सुगम हो जाता है। गायत्री साधना साधक में इन चार तत्वों का संवर्द्धन करती है, जिससे उसकी रक्षा भी होती चलती है एवं वह विपत्ति के समुद्र से अपनी नाव खेता निकल जाता है।

परमपूज्य गुरुदेव ने ‘गय’ अर्थात् प्राण एवं ‘व’ अर्थात् वाण करने वाली गायत्री महाशक्ति को पुनर्जीवित किया, उसका युगानुकूल प्रस्तुतीकरण किया, साथ ही उससे जुड़ी भ्रांतियों को निर्मूल कर सबके लिए इस साधना को सुगम बना दिया। समय समय पर उन्होंने इस साधना की प्रेरणा देते हुए अगणित लोगों की रक्षा की। इस संबंध में उनके कुछ पत्र इस अंक में प्रस्तुत है, जो प्रत्यक्ष प्रमाण देते है।

पहला पत्र 21-10-58 का है, जो मलाड मुँबई के श्री रजनीकाँत शुक्ल को लिखा गया है-

हमारे आत्मस्वरूप ,

पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई चि. नीला के लिए प्राणघातक जो संकट उत्पन्न किया गया था वह गायत्री माता की कृपा से टल गया। उसकी प्राणरक्षा हो गई। स्वप्न में गायत्री माता ने ही उसे दर्शन दिए है।

पत्र में स्पष्ट आश्वासन है एवं संकेत है कि संकटों से रक्षा माँ की कृपा से ही हुई है। गायत्री महामंत्र में अपरिमित शक्ति छिपी पड़ी है। यदि कोई धैर्यपूर्वक भावविह्वल हो जप करे तो उसके ऊपर आए संकट मिट सकते है। प्रतीक रूप में चि. नीला ने स्वप्न में गायत्री माँ को देखा। यह हमारी भावना ही है जो आरोपित होकर तरह तरह के भावचित्र दिखाती है। माँ के दर्शन भी उसी के परिणाम थे।

गायत्री महाशक्ति क्या नहीं कर सकती? यह आए हुए संकटों को निरस्त करने में साधक की बड़ी मदद करती है। एक पत्र में पूज्यवर यही लिखते है। यह 14/3/53 को श्री शिवशंकर को लिखा गया था-

आपका पत्र मिला। ता. 12 की घटना की सूचना मिली। अपना लक्ष्य किसी पर आक्रमण करना नहीं है, पर किसी के हमलों को निष्फल करने में बहुत कठिनाई नहीं होती। आप लोगों के संरक्षण की व्यवस्था सब ठीक है। घर में सबको आशीर्वाद कहे।

स्पष्ट आश्वासन है कि गायत्री साधना किसी को अपनी ओर से आक्रमण करना तो नहीं सिखाती, पर आए हुए हमलों को निष्फल अवश्य कर देती है। यह जो रक्षाकवच है, वह सबसे बड़ी विभूति है। गायत्री ब्रह्मास्त्र तो है, पर साधक के चारों ओर एक घेरा बनाकर रखती है एवं आज के इस लौकिक जगत में जहाँ षड़यंत्रों की भरमार है, पूरी तरह से संरक्षण की व्यवस्था बनाती है। समर्थ गुरु का, गायत्री के सिद्ध साधक का आश्रय मिल जाने के बाद तो वह सुरक्षाकवच अभेद्य हो जाता है।

25/6/64 को श्री वैजनाथ प्रसाद सौनकिया (ग्वालियर वर्तमान में दिगौडा टीकमगढ़) को लिखे पत्र में वे कहते हैं-

हमारे आत्मस्वरूप,

पत्र मिला, आपरेशन सफलता पूर्वक पूरा हो गया और भाई की स्थिति सुधर रही है, यह जानकर संतोष हुआ। आप ही नहीं, आपका भाई भी हमारा अपना बच्चा है। आप लोगों की सुरक्षा के लिए हम वही सब कुछ करेंगे जो कोई पिता अपने बालकों के लिए कर सकता है।

जीवनरक्षा के लिए हमारा कठोर आध्यात्मिक उपचार विधिवत चल रहा है। जब तक खतरे की स्थिति पूरी तरह टल न जाएगी, हम आवश्यक प्रयत्न करते रहेंगे। आप तनिक भी चिंता न करे। चि. जमुना प्रसाद की रक्षा माता करेगी।

“नमोडस्तु गुरवे तस्मै गायत्री रुपिणै सदा”- सदगुरु हमेशा गायत्री रूप में अपने शिष्य कर रक्षा करते रहते है। यहां पूज्यवर का गायत्री रूप प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है। जब गुरुसत्ता स्वयं आध्यात्मिक उपचार में तत्परतापूर्वक तप में लीन हो, किसी का क्या बिगड़ सकता है। पाठकगण समझ सकते है कि कितना आश्वस्त हुए होंगे पत्र पाने वाले। आत्मीयतापूर्ण संबोधन भी है कि आपका बच्चा हमारा बच्चा है। पिता बेटे के लिए जो कर सकता है, वही किया जाएगा। गायत्री महाशक्ति का यह बड़ा ही अद्भुत रूप है।

श्री ध्रुवनारायण जौहरी (सिवनी) को लिखे एक पत्र में उनकी कही बात गौर से पढ़ने योग्य हैं। गायत्री मृत्यु से बचाती है, कष्टों का शमन करती है एवं चूंकि हर एक की मृत्यु एक दिन होनी ही है, वह कष्टप्रद मृत्यु नहीं होने देती। हम भी तो मूर्ख है। चाहते है कि अपना प्रिय अपने पास ही रहे, पर गायत्री साधना साधक को बल देती है, जीवन पथ पर चलते हुए हर मोड़ को सुगम बना देती है।

पत्र 6/5/57 का है।

हमारे आत्मस्वरूप चि. ध्रुवनारायण आशीर्वाद। पत्र मिला, कपड़ा भी। उसके आधार पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार किया तो प्रतीत हुआ है, इस शरीर में अधिक से अधिक एक वर्ष तक चलने की क्षमता है। इनका शरीर बाहर से स्वस्थ भले ही दीखता है, पर भीतर की जीवनी शक्ति का तेल चुक गया है।

बहुत लंबी अवधि तक इनकी गाड़ी खिच सकना मुश्किल है। फिर भी जितना अधिक इन्हें ठहराना संभव होगा, उसके लिए प्रयत्न करेंगे। सम्मेलन के बाद इनकी आयुवृद्धि के लिए कुछ विशेष उपचार का प्रबंध करेंगे और तभी तुम्हारी नानी के लिए सौभाग्य रक्षाकवच बनाकर भेजेंगे। सोने के ताबीज में बंद करके उसे धारण करा देना।

पत्र में वास्तविक स्थिति का विवरण है, पर” जापर कृपा तुम्हारी होई तापर कृपा करें सब कोई “ को आधार बनाकर पूज्यवर कहते है कि एक सौभाग्य रक्षाकवच भी देंगे। यद्यपि आयु मात्र एक वर्ष ही है, उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे। ध्रुवनारायण जी की नानी उसके बाद भी पाँच वर्ष जीवित रही। सारे काम विधिवत पूरे करके गई।

औरों के कष्ट अपने ऊपर लेकर वरदान बांटकर ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस ने गले का कैंसर पाल लिया था। काया से पृथक जिसका अस्तित्व हो, उसे काया का कष्ट क्या पीड़ित करे। फिर भी लौकिक लीला स्वरूप वे झलक दिखाते रहे। रामकृष्ण वचनामृत का तीसरा खंड उनकी अस्वस्थता एवं इसी के साथ जुड़ी उनके चिकित्सक शिष्यों से हुई गूढ दर्शनपरक चर्चाओं के लिए प्रसिद्ध है। जो महासिद्ध होते है, वे ही समर्थ होते है एवं गायत्री महाशक्ति की अनुकंपा से अपने शिष्य,शिष्य समुदाय का कष्ट अपने ऊपर लेने की क्षमता रखते हैं।

ऐसा ही एक वाकया पूज्यवर के जीवन का है। पाँच दिसंबर 1967 को प्रसिद्ध कवयित्री माया वर्मा को लिखे एक पत्र में वे कहते है-

स्वास्थ्य (हमारा) ठीक है। वह अपने काबू में है। किसी दूसरे का संकट अपने ऊपर लेकर उसका बोझ हलका किया जा सकता है। इसी की बीमारी थी। प्रयोजन पूरा हो जाने पर हमारा कष्ट भी ठीक हो गया।

पूज्यवर कुछ दिन शियाटिका की पीड़ा से ग्रस्त रहे थे। समाचार माया जीजी तक भी पहुंचा। पत्र का जवाब बताता है कि उन्होंने किसी दूसरे का संकट अपने पर लिया था। उधर बीमारी ठीक हुई, इधर पूज्यवर की पीड़ा स्वतः कम हो गई। कोई अस्वस्थता नहीं थी, पर तकलीफ स्थानाँतरित हो गई, प्रकृति के भी तो कुछ नियम हैं। उनका पालन समर्थ गुरु भी करते हैं।

इसी संदर्भ में एक प्रसंग याद आया। दिल्ली के निकटस्थ परिजन की जंघा पर से तांगे का पहिया निकल गया। श्री प्रेमनाथ जी ने धोती उठाकर देखा तो खरोंच भी नहीं थी, फ्रैक्चर भी नहीं हुआ। गुरुकृपा मानकर अगले रविवार हरिद्वार आए। पूरा विवरण सुनाया। जवाब में पूज्यवर ने अपनी धोती ऊपर उठाकर कहा,” सावधान होकर चलता नहीं है। देख तेरी जांघ को तो कुछ नहीं हुआ, यह निशान देखा” एक गहरा लाल नीला सा निशान उनकी उसी जांघ पर गोलाई में बना था। यह देख अश्रुपात करते प्रेमनाथजी गुरुवर के पैरों से लिपट गए। इस घटना का साक्षी इन पंक्तियों का लेखक भी है। कुछ ही दिनों में यह निशान चला गया।

गायत्री रूप में विद्यमान सदगुरु की महिमा अनंत है। कबीरदास जी कहते हैं, “ परे से परचा भया, सब दुःख मेल्या दूरि।” परे अर्थात् पूर्ण ब्रह्म, परचा अर्थात् परिचय अर्थात् भक्त का पूर्ण ब्रह्मरूपी सदगुरु से परिचय हो गया, जिससे सारे दुख दूर हो गए। आज भी पूज्यवर व मातृसत्ता की सूक्ष्म सत्ता हमारे दुख कष्ट उसी तरह दूर कर रही है, सदैव तत्पर है।


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