सूर्यषष्ठी व्रत संदर्भ - अंतःचेतना के परिष्कार हेतु सूर्योपासना करें

October 2003

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30 अक्टूबर को मनायी जा रही सूर्य षष्ठी गायत्री साधकों के लिए अनुदानों का अक्षय कोष है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। सूर्य भगवान् की आराधना एवं उपासना से शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति एवं आध्यात्मिक अनुदान-वरदान की उपलब्धि होती है। सूर्योपासना के लिए निर्धारित तिथि को सूर्यषष्ठी के रूप में जाना जाता है। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि सूर्यषष्ठी कहलाती है। सूर्यषष्ठी व्रत मुख्यतः रोगमुक्ति, पुत्र प्राप्ति और दीर्घायु की कामना के लिए किया जाता है। श्रद्धा और भावना के संग किया गया छठ या सूर्यषष्ठी व्रत अत्यन्त लाभदायक एवं फलदायक होता है।

छठ शब्द का प्रादुर्भाव ‘षष्ठी-षष्ठ’ से हुआ है। यह सूर्य उपासना की विशिष्ट व विशेष तिथि है। सूर्योपासना को सूर्योपस्थान भी कहते हैं, इसमें सूर्य भगवान् को भाव भरा अर्घ्य चढ़ाया जाता है। इस अर्घ्यदान में वैज्ञानिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का गहन-गम्भीर रहस्य भी भरा पड़ा है, जिसे वेद, उपनिषदों एवं पुराणों में विस्तार से उल्लेख किया गया है। वैदिक साहित्य में सूर्यदेव की महिमा-गरिमा का भावभरा गायन किया गया है। इनमें सर्वसुलभ सूर्यदेव के सूक्ष्म एवं दिव्य आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए ‘सविता’ को सूर्य की आत्मा कहा गया है। गायत्री महामंत्र का सूर्य से गहरा तादात्म्य है। इस तथ्य के पीछे तीन कारण हैं-

1. गायत्री महामंत्र का देवता सविता है।

2. सूर्य उपासना सार्वभौमिक है।

3. सूर्य की उपासना-आराधना से होने वाला प्रभाव सर्वथा वैज्ञानिक एवं तथ्यपूर्ण है।

आर्य साहित्य में इस तथ्य को प्रमाणित करते हुए उल्लेख किया गया है। एक कथानक के अनुसार ‘गायत्री वरदाँ देवी-सावित्री वेद मातरम्’ प्रजापति बोले- हे देवताओं! यह जो अनेक प्रकार के वरदान देने वाली गायत्री है उसे तुम ‘सावित्री’ अर्थात् सूर्य से उद्भासित होने वाला ज्ञान जानो। इसके अतिरिक्त गोपथ उपनिषद्-5/3 में ‘तेजो वै गायत्री’ के रूप में इसका निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘ज्योति र्वै गायत्री छन्दसाम, ज्योति र्वै गायत्री, दविद्युतती वै गायत्री, गायत्र्यै व भर्गः तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्रंदाधार पदैद्वितीय यक्षरै स्तृतीयम’ के रूप में सूर्य और गायत्री के सम्बन्ध सूत्र को दर्शाया गया है। गायत्री मंत्र के ‘सवितुः’ पद में इसी एकात्मता का संकेत है।

गायत्री मंत्र सविता देव से स्वयं को एकात्म करने की गुह्य तकनीक है। गायत्री का देवता सविता सूर्य विश्व के जीवन का, ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र है। यह अन्य समस्त देव शक्तियों का मुख्य केन्द्र भी हैं। चारों वेदों में जो कुछ है वह सब भी इस सविता-सूर्य शक्ति का विवेचन-विश्लेषण मात्र है। शतपथ ब्राह्मण में ‘असौ व आदित्यो देवः सविता’ कहकर सूर्य देव की प्रतिष्ठ की गयी है। निरक्त के दैवकाण्ड-(4-31) में ‘आदित्योऽपि सवितैवोच्यते’ के रूप में सूर्यदेव की महिमा का प्रतिपादन मिलता है। स्कन्द पुराण में सविता की गायत्री के साथ एकरूपता-समरूपता प्रदर्शित की गयी है। सूर्य आदि देव हैं। सूर्योपनिषद् में सूर्य को ‘सूर्य देवस्वरूप’ कहा गया है। भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण-अर्जुन के संवाद में सूर्य को त्रिदेवों के गुणों से विभूषित किया गया है। इस संवाद के अनुसार सूर्य उदयकाल में ब्रह्म, मध्याह्न काल में महेश्वर और सायंकाल में विष्णु रूप हैं।

अन्य शास्त्रों में सूर्यदेव को इस तरह अलंकृत किया गया है-’सूर्य वै सर्वेषाँ देवानामात्मा’ अर्थात् सूर्य ही समस्त देवों की आत्मा है, ‘सर्वदेवामय रविः’ अर्थात् सूर्य देवमय हैं। मनुस्मृति का वचन है- ‘आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टरन्नं ततः प्रजाः’। सूर्य से वर्षा, वर्षा से अन्न और अन्न से प्रजा (प्राणी) का जन्म होता है। पौराणिक कथानकों के अनुसार सूर्य महर्षि कश्यप के पुत्र होने के कारण ‘काश्यप’ कहलाये। उनका लोकावतरण महर्षि की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ, अतः उनका एक नाम ‘आदित्य’ भी लोकविख्यात एवं प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों में आदित्य को ब्रह्म के प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है। छान्दोग्योपनिषद् ‘आदित्यो ब्रह्म’ कहता है तो तैत्तिरियारण्यक ‘असावादित्यो ब्रह्म’ की उपमा देता है।अथर्ववेद की भी यही मान्यता है। इसके मतानुसार आदित्य ही ब्रह्म का साकार स्वरूप है।

ऋग्वेद में सर्वव्यापक ब्रह्म तथा सूर्य में समानता का स्पष्ट रूप से बोध होता है। यजुर्वेद सूर्य और भगवान् में भेद नहीं करता। कपिला तंत्र में सूर्य को ब्रह्मांड के मूलभूत पंचतत्त्वों में से वायु का अधिपति घोषित किया गया है। हठयोग के अंतर्गत श्वास (वायु) को प्राण माना गया है और सूर्य इन प्राणों का मूलाधार है, अतः ‘आदित्यौ वै प्राणः’ कहा गया है। योग साधना में प्रतिपादित मणिपूरक चक्र को ‘सूर्यचक्र’ भी कहते हैं। हमारा नाभिकेन्द्र (सूर्यचक्र) प्राण का उद्गम स्थल ही नहीं बल्कि अचेतन मन के संस्कारों तथा चेतना का संप्रेषण केन्द्र भी है। सूर्यदेव इस चराचर जगत् में प्राणों का प्रबल संचार करते हैं- ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येषं सूर्यः’। सूर्य भगवान् को मार्तण्ड भी कहते हैं क्योंकि ये जगत् को अपनी ऊष्मा तथा प्रकाश से ओतप्रोत कर जीवनदान देते हैं। सूर्यदेव कल्याण के उद्गम स्थान होने के कारण शम्भु कहलाते हैं। भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत् का संहार करने के कारण इन्हें त्वष्ट भी कहते हैं। किरण को धारण करने वाले सूर्य देव अंशुमान् के नाम से भी जाने जाते हैं।

योगशास्त्र में पतंजलि उल्लेख करते हैं कि ‘भुवनज्ञानं सूर्य संयमात्’ अर्थात् सूर्य का ध्यान उपासना करने से समस्त संसार का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। सूर्य कालचक्र के महाप्रणेता हैं। सूर्य से ही दिन-रात्रि, मास, अयन एवं संवत्सर का निर्माण होता है। भारतीय संस्कृति में किसी वार का प्रारम्भ सूर्योदय से ही होता है। भारतीय सूर्योपासना के मूल में आध्यात्मिक लाभ के अलावा शारीरिक स्वास्थ्य एवं भौतिक लाभ का भाव भी निहित मिलता है। यह कई प्रकार के रोगों से रक्षा करता है। सूर्य की दिव्य किरणों में कुष्ठ तथा अन्य चर्मरोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की अपार क्षमता एवं शक्ति सन्निहित है। इसी कारण ऋग्वेद में कहा गया है- ‘आदित्यासो जगत्स्या देवा विश्वस्य भुवनस्य गोपाः’ अर्थात् सूर्य किरणें सारे चराचर संसार की रक्षा करती हैं। ऋग्वेद में सूर्य की रश्मियों को हृदयरोग तथा पीलिया की चिकित्सा में लाभकारी बताया गया है। कुष्ठरोग का शमन भी सूर्यदेव की कृपा से हो जाता है। श्रीकृष्ण एवं जाम्बवती के पुत्र साम्ब सूर्य की उपासना से ही रोगमुक्त हुए थे। कृष्ण यजुर्वेदीय ‘चाक्षुषोपनिषद्’ में सभी प्रकार के नेत्ररोगों से मुक्ति का उपाय बताया गया है। तंत्रशास्त्र की मान्यता है कि नित्य सूर्य नमस्कार करने पर सात पीढ़ियों से चली आ रही महादरिद्रता दूर हो जाती है। सूर्य नमस्कार स्वयं में सूर्य आराधना भी है और स्वास्थ्य का व्यायाम भी। इससे अनेक प्रकार की बीमारी एवं विकृतियों का निराकरण एवं शमन होता है।

इन्हीं कारणों से सूर्य को आरोग्य का देवता कहा गया है और उसकी किरणों को पवित्र, तेजस्वी एवं अक्षत माना गया है। सूर्य रश्मियाँ नदी की निर्मल धारा के समान पावन है जो अपने संपर्क सान्निध्य में आने वाले हरेक व्यक्ति को तेजस्विता, प्रखरता एवं पवित्रता से भर देती हैं। सूर्योपासना आरोग्य की रक्षा करने के अलावा अन्तःकरण की चट्टानी मलिनता एवं कषाय-कल्मषों को धोकर रख देती है। ‘आरोग्य भास्करादिच्छेन’ से स्वतः ही विदित होता है कि सूर्य आरोग्य प्रदान करने वाले देवता हैं।

यह आरोग्य केवल शरीर के धरातल पर ही सीमित व सिमटा नहीं है वरन् मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर प्रभाव छोड़ने में समर्थ एवं सक्षम है। अतः सूर्योपासना सभी रूपों में लाभदायक है।

सूर्योपासना भिन्न-भिन्न रूपों में अनादिकाल से भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि समस्त विश्व के विभिन्न भागों में भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक की जाती रही है। अमेरिका के रेड इंण्डिनों द्वारा आबाद क्षेत्रों में सूर्य मंदिर प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। कई प्रकार की सूर्य गाथाएँ हवाई द्वीप, जापान, दक्षिण अमेरिका तथा कैरिबियन द्वीपों में प्रचलित हैं, जो बताती हैं कि सूर्य सबका उपास्य रहा है। चीन के विद्वान् सूर्य को ‘याँग‘ मानते हैं। जापान सूर्य पूजक राष्ट्र है तथा दिनमान का आगमन सर्वप्रथम उसी देश से हुआ माना जाता है। बौद्ध जातकों में सूर्य का प्रसंग वाहन के रूप में स्थान-स्थान पर आया है तथा अजवीथि, नागवीथि और गोवीदि नाम के मार्गों के आधार पर उसकी तीन गतियाँ मानी गयी हैं। इस्लाम में सूर्य को ‘इल्म अहकाम अननजुमे’ का केन्द्र माना गया है। अर्थात् सूर्य इच्छा शक्ति को बढ़ाने वाली चैतन्य सत्ता के प्रतीक हैं। ईसाई धर्म में न्यूटेस्टामेण्ट में सूर्य के धार्मिक महत्त्व का विशद् एवं विस्तृत वर्णन है। सेण्टपाल ने इसीलिए रविवार का दिन पवित्र घोषित कर इस दिन प्रभु की आराधना दान दिये जाने आदि को अत्यन्त फलदायी माना है। ग्रीक और रोमन विद्वानों ने भी इसी दिन को पूजा का दिन स्वीकार किया है।

यद्यपि कालचक्र के दुष्प्रभाव से वर्तमान समय में सूर्योपासना की परम्परा का अत्यन्त ह्रास हो गया है, परन्तु फिर भी धर्म प्रधान भारत वर्ष में सनातन धर्मी जनता आज भी किसी न किसी रूप में सूर्य को देवता मानकर उनकी पूजा अभ्यर्थना करती है। इसी क्रम में सूर्यषष्ठी व्रत को मनाया जाता है। बिहार एवं झारखण्ड की जनता इस पावन तिथि को ‘छठपूजा’ के रूप में अत्यन्त श्रद्धा-उत्साह एवं उमंग के साथ मनाती है। वाराणसी एवं पूर्वांचल में इसे ‘डालछठ’ कहा जाता है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर फलाहार किया जाता है। पंचमी में दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी नदी या सरोवर में स्नान करके अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इसके पश्चात् अस्वाद भोजन किया जाता है। गायत्री महामंत्र का भावभरा उच्चारण कर विविध पूजोपहार वस्तुओं से सूर्य अर्घ्यदान दिया जाता है तथा अपनी मनोकामना की जाती है।

छठ पुत्र प्राप्ति की कामना की पूर्ति करता है। अतः इसका सम्बन्ध षष्ठी माता से जोड़ दिया गया है। षष्ठी देवी दुर्गा का ही प्रतिरूप है। इसलिए छठ व्रत के अवसर पर सूर्यदेव और षष्ठीमाता के प्रति समान भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। इस व्रत को सर्वप्रथम च्यवन मुनि की पत्नी सुकन्या ने अपने जराजीर्ण अन्ध पति की आरोग्यता के निमित्त किया था। व्रत के सफल अनुष्ठान के सुप्रभाव से ऋषि को नेत्र ज्योति प्राप्त हुई और वे जराजीर्ण वृद्ध से युवा हो गये। ऐसी मान्यता है कि आज भी गायत्री महामंत्र का जप करते हुए नियमपूर्वक 12 वर्ष यह व्रत निरन्तर करता है उसकी इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है। सूर्यषष्ठी में गायत्री मंत्र के जप एवं सूर्यध्यान करने से सहज ही आन्तरिक चेतना परिष्कृत होती है और पवित्रता-प्रखरता में अभिवृद्धि होती है।


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