स्वर्ग और नरक अपने ही हाथ में

July 1990

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अन्तःकरण की पवित्रता स्वर्ग और उसकी मलिनता ही नरक है। इन दोनों दशाओं का भोग करने के लिए मनुष्य को अन्यत्र किसी लोक में नहीं जाना पड़ता। वह इन दोनों ही अवस्थाओं को अपने अन्तःकरण वाला मानो नरक की विभीषिका लिए फिरता है। पवित्र अन्तःकरण की स्थिति के माध्यम से घर में-बाहर,सोते जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते हर समय भोगता रहता है।

पवित्र अन्तःकरण वाला मनुष्य मानो अपनी जेब में स्वर्ग डाल कर घूमता है और मलिन अन्तःकरण वाला मानो नरक की विभीषिका लिए फिरता है। पवित्र अन्तःकरण का अर्थ है एक पुलक, एक सिहरन, एक अलौकिक सुख, एक आनन्द तथा मलिन अन्तःकरण का अर्थ है एक त्रास, एक यंत्रणा, भयानक अस्त–व्यस्तता, एक जलन। दोनों में एक अनुकूल है, अभीष्ट है, दूसरा प्रतिकूल है, त्याज्य है।

पाप से बचना है, ताप से अपनी रक्षा करनी है, आनन्द की अनुभूति पानी है, देवत्व का अनुभव करना है तो अन्तःकरण को परिष्कृत करना होगा। दुष्प्रवृत्तियों की कँटीली झाड़ियोँ उखाड़ कर सद्विचारों के सुन्दर, सुकुमार प्रसून बोने होंगे।

स्वर्ग और नरक जाना अपने हाथ में है। अन्तःकरण की अवज्ञा कर अंतर्दृष्टि की आग में जलना और नरक और आत्म प्रताड़ना सहना भी अपने ही हाथ है। यह हम पर ही निर्भर करता है, हम अपने लिए क्या निर्धारण करते व क्या कदम उठाते है?


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