निर्लोभता का जादू भरा असर

July 1990

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“मुझे खेद है कि मैं आपका मुकदमा नहीं ले सकता।” बड़ी शांति से वकील साहब ने कहा और सामने मेज पर रखी फाइल को रखने वाले की ओर खिसका दिया।

“आप एक बार पूरी बात समझ लें।” अनुनय की गई और साथ ही जेब से नोटों की गड्डी निकाली गई- “आपकी फीस में अभी दे दूँगा, सामान्य से कुछ ज्यादा ही। आपकी मैंने बहुत प्रसिद्धि सुनी है, इसलिए मैं सीधा आपके पास आया।

आपकी बात ठीक है किन्तु मैं इस तरह के केस नहीं लेता। मान लो आप केस जीत भी जाएं तो क्या होगा उस बेचारी बूढ़ी विधवा का? नहीं भाई यह मेरे से न होगा। अच्छा होगा आप अपनी चाची की सेवा करें, मरने पर न केवल सम्पत्ति मिलेगी बल्कि फलने-फूलने का आशीर्वाद भी।

क्या करता बेचारा सुनने वाला! सोचने लगा विचित्र है ये वकील भी। संसार में सभी तरह के मनुष्य हैं। उन्हीं में इसकी भी एक अलग खोपड़ी है। नहीं तो कोई वकील कहीं घर आई फीस लौटाता है। पर किया क्या जाय, उनकी सनक का कि झूठे मुकदमे नहीं लड़ेंगे। कई बार तो चलते केस को बीच में छोड़ दिया, क्योंकि पता लगा कि उन्हें जो कुछ बताया गया, वह ठीक नहीं था। ऐसा नहीं था कि मुवक्किल को उनकी यह सनक मालूम नहीं थी। मालूम होने पर भी उसने सोचा, शायद दूनी फीस का लालच उसे केस की पैरवी करने के लिए विवश कर दे।

अभी वह कुछ कह पाता इसी बीच सूट के ऊपर गाउन पहने एक व्यक्ति ने चिक उठाई और अन्दर आ गया। आने वाला पहनावे से वकील लगता था और उसकी बेतकल्लुफी बता रही थी कि वह इन वकील का मित्र है।

आप न्यायालय रोज आते ही हैं। बिना फीस वाले मामले भी देखते हैं, फिर रुपये क्या काटते हैं आपको? जो आपको ही मुकदमा देना चाहते, उन्हें क्यों निराश करते हैं जबकि आपके पास समय भी है, आगन्तुक ने बैठते हुए पूछा। मुवक्किल का उतरा हुआ चेहरा देखकर उसने भाँप लिया था कि मामला क्या है?

न्यायालय तो मैं आता हूँ सीखने! उन्होंने आगन्तुक के चेहरे को पढ़ते हुए कहा। वकील के लिए यह निहायत जरूरी है कि वह अध्ययन करता रहे तथा जटिल केसों की पैरवी बहस करता रहे। पेट के लिए तो परिश्रम करना ही पड़ता है, कमाना भी जरूरी है। जो असमर्थ हैं, उनकी थोड़ी सहायता अवकाश के क्षणों में कर देना कोई बुराई तो नहीं। किन्तु मैं मानता हूँ, अन्याय का पक्ष लेकर धनोपार्जन सचमुच व्यक्ति को काट लेता है।

धन काट लेता है? आगन्तुक गंभीर हो गये। बैठा हुआ मुवक्किल दोनों के चेहरे बारी-बारी से ताक रहा था। इसके पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। रुपये भी किसी को काटते हैं, आपकी खोपड़ी ही कुछ विचित्र किस्म की है। मित्र ने अपने दोस्ताना अन्दाज में कहा।

रुपये मनुष्य को चाकू की तरह अथवा कुत्ते की भाँति तो नहीं काटते हैं, किन्तु, वकील साहब ने गंभीर स्वर में कहा- “वे स्वास्थ्य, आचरण, समय, संयम अथवा नम्रता को अवश्य काट लेते हैं और मेरे हिसाब से इनकी क्षति शारीरिक क्षति से अनेकों गुना ज्यादा है।

अब आप पहेली मत बुझाइए। मित्र ने हँसते हुए कहा। लेकिन बात समझने लायक है, यह उन्हें लगने लगा था। इसलिए अपनी कुर्सी पर वे अधिक स्थिर हो कर बैठ गए।

उपयोग से अधिक धन होगा तो उपभोग करने की सूझेगी। वकील साहब ने कहा-”विलासिता बढ़ेगी। आलस्य बढ़ेगा। कहीं मन सावधान र रहा तो संयम-सदाचार पर विपत्ति आ पड़ेगी। यह न भी हो तो भी प्रमाद में समय जाएगा और भोग में रोग तो रखे ही रहते हैं। इतने पर भी खैर कहाँ? एक की विलासिता के उन्माद का मतलब है दूसरी जगह दरिद्रता का करुण विलाप। फिर अन्याय का पक्षपात व्यक्ति और समाज दोनों की जड़ें खोद कर ढहा देगा।

“आप अकेले के प्रयास से तो यह रुकेगा नहीं। अच्छा हो कुछ संतान के लिए संग्रह करें और शेष लोकोपकार में लगा दें। दान भी तो धर्म ही है” मित्र ने साधारण स्वर में कहा, क्योंकि उन्होंने न सोचा होगा, यह आशा कोई कैसे कर सकता हैं।

“संतानें अपना प्रारब्ध लेकर आती हैं फिर उन्हें पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। पैतृक संपत्ति पाकर कितने युवक सुपथ पर रह पाते हैं, यह आपसे छिपा नहीं है।” वकील साहब ने कहा, “समर्थ होने तक मैं संतति का पालन रक्षण, शिक्षण कर्तव्य मानता हूँ, किन्तु उनके लिए धन संचय के लिए न्याय, अन्याय को भुला बैठना मोह के अलावा और कुछ नहीं है।”

“लोकोपकार-दान? “मित्र का प्रश्न उभरा। “अधर्म से धर्म नहीं होता और लोभ अधर्म है”। वह कर रहे थे- “जितना उपलब्ध है, उसी की सीमा में धर्म करना तो मनुष्य का कर्तव्य है, किन्तु अधिक संग्रह करके दान-लोकोपकार सिर्फ अभिमान भर है। यथेच्छ अथवा अहंकार की प्रेरणा है। अन्यथा लोकों का जिसने निर्माण किया है, उन विश्वम्भर के रहते मनुष्य के अभिमान की क्या बिसात?” सुनकर मित्र ने हँसते हुए कुछ खीझे स्वर में कहा- “भाई आपको समझा पाना असम्भव है। उत्तर में उन्होंने भी हँसकर कहा-”इसमें एक शब्द और जोड़ दीजिए “गलत” अर्थात्- मित्र महोदय ने विस्मयपूर्वक उनकी ओर देखा। मेरा तात्पर्य यह है कि समझा पाना असम्भव नहीं है- कहने की जगह कहना चाहिए कि गलत समझा पाना असम्भव है।

ओह! कहकर वह कुछ क्षण रुके फिर पास की कुर्सी पर बैठे मुवक्किल को देखकर कहा- इनका केस आपके न लेने पर भी तो कोई न कोई तो लेगा नहीं। बात जहाँ की तहाँ। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ा करता।

कोई बात नहीं, मत फूटने दीजिए भाड़ को मनुष्य का सहज धर्म, व्यक्तित्व का निर्माण। उसे निभा रहा हूँ कि नहीं। किसी सत्पुरुष का कथन है- “अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।” बस इसी कथन के मुताबिक मेरा आचरण आत्मपरिष्कार के लिए है।

“इसमें संसार की सेवा कहाँ से बन पड़ी मित्र के स्वर में कुछ व्यंग आ गया था। “जब व्यक्ति अपने आचरण को पूर्णतया आदर्शोन्मुखी बनाने का प्रयास करता है। जब वह अपने आचरण, व्यवहार से यह प्रमाणित कर देता है कि आज भी लोभ, मोह, लालसाओं, वासनाओं को ठुकराकर, वैभव में लात मारकर सुख चैन की जिन्दगी जीना संभव है तब औरों का भी साहस जगता है, उनके भी कदम इस राह पर मुड़ते और बढ़ते हैं। क्या यह समाज की सेवा नहीं हुई।” “आपको देखकर आज तक किसी के कदम मुड़े हैं कोई कुछ कहे, इसके पहले मुवक्किल बोल पड़ा “मेरे”‘.........। इस एक अक्षर के जादू से अवाक् होकर आगन्तुक ने उसकी ओर देखा और हकलाते हुए उसके भी मुख से एक शब्द निकल पड़ा ....के......के क्या?

मैं काफी देर से आप दोनों की बातें गौर से सुन रहा था। अपनी स्थिति और वकील साहब की स्थिति पर विचार भी करता रहा। मुझे लगा एक ये हैं जिसमें शायद लोभ के अलावा कुछ नहीं है। मुझे तो चाची की जायदाद मिलनी ही थी। पर लोभी को सब्र कहाँ,? जिसने मुझे गोद में खिलाया - उसी से मुकदमा लड़ने लगा। किन्तु आज मेरी आँखें खुल गई। अब दोनों मित्रों ने एक साथ पूछा। साहब कहने वाले बड़बोले तो बहुत देखे - पर आप जैसा आचरण नहीं पाया। अब आपकी बात मान चाची की सेवा करूंगा, उनका उत्तराधिकारी तो मैं स्वयमेव हूँ। कहकर उसने झुककर वकील के पैर पकड़ने चाहे पर उन्होंने बीच में ही थाम लिया। आँसू भरी आँखों से उसने सिर झुकाया, नोट और फाइल उठाकर चल पड़ा।

अकस्मात हुए इस परिवर्तन को देखकर मित्र के मुख से निकल पड़ा - माफ करना भाई-यह तो सचमुच समाज की सेवा हो गई, कहकर वह भी हाथ मिलाकर चल पड़े। अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है, के आदर्श को मूर्त करने वाले वकील थे- देशबन्धु चितरंजनदास - जिनके आचरण ने अनेकों में जीवन जीने की दिशा सुझाई।


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