“उठो! यह समय सोने का नहीं है”

July 1990

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अचानक दरवाजा खुलने की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। पुस्तक से सिर उठा कर देखा तो डाकबंगले का चपरासी सामने खड़ा था। उसकी ओर देखते हुए पूछा कहो क्या कहना है? “साहब कोई आपसे मिलना चाहता है टूटी-फूटी अँग्रेजी में चपरासी का जवाब था।”

उसने कैलेंडर की ओर देखा’ सन् 1937 चल रहा था। कुछ हिसाब लगाते हुए वह होंठों में बुदबुदाया आज तीन महीने हो गए। ठीक तीन मास पूर्व वह भारत की ब्रिटिश सरकार के निमन्त्रण पर अमेरिका से चला था, उद्देश्य था-आधुनिक मनोविज्ञान पर आयोजित भाषण श्रृंखला में बोलना। प्रत्यक्ष में तो मकसद यही था पर परोक्ष में उसने अनेकों आशाएँ सँजोई थीं। कुछ सीखना चाहता था अभी तक वह यही पढ़ता आया था कि विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है जिसने मानवीय चेतना पर सर्वाधिक काम किया है। स्वयं भी उपनिषदों, पुराणों, शास्त्रों को कितना कुछ नहीं पढ़ा किन्तु....! वह आगे कुछ सोचता कि इसके पहले श्वेत पैण्ट कमीज पहने एक युवक ने कमरे में प्रवेश किया। विदेशी परिधान में वह भारतीय था’।

ओह! आप! बैठिए! एक ही वाक्य को तीन खण्डों में विभक्त कर बोलने के साथ ही उसने पास की कुर्सी की ओर इशारा किया।”

“मैंने आपके बारे में बहुत कुछ सुन रखा है थोड़ा बहुत पढ़ा भी है। सुना है आपने स्वप्नों पर मन की गहराइयों पर काफी काम किया है! मेरी अपनी भी एक समस्या है। समस्या का निराकरण और आप से मिलने का लोभ दोनों के सम्मिलित आकर्षण से आप तक खिंचा चला आया।”

“बताइए उसने सहज भाव से कहा।”

“मुझे कोई पुकारता है, उठो! समय सोने का नहीं है। जब में प्रगाढ़ निद्रा में होता हूँ तो कोई मेरा नाम लेकर स्पष्ट पुकारता है। उसने बतलाया सदा वह मुझे दो बार पुकारता है। हृदय से उठती है पुकार -कहती है “उठो!”

“आप को स्मरण है उस समय कैसे स्वप्न देखते हैं? मनोवैज्ञानिक ने पूछा।”

“हाँ ध्यान आया नीले प्रकाश के सागर जैसा आकाश और उसमें अद्भुत ढंग से मेरे पास आती हैं और साथ ही एक अलौकिक संगीत के स्वरों में पुकार। अच्छा सुनने वाले के स्वर में कुछ आश्चर्य था। उसने अब तक अनेकों स्वप्नों की मीमाँसा की है पर ऐसा स्वप्न? युवक आगे बोला “मुझे स्वयं आश्चर्य है, जब यह पुकार आती है मेरी गाढ़ी निद्रा पहली ही पुकार में टूट जाती है। उसने बताया परन्तु आँखें खोलने या सिर उठाने के पूर्व ही दूसरी बार पुकार आती है। दूसरी बार का पुकारना मैं सदा जागकर पूरी सावधानी से सुनता हूँ।”

“जब आप उठते हैं, आप को कैसा लगता है?” मनोवैज्ञानिक ने बीच में पूछा।

जब-जब में पुकार सुनता और स्वप्न देखता हूँ उठने पर अपने को एक अद्भुत आनन्द में डूबा पाता हूँ।’ मनोवैज्ञानिक की आशा के सर्वथा विपरीत उसने बताया-हमेशा की अपेक्षा दुगुनी स्फूर्ति रहती है, मन प्रसन्न रहता है।

दुबारा नींद आने में कितना समय लगता है? उसने फिर पूछा यह सर्वदा मेरी इच्छा पर रहा है। उसने फिर मनोवैज्ञानिक की इच्छा के विपरीत उत्तर दिया-कभी मैं लघुशंकादि कर दस पन्द्रह मिनट बाद सोता हूँ, कभी केवल सिर उठाकर देखकर एक मिनट बाद सोता हूँ और कभी तो नेत्र भी नहीं खोलता। सोने का प्रयत्न करते ही निद्रा आ जाती है पहले की भाँति प्रगाढ़ निद्रा।

समस्या टेढ़ी है। उसने गम्भीरतापूर्वक कहा शायद मैं अभी मानव मन की गहराइयों को ठीक से नहीं जान सका हूँ। मैं यहाँ कुछ सीखने आया था। सुना था भारत ऋषियों का देश है उसके स्वरों में कुछ विवशता थी। अब ऋषि नहीं आगन्तुक युवक अपना वाक्य पूरा करता इसके पूर्व डाक बंगले का चपरासी अन्दर आया और उत्साह भरे स्वर में बोला साहब कुछ ही किलो मीटर दूर पहाड़ पर एक ऋषि रहते हैं। मिलना चाहेंगे? वह शायद कोई वस्तु उठाने आया था, सुनकर बोल पड़ा। दोनों अवाक् हो उसके चेहरे पर देख रहे थे। फिर उन्होंने एक दूसरे की आँखों में देखा और हाँ कहने के साथ जाने की योजना बन गई।

अगले दिनों वह अरुणाचलम् कहे जाने वाले पहाड़ के पद प्रान्त में एक कोपीनधारी किंचित प्रौढ़ के पास बैठे थे। अद्भुत था दृश्य-हिंसक जानवर भी शालीन हो बैठे थे। मनुष्यों और पशुओं को एक साथ अनुशासित बैठे देख उसने जो कुछ पढ़ा था साकार होता लगा। संक्षेप में पूरी बात कही।

महर्षि कहे जाने वाले इस महामानव ने तनिक हँसते हुए कहा आप लोगों ने मन को दो भागों में बाँटा है बहिर्मन-अंतर्मन। परन्तु भारतीय मनोवैज्ञानिक चार भाग करते हैं, मन बुद्धि चित अहंकार। उन्होंने अपनी व्याख्या सुनाई। जगते समय हम संकल्प करते हैं और उसके अनुसार काम करें या न करें यह निर्णय भी करते हैं। आपने इन दोनों को बहिर्मन का काम माना है। पर भारतीय मानते हैं कि संकल्प करना मन का काम है और निर्णय करना बुद्धि का।

मनोवैज्ञानिक को अभी कुछ नहीं बोलना था। वह कहते गए-अंतर्मन को भारतीय चित्त कहते हैं। उसकी व्याख्या और कार्य की मान्यता में कोई मतभेद नहीं। वह संस्कारात्मक स्मृतियों का भण्डार है। सपने में वही कार्यरत होता है। परन्तु उसमें निर्णय की शक्ति न होने से स्वप्न में ऊँट के धड़ पर बकरी का सिर या बकरी के हाथी जैसी सूँड़ इसी अव्यवस्था की उपज है।

“अब भी मनोवैज्ञानिक कुछ बोले नहीं। वे गम्भीरता से सुन रहे थे। उन्होंने बताया सामान्य अवस्था में बहिर्मन और निर्णायक मन (बुद्धि) सो जाते हैं। अंतर्मन भी सो जाये तो प्रगाढ़ निद्रा आएगी। अंतर्मन जागता रहे तो स्वप्न दीखेंगे परन्तु किसी कारण केवल बहिर्मन सो जाय और अंतर्मन के साथ निर्णायक मन (बुद्धि) भी जागता रहे तो मनुष्य जाग्रत के समान व्यवस्थित रूप से काम करने लगेगा।”

“यद्यपि पश्चिमी चिन्तन के लिए” “अहं” को समझना कठिन है फिर भी कोशिश करो” वह बताने ड़ड़ड़ड़ सुना होगा जब कोई समाधि लगा लेता तब हृदय की गति खून का प्रवाह तक बन्द हो जाता है। समाधि का अर्थ है मन के सभी कार्यालयों को बन्द कर देना। शरीर का अन्तबर्हिः संचालन मन के द्वारा ही होता है। मन के इस संचालन भाग को, जो गहरी नींद में भी सदा जागता रहता है अहंकार कहते है।”

“बात समझ में आ रही थी” सुनकर वह बोले “आपने तो मन की व्याख्या ही अनूठी कर दी। पर इनकी समस्या?” उसका इशारा युवक की ओर था। वह भी उनकी बात को गहराई से सुन रहा था इनकी समस्या विश्व चेतना से जुड़ी है।” स्वरों में स्पष्टता के साथ सौम्यता थी।

“विश्व चेतना?” उसका वैज्ञानिक मन बोल उठा! “हाँ! मन यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होता है परन्तु सब ड़ड़ड़ड़ अपने आप में समेटने वाला विपुल ब्रह्मांड व्यापी एक समष्टि मन भी है। इसी की संचालक विश्व द्वारा जीवनोद्देश्य समझाती है। बताती है मनुष्य वैसा कुरूप भौंड़ा बनने के लिए नहीं है उसे अपने जीवन को, दिव्य व्यक्तित्व को परिष्कृत बनाना है। अन्तर की पुकार तम की तमिस्रा त्याग सत्य में प्रवेश करने का संकेत मात्र है। सुनहला सूर्य परम सत्य का प्रतीक है और नीला आकाश देवत्व की दिव्य चेतना का। पुकार का तात्पर्य है कि देवत्व ही सत्य है जीवन में इसी को लाना है। इसे लाए बिना चैन की नींद हराम है”

“मनोवैज्ञानिक आश्चर्यचकित थे। उनके आश्चर्य को परखते हुए महर्षि ने-युवक की ओर इशारा करते हुए कहा “पुकार सिर्फ इन्हीं के लिए नहीं है। सभी के लिए है। हर एक को अपने जीवन में सोते-जागते संकेत मिलते हैं। घटनाएँ घटती हैं सिर्फ यह बताने के लिए बहको मत, छलावे में मत आओ-तुम पशु नहीं अमृत पुत्र हो। जीवन बीज की तरह बन्द है। इसे जीने का मतलब है कर्तव्य की वेदी पर आत्मदान कर वृक्ष की तरह पुष्पित दिव्यता की सुरभि बिखेरना। मनुष्य में देवत्व का उदय मानवी चेतना का रहस्य है। इसे ही समझना और क्रियान्वित करना है।”

धन्य हो गया मनोवैज्ञानिक सफल हो गई उसकी भारत यात्रा। मनोविज्ञान के संसार में सर्वप्रथम सामूहिक मन की घोषणा कर मनुष्य में दिव्य जीवन की प्रेरणा भरने वाले मनोवेत्ता थे, कार्लगुस्ताव जुँग और मानवी चेतना के मर्मज्ञ वे ऋषि थे-महर्षि रमण। वैसा ही संक्रान्ति काल आज भी है और हम सबके मन को पुनः महाकाल की पुकार नींद से उठ बैठने का संकेत दे रही है।


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