अज्ञान का कारण अलगाव

July 1990

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“माँ! हम लोग अलग-अलग सुदूर एकान्त में तप हेतु जाना चाहते हैं।” समूह में से एक युवा संन्यासी ने सकुचाते हुए विनय भरे स्वरों में याचना की। उसके स्वर सभी के दिलों में उमड़ रहे भावों को उड़ेल रहे थे।

“अलग-अलग।” जैसे उन्होंने इसके अतिरिक्त और कुछ सुना ही नहीं। इधर कई दिनों से जब से वह तीर्थ यात्रा करके लौटी बड़ी व्यथित-सी रहने लगी थी। मानों तीर्थ भ्रमण करके व्यथा बटोरी हों। उफ / क्या दशा हो गई है आज देश की। हर कहीं दिखाई दे रही है उसकी बेहाली। एक-एक दाने के लिए तरसते भूखे-नंगे इन्सान। पर्याप्त श्रम करके जिन्होंने अपनी हड्डियों से लहू की बूँदें तो निचोड़ी हैं पर रोटी के लिए मोहताज हैं। स्टेशनों पर जूठे पत्तलों के लिए कुत्तों से होड़ लगाते बच्चे। नारियाँ जिनकी किस्मत के अक्षरों में आजन्म कारावास गुलामी बेबसी, सिसकियाँ, घुटन इसके सिवा कुछ और बचा ही नहीं है।

क्या यही है वह भारत? वह अपने कल्पना नेत्रों के सामने उभर रहे वर्तमान भारत की तुलना सुदूर अतीत से करने लगी। नहीं नहीं कुछ और भी है वर्तमान में वे आलीशान कोठियाँ एक से एक बढ़कर कीमती आलीशान सामानों के ढेर उन्हें तो नाम भी नहीं मालूम। कहाँ से आते हैं ये सब? क्या कमी है आज के भारत में? वही धरती है ठीक वही रत्नगर्भा, स्वर्णगर्भा। लहलहाती फसलें, मीठे पानी के स्रोत, गंगा, यमुना, घाघरा, नर्मदा सब कुछ पहले जैसे हैं। बूढ़ा हिमालय उसने तो जैसे न बदलने की कसम खा रखी है। अपनी अगाध जल राशि को सर्वहित के लिए समर्पित करता हुआ सागर वह भी वही। सभी एक सूत्र में बँधे रहना चाहते हैं सिवा इन्सान के। कितना बदल गया है इन्सान जिसकी एक ही रट है “अलग-अलग”।

“क्या सोचने लगी माँ?” पूछने वाला उन्हें इस तरह चुप्पी साधते देख सहम गया था। कहीं उसकी बात से उन्हें कष्ट तो नहीं पहुँचा। वह इन सभी के अन्तर की गहराइयों में छुपी श्रद्धा का घनीभूत रूप थी और ये सभी तरुण उच्चशिक्षित, प्रखर मेधा सम्पन्न, दृढ़ शरीर बल के घनी जिनका चरित्र वज्रवत दृढ़ था। सब ने जीवन के उच्चत्तर सोपानों पर आरूढ़ होने के लिए गृह त्याग किया था। अभी कुछ ही वर्षों पहले उनके पथ प्रदर्शक, गुरु आराध्य कुछ भी कहें देह त्याग कर महाकारण में विलीन हो गए थे। अब उन सब की राह का एकमेव दीपक यही गुरु माता थी, जिन्हें ये सभी प्यास से माँ कह कर पुकारते थे। “माँ!” इस एक शब्द में कितनी मधुरिमा छुपी है। यों आयु की दृष्टि से वह यही करीब चालीस-बयालीस के आस-पास रही होगी किन्तु उनके हृदय से निरन्तर वात्सल्य की पयस्विनी प्रवाहित होती थी, जिसका मृदुल स्पर्श अनेकों में नए प्राण भरता था।

सभी उनकी ओर देख रहे थे उत्तर की प्रतीक्षा में। किन्तु उन्होंने उत्तर देने की जगह प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया- “देश की इस गई गुजरी दशा का कारण क्या है”? कहने के साथ उनने एक बारगी सब की ओर देखा।

सभी मौन थे, किंतु बाहरी तौर पर भीतर तो सभी के अन्दर सुगबुगाहट चल रही थी। भला माँ को क्या बताएँ?

उत्तर न पा वह स्वयं बोली अरे! बताते क्यों नहीं? तुम लोग तो बहुत पढ़े लिखे हों नरेन! तू ही बता। इशारा एक सत्ताईस अट्ठाइस साल के तरुण की ओर था।

अज्ञान, शोषण कुरीतियाँ, यही सब न। युवक ने कहा। पर यह सब क्यों?

कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं का कारण तो अज्ञान है पर अज्ञान का कारण? क्या जवाब दें।

शरत् तू बोल, शशी तू बोल, निरंजन बू बता बेटा, राखाल तू कह, लाटू रे तू तो बहुत सोचता है तू ही कुछ कह तारक तू......। सब को एक एक बारगी पूछ लिया किन्तु कुछ सुझाई दे तब तो बताएँ। अद्भुत है यह माँ भी अब लो, बताओ अज्ञान का कारण। इसका कारण तो शाही जिन्दगी माथा-पच्ची करने के बाद आचार्य शंकर तक का नहीं मिला। आखिरकार हैरान-परेशान हो उनने अपनी सारी अला-बबता ‘माया’ के सिर थोप कर छुट्टी ली।

“नहीं ढूँढ़ पाए तो सुनो इन सब का कारण है अलगाव। यही सारी समस्याओं की जड़ है, यहाँ तक कि अज्ञान की भी।” सीधी-साधी पर सूत्रमयी भाषा में उनका समाधान था।


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