स्वर साधना, जागरण का माध्यम भी

July 1990

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“तोम दिर दिर, नादिर दिर दिर तोम” “त दिर न”। वातावरण संगीतमय हो उठा। स्वर लहरियाँ हवा के साथ लहराती हुई बलखाने लगीं। कभी बलवती सागर की तरंगों की तरह घोर गर्जना करती हुई प्रतीत होती तो कभी कान्त कुसुम की तरह कोमल बन कर हवा पर पग रखती हुई उड़ जातीं। सुनने वाले विभोर थे। चारों ओर भावों का सागर उमड़ पड़ा। ऐसा कीर्तन-संगीत और गीत की यह कलुष-नाशिनी धारा जिसमें दोषों के मैल स्वतः धुलते जा रहे थे। यत्किंचित् मन की गंदगी बचती भी तो वही गायिका की टिप्पणियों की पटकन से पलायन कर जाती। खड़े हुए लोग मानो अपना अस्तित्व खोने लगे। लगा जैसे सभी कुछ सौंदर्य, समस्वरता और सामंजस्य के सागर में विलीन हो जायगा। कहीं कोई विषम स्वर न था और न लय टूटती थी।

“जीवन भी एक वाद्य यंत्र है, जो समस्वरता और सामंजस्य के अभाव में बेसुरा हो रहा है। बँटती-बिखरती, टूटती जिन्दगी को यदि सँवारा जा सके, मन्द तार और मध्यम सप्तक के रूप में शरीर, आत्मा और मन भली प्रकार सक्रिय हो सकें तो होने वाली अनोखी स्वर सृष्टि जिन्दगी की सार्थकता सिद्ध किए बिना न रहेगी”। वाद्य यंत्र एक ओर रखते हुए उसने अपनी बात कही।

जन समुदाय मंत्र-मुग्ध हो सुन रहा था। सुनने वालों में से कई ऐसे थे जिन्होंने राजदरबारों में श्रेष्ठतम कलाकारों के गायन-वादन का रस लिया था। किन्तु वहाँ उन्माद था, यहाँ थी शान्ति। वहाँ दोष उद्दीप्त होते थे, यहाँ विलय हो रहे थे। वहाँ विलासिता का नर्तन था, यहाँ वैराग्य की सृष्टि, कैसा विरोधाभास है। शायद इसी कारण कुछ ने संगीत और विलासिता दोनों को एक दूसरे का पर्याय मान लिया था। अब तक उनके मन में संगीत के सम्बन्ध में जो भ्रान्तियाँ थीं, वे मिटती जा रही थीं क्योंकि सामने थी वैराग्य मण्डित दिव्य भावों की जीवन्त गौरवर्ण, तपश्चर्या के प्रखर तेज से युक्त उस देवी का दीप्तिमान मुखमण्डल जनश्रद्धा को बरबस अपनी ओर खींच लेता था।

तभी एक ने पूछ लिया-”देवी जी मैं आपके संगीत कीर्तन की बात कहना चाहता था। दरबारी संगीत की अपेक्षा यह.......।” अच्छा! अच्छा!! यह बात है, उसने सामने खड़े व्यक्ति के मनोभावों को पढ़ते हुए कहा-दोषी संगीत नहीं है। यह तो सिर्फ भावों का वाहन है। इसके माध्यम से लोकजीवन को कामुकता और विलासिता की कैद में डाला जा सकता है और इसी के माध्यम से जनजागरण भी किया जा सकता है-”जनजाग्रति भी।” आश्चर्य प्रकट करने के साथ वह स्वयं में झेंप-सा गया। झेंपा इसलिए, क्योंकि उसने इस जाग्रति को अभी कुछ क्षणों पूर्व अनुभव किया था। वही क्यों, सभी ने अपने अन्दर के सच्चे इंसान को अँगड़ाइयाँ लेते हुए महसूस किया था। फिर उसकी इस सोच-विचार से अनजान वह बोल उठी, “हाँ जनजाग्रति”। स्वर में तेजी थी, अँगुलियों की थिरकन संगीत सृष्टि नहीं करती। इसमें प्राण भरने के लिए स्वयं के प्राणों की प्रखरता चाहिए। आज के संगीत को तो विलासियों और व्यसनियों की गुलामी करनी पड़ रही है। उसकी पीड़ा देखकर स्वरों की देवी शारदा व्यथित है वे सामगान के उद्गाता ऋषिगण, जिन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके द्वारा की गई स्वरों की सृष्टि को हतभाग्य मनुष्य पाशविकता की ओर मोड़ कर तहस-नहस कर देगा”। हृदय की पीड़ा आँखों में छलछलाने लगी-प्रश्नकर्ता ही क्यों पास खड़े सभी इस दृश्य परिवर्तन को देखकर हतप्रभ थे।

इधर वह भावाविष्ट हो बोले जा रही थीं-”संगीत अब बनकर रहेगा- जनजाग्रति का माध्यम। ऐसा होगा और अवश्य होगा। शुरुआत मैंने कर दी है। मेरे काम को पूर्णता देने के लिए प्रभु स्वयं अनेकानेक रूप धर कर आएँगे-तीसरी सहस्राब्दी में प्रवेश होने के पूर्व ही”। जैसे वह अन्तर्चक्षुओं से भविष्य निहारने लगी, “धरती पर प्रेम-सुन्दरता और सामंजस्य का साम्राज्य होगा। तब तक एक-एका कदम आगे बढ़ने की कोशिश तो करो। लो उठो! अपने प्रयास में लग जाओ......।”

अंतश्चेतना की अतुल गहराइयों से निकले इन वाक्यों ने सब के मनों में चैतन्य ऊर्जा भर दी। संगीत द्वारा लोकजीवन में जागृति की शुरुआत करने वाली यह तपस्विनी थी मीराबाई। जिन्होंने अपने महान उद्देश्य के लिए राजरानी का वैभव छोड़कर वैराग्य का बाना पहना था। उनका कार्य इन्हीं दिनों पूर्णता प्राप्त करने वाला है। तोड़ फेंकें उन बेड़ियों को जिनसे संगीत की आत्मा संतप्त है, कलेवर जकड़ा पड़ा है। सुगम संगीत की स्वर लहरियों से झंकृत हो उठे जनचेतना। नगर-नगर, गाँव-गाँव, घर-घर और हर दिल में, नए जीवन का नया तराना गूँज उठे।


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