सप्त आयामीय चेतन सत्ता

July 1990

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मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक है। उसका मूल्याँकन खगोलकीय पिण्डों या पार्थिव वस्तुओं की तरह लम्बाई, चौड़ाई ऊँचाई आदि के त्रिआयामीय मापों द्वारा नहीं किया जा सकता। वह घनीभूत चेतना का पुँज है जिसकी एक से एक बढ़कर उच्चस्तरीय परतें हैं। गीता में वर्णित कीर्ति, श्रीवाब, स्मृति, मेधा, धृति एवं क्षमा जैसी दिव्य विभूतियों का वह स्वामी है। उसकी चेतना बहुआयामीय है जिसे दिक्काल की सीमा में भी नहीं बाँधा जा सकता।

भौतिक अनुभवों एवं उपलब्धियों से भी बढ़कर उच्चस्तरीय चेतनात्मक अनुभूतियों का भाण्डागार मानवी अन्तराल में भरा पड़ा है। साधना द्वारा अपनी चेतना का जो व्यक्ति जिस सीमा तक विकास कर लेता है, उसी अनुपात से वह आत्मिक प्रगति के उच्च सोपानों पर आगे बढ़ता और दिव्य क्षमताएँ अर्जित करता जाता है। योग एवं तप के द्विविध साधना उपक्रमों के आधार पर विकसित होती हुई चेतना अपनी अन्तिम स्थिति को पहुँच जाती है, जिसे ही पूर्णता की निर्वाण की प्राप्ति कहा जाता है। नर का नारायण में मनुष्य का देवत्व में परिवर्तन भी।

ब्रह्म विज्ञान में चेतना के सात आयामों की चर्चा की गई है। उन्हें सात लोक भी कहा जाता है। गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम करते समय सात व्याहृतियों का उच्चारण किया जाता है। भूः भुवः, स्वः, महः जनः, तपः, सत्यम्-यह सात व्याहृतियों सात लोकों की परिचायक हैं। इनकी चर्चा इस संदर्भ में होती है कि प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए हमें अगले आयामों में पदार्पण करना चाहिए। तीन लोक भौतिक हैं-भूः भुवः स्वः। इन्हें धरती पाताल और आकाश भी कहते। भौतिकी इसी सीमा में अपनी हलचलें जारी रखती है। अगले चार लोक सूक्ष्म हैं। चौथा भौतिकी और आत्मिकी का मध्यवर्ती क्षेत्र है। पाँचवाँ, छठा एवं सातवाँ लोक विशुद्ध चेतनात्मक हैं। इन्हें पदार्थ सत्ता से ऊपर माना गया है। इसे और भी अच्छी तरह समझना हो तो भूः भुवः स्वः को सामान्य जगत, तपः को चमत्कारिक सूक्ष्म जगत एवं जनः, महः सत्यम् को देवलोक कह सकते हैं। मनुष्य सामान्य जगत में रहते हैं। सिद्ध पुरुषों का कार्य क्षेत्र सूक्ष्म जगत है। देवता उस देवलोक में रहते हैं, जिसकी संरचना जनः महः, सत्यम् तत्वों के आधार पर की गई है।

प्रायः समझा जाता है कि उक्त सातों लोक ग्रह-नक्षत्रों की तरह वस्तु विशेष हैं और उनका स्थान कहीं सुनिश्चित है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। यह लोक अपने ही चेतन जगत की गहरी परतें हैं। इनमें क्रमशः प्रवेश करते चलने पर चक्रव्यूह को बेधन करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचना संभव हो सकता है। इस प्रगतिक्रम में सशक्तता बढ़ती चलती है और अंतिम चरण पर पहुँचा हुआ मनुष्य ही सर्व समर्थ बन जाता है। इसी को आत्मा की परमात्मा में परिणति कह सकते हैं।

महायोग विज्ञान के अनुसार सात लोक आकाश में ढूँढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं, वरन् आत्मसत्ता में सप्त चक्रों के रूप में विद्यमान हैं। भूः लोक मूलाधार में, भुवः लोक स्वाधिष्ठान में, स्वः लोक मणिपूरक में, महः लोक हृदय में, जनः लोक कंठ में, तपः लोक ललाट में तथा सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान हैं। इनकी जाग्रति ही चेतन सत्ता के सप्त आयामों के सप्त विभूतियों के रूप में, भौतिक और आत्मिक सफलताओं के रूप में देवी अनुग्रह बनकर उभरती हैं।

अध्यात्मशास्त्रों में वर्णित सात लोकों, सप्त ऋषियों सप्त प्राणों की व्याख्या-विवेचना पाश्चात्य अध्यात्मवेत्ताओं ने अपने ढंग से की है। उनकी स्थापना में ब्रह्माण्ड और पिण्ड को तत्सम माना गया है और चेतना के आयामों को सात लोकों की संज्ञा दी गई। प्रथम भौतिक शरीर को वे ‘फिजीकल बॉडी’ कहते हैं जो पंच भौतिक तत्वों से बना है इसे इन्द्रियगम्य भी कहते हैं जिसमें मात्र शरीरगत अनुभूतियाँ ही विकसित हो पाती है। इससे आगे उच्चस्तरीय परत “ईथरीक बॉडी’ है जो अदृश्य एवं सूक्ष्म चेतन स्वरूप है। इच्छा, आकाँक्षा, भाव संवेदना, इस शरीर के जागरण की विशेषताएँ हैं। ‘एस्ट्रल बॉडी सूक्ष्मतम, दिव्यस्वरूप सुव्यवस्थित विचारणाओं का तर्क शक्ति का केन्द्र है। सामान्यजनों से लेकर सभ्य सुसंस्कृत नागरिकों तक को इसी स्थिति में विकसित हुआ देखा जा सकता है।

किन्तु इससे ऊँची परतें दिव्य क्षमताओं से सम्पन्न अन्तराल की गहराई में छिपी रहती हैं। ‘मेण्टल बॉडी को प्रतिभा का केन्द्र माना जाता है। मनस तत्व की प्रबलता वाले इस क्षेत्र का विकास कला-सौंदर्य विज्ञान एवं उच्चस्तरीय कल्पनाओं के विकास की स्थिति है। मनीषी, विचारक, कवि, कलाकार, वैज्ञानिक इसी भावलोक में विचरण करते हैं। समस्त सांसारिक भौतिक उपलब्धि, श्रेय-सम्मान इसी मानव शरीर के विकास की परिणति हैं। इससे आगे की विकसित अवस्था स्प्रिचुअल बॉडी कहलाती है। इस पाँचवे आयाम में अतीन्द्रिय क्षमताएँ सन्निहित मानी जाती हैं। भविष्य कथन, दूरश्रवण दूरानुभूति, पूर्व बोध आदि चमत्कारी दिव्य अनुभूतियाँ इसी से सम्बन्धित हैं। छटा आयाम-’कास्मिक बॉडी अर्थात् देव शरीर है। इसके विकसित हो जाने पर मानवी अन्तःकरण देवत्व से ओत−प्रोत हो जाता है। सातवें स्तर ‘बॉडीलेस बॉडी’ तक पहुँचा हुआ साधक ब्रह्म से सम्बन्ध स्थापित कर उस जैसा ही बन जाता है। वेदान्त की अद्वैत स्थिति यही है। सृष्टि संतुलन बिठाने एवं लोक मंगल के लिए जीने वाली अवतारी आत्माएँ सातवें शरीर में पहुँची आत्माएँ होती है। वे निर्विकार, निर्लिप्त एवं निस्पृह बने रहकर अनेकानेकों को अपने साथ तारती देखी जाती है।

अनुसंधानकर्ता परामनोवेत्ताओं एवं गुह्य विज्ञानियों का कहना है कि चेतना के विभिन्न आयाम वस्तुतः अपनी ही आत्म सत्ता के सूक्ष्म केन्द्रों में सन्निहित हैं। उनके अनुसार निम्न स्तरीय कायिक चेतना का सम्बन्ध मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र से है, तो मणिपूरक का अतीन्द्रिय चेतना से। अनाहत चक्र को साइकोकाइनेसिस का केन्द्र माना जाता है। विशुद्ध एवं आज्ञा चक्र दिक्काल से पूर विश्वचेतना से संयुक्त अति समर्थ परतें हैं तथा सहस्रार सुपर चेतना का आधार है।

अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ. हरवर्ट के अनुसार उक्त तथ्य यह रहस्य उद्घाटित करते हैं कि चेतना के कितने ही धरातल अथवा रहस्यमय अनुभूतियों के आयाम हैं। वर्तमान भौतिक जीवन से परे भी जीवन सातत्य विद्यमान है जो उच्च आयामों को अपने अंदर समाविष्ट रखता है। जैसे’जैसे चेतना का विस्तार एवं परिष्कार होता जाता है, वह ऊर्ध्वारोहण करती जाती है और दिव्य क्षमताओं के द्वार खुलते जाते हैं। उनके अनुसार सत्कर्मों के आधार पर ही अनुभूतियों का एवं भविष्य का निर्धारण होता है।

वस्तुतः अभी हम जिन अनुभवों के चेतना-के धरातल पर निवास कर रहे हैं, वह द्विआयामीय या त्रिआयामीय हैं। सत्य का अनुभव भी हम इन्हीं आधारों पर करते हैं। गुह्यविज्ञानी एडगर कैसी का कहना है कि जब हम तीसरे आयाम को ही भलीभाँति नहीं जानते जिसमें हम सभी निवास कर रहे हैं, तो फिर उच्च आयामों को कैसे जान सकते हैं? उनके अनुसार चौथा आयाम सद्भावना का सद्विचारणा का है परन्तु यह कहाँ से आरंभ होता, कहाँ पर समाप्त होता और किधर प्रक्षेपित या प्रयुक्त होता है कहा नहीं जा सकता। यह अन्तहीन है। चार दशक पूर्व मनीषी प्रवर आइन्स्टीन ने विश्व-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अनेक आयामों की संभावना व्यक्त की थी और कहा था कि जब मनुष्य चतुर्थ आयाम के तथ्यों को कार्य रूप में परिणत करने लगेगा तब उसका ज्ञानबोध अब की तुलना में अनेक गुना अधिक बढ़ जायेगा। साथ ही ऐसी शक्ति हस्तगत होगी जिसे चमत्कारिक कहा जा सके।

उच्चस्तरीय आयामों में पाँचवाँ, छठा एवं सातवाँ आयाम पदार्थ सत्ता से परे हैं। ये विशुद्ध रूप से चेतना से सम्बन्धित है, किन्तु यदि चतुर्थ आयाम की जानकारी एवं प्रभाव-परिणाम से ही हम अवगत हो सकें तो हमारे सम्पूर्ण बोध क्षेत्र में उथल-पुथल मच जायेगी। जिन व्यक्तियों को अभी हम अपना मान बैठे हैं, वे भी पराये दीखने लगेंगे अथवा पराये भी अपने हो जायेंगे। व्यक्ति एवं वस्तु के प्रति वर्तमान मोह का दुराग्रह टूट जाने और पदार्थ एवं जीव का वास्तविक स्वरूप विदित होने पर उसे भ्रम जंजाल से छुटकारा मिल सकेगा जिसमें सामान्यतया हम सभी आबद्ध रहते हैं। चेतना का उच्चस्तरीय विकास कर लेने पर हमें उस तत्वदर्शन की सत्यता का भी बोध होगा जिसमें ऋषियों ने आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की -’सर्वखल्विदं ब्रह्म की कल्पना की है।


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