ईश्वर कैसा है व कहाँ है?

July 1990

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स्व. डॉ. श्रीमती मनोरमा कौशिक

आदिकाल से अब तक के मानवी इतिहास का अध्ययन करें तो हम पायेंगे कि चाहे मनुष्य विश्व के किसी भी कोने का रहने वाला हो, वह सदा एक ऐसी सत्ता का अनुभव करता रहा है, जो उससे बड़ी हो, फिर चाहे वह ईश्वर हो, गॉड हो, मोनाठ हो, खुदा अथवा अननोएबिल कुछ भी हो, पर है अवश्य। प्रायः सबने उसकी निराकार कल्पना की है पर यदि उसका साकार स्वरूप देखना हो, तो उसकी छवि मनुष्य के रूप में ही देखी जा सकती है।

हिन्दू धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद के मंडल 1 सूक्त 24 में इस संबंध में लिखा है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में निवास करते हुए हमें दोष-दुर्गुणों में फँसने से बचाने की क्षमता रखता है। उसकी प्रार्थना से दुष्कर्मों का विनाश और सत्कर्मों का विकास होता है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् (3/20) में कहा गया है कि जो संसार के सभी भौतिक तत्वों से सूक्ष्म और बृहत् है, उसी को परम अविनाशी तत्व अथवा परब्रह्म की संज्ञा दी गई है।

बुद्ध के उपदेशों और आदर्शों से समूचा मानव समुदाय प्रभावित होने लगा तो बहुत से लोगों ने उनके समक्ष जाकर पूछा-’आप कौन हैं? क्या आप ईश्वर हैं? देवदूत हैं? अथवा साधु?’ बुद्ध ने कहा “नहीं मैं यह सब कुछ नहीं हूँ फिर लोगों ने पूछा तो आप क्या हैं? प्रत्युत्तर में उनने कहा “मैं बुद्ध हूँ”। इसी उत्तर ने उनके नाम का स्वरूप ग्रहण कर लिया। बुद्ध का अभिप्राय ही होता है- ज्ञानवान -प्रज्ञावान। उस समय बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व संबंधी व्याख्या को भले ही टाल दिया हो, पर अनुयायियों के अन्तराल में किसी समर्थ सत्ता के विद्यमान होने की भावना को अवश्य जगा दिया। बौद्धों के धर्म ग्रन्थ ‘असंग’ और ‘मध्यमिका कारिका’ में यही लिखा है कि ‘वह है भी और नहीं भी। न वह इस तरह है और न किसी तरह। वह न पैदा होता है न बढ़ता है, न मरता है। वह कोई एक चीज नहीं है न उसका अस्तित्व है, न वह अस्तित्वहीन है। न वह दोनों से अलग है। इन अवस्थाओं से परे शाश्वत सत्य ही ईश्वर है। जो लोग मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हैं वे ही उस परमात्म ड़ ड़ ड़ ड़ के स्वरूप को भली भाँति समझ सकते हैं बौद्ध धर्म में ‘महायान’ और ‘हीनयान’ दो प्रकार के मत प्रचलित हैं। महायान सम्प्रदाय के लोग दया और करुणा को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता मानते है। सदाचरण के अभाव में ज्ञान की उपलब्धि निरर्थक ही समझी जाती है, जबकि हीनयान मार्ग के समर्थक एक मात्र ज्ञानवान बनने पर ही बल देते और इसे परमात्मा की प्राप्ति का प्रमुख आधार मानते है।

जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर को वीतराग और जितेंद्रिय कहा गया है। जिसके राग-द्वेष बीज चुक हों, उसे वीतराग और इन्द्रियों को जीत कर वशवर्ती बनाने वाले को जितेंद्रिय के नाम से जाना जाता है। जैन धर्म ग्रन्थों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि 24 प्रकार के अध्यात्मवेत्ताओं ने इस धर्म को अपने-अपने मतों से परिपुष्ट किया। जिन्हें तीर्थंकर के नाम से पुकारा जाता है। वे किसी देवी देवता को नहीं मानते। उनका ईश्वर जिन है यानी जन्म-मरण से मुक्त आत्मा ही परमात्मा है। “जैसा करोगे वैसा भरोगे” उनका अकाट्य सिद्धान्त है। उनके प्रत्येक तीर्थंकर के साथ ‘पंचकल्याण की घटना अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। स्वर्ग से अवतरण, धरती पर जन्म लेना, तपस्वियों की तरह दिनचर्या बिताना सर्वज्ञता की प्राप्ति और निर्वाण की उपलब्धि आदि की घटनाएँ तीर्थंकर की विशिष्टता को ही प्रकट करती है। दूसरे शब्दों में इन्हीं को परमात्मा तत्व की विशेषताएँ भी कहा जा सकता है हर व्यक्ति अपने साधनात्मक प्रयत्न से इस परम स्थिति तक पहुँच सकता है। जैन धर्म ग्रन्थों में ईश्वर के अस्तित्व का वर्णन इस प्रकार भी देखने को मिलता है “मैं उस निरंजन को नमस्कार करता हूँ, जो अनेक में एक है और एक में अनेक है और जो न एक है और न अनेक में है

गुरु नानक ने ठीक ही कहा है ‘काहे रे मन! बन खोजन जाई। सरब निवासी सदा अलेखातो संग रहत सदाई”। अर्थात् ऐ मेरे दिल! तू क्यों जंगलों में खोजने जाता है वह परमात्मा तो सबके अंदर विराजमान है। सब जगह विद्यमान है, पर दिखाई नहीं देता। जिस प्रकार फूल में सुगंधि छिपी रहती है वैसे ही परमात्मा भी सब के दिल में बसता है।”

पारसी धर्म में ईश्वर के लिए “आहूर मजूद” शब्द प्रयुक्त किया गया है। सरगाँन के असुरियन शिलालेख में 615 ईसा-पूर्व भी इस नाम का अस्तित्व देखने में आया है। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुस्त्र ने अपनी भजनमाला और प्रार्थना में इसी शब्द को बार’-बार प्रयोग किया है। उनके कथनानुसार आहूर-मजूदा का निवास स्वर्ग की उच्चतम स्थिति में अवस्थित है, समूचे भूमण्डल पर है और पवित्र एवं पुण्यात्माओं के हृदय में भी। वह दैवीय गुणों से सम्पन्न और सामान्यजनों से महान और श्रेष्ठ है। वह सद्बुद्धि का अधिष्ठाता भी कहा जाता है इसलिए उसे बुद्धिमान स्वामी’ भी कह कर पुकारते हैं। उसकी विवेक बुद्धि के आधार पर ही इस सृष्टि की संरचना संभव हो सकी है। वह सर्वज्ञ, दूरदर्शी और सर्व-दर्शी है। त्रिकालदर्शी उसी को कहा गया है। उनकी स्तुति में ‘खत’ और चिस्ति’ सद्बुद्धि के लिए प्रयुक्त किये गये हैं, यानी मानवी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करने वाली शक्ति को ही ईश्वरीय सत्ता के नाम से पुकारा जाता है।

जरथुस्त्र ने अपने प्रतिपादनों में जिस ‘आशा’ शब्द का प्रयोग किया है, उसकी संगति वेदों के ऋतु के साथ बैठती है। ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा इसी को कहते हैं। ईरानी में ‘अर्त’ और अरेता के नाम से प्रख्यात है। प्राचीन फारसी आलेखों में ‘अर्त’ वस्तुतः दिव्य सत्ता की सत्प्रेरणाओं के लिए ही प्रयुक्त होता है।

ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल में ईश्वरीय सत्ता का वर्णन इस प्रकार है “मैं ही आदि हूँ और मैं ही अंत हूँ। मेरे सिवा कोई नहीं है। मैं वह रोशनी हूँ जो हर आदमी को रोशन करती है। मैं नहीं रहूँ तो तुम कुछ नहीं कर सकते हो”। ईसाई लोग प्रार्थना में इसी समर्थ सत्ता की आराधना करते और कहते है’हे परम पिता तू स्वर्ग में रहता है, पर हम स्वर्ग इसी धरती को बनायेंगे। मैथ्यू 5,44,45,47 में यही लिखा है कि परमपिता सब प्राणियों के प्रति समता और एकता का भाव रखता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी उसी के अनुरूप अपनी मनोवृत्ति का निर्माण करना चाहिए। ईसा के अनुसार ईश्वर एक ऐसे विवेकवान गड़रिये की तरह है जो समूचे भेड़ समुदाय को खाई-खड्ड में गिरने से बचाता और हित साधन का रास्ता दिखाता है। सेंटपॉल ने प्रथम काँरिथियन्स के तेरहवें अध्याय में परमात्मा की स्नेह सहकार की प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि उससे कोई दो कदम साथ चलने को कहे, तो वह उसके साथ एक मील तक जाने का उत्साह दिखाता है, किन्तु शत्रु एक ही है कि वह उसका सुपुत्र हो उसका अनुशासन पाले स्वयं ऊँचा उठे और दूसरों को आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने का दायित्व निभाये, तभी परमपिता भी पग-पग उसके साथ चलने का अपना वचन निभाते हैं अन्यथा अनुशासनहीन कुपात्रों की तरह उसकी उपेक्षा कर देता है।

“यदि भक्ति में कटौती करके सेवा में समय लगाना पड़े तो उसे घाटा नहीं समझना चाहिए।

भक्ति बिना, स्वर्ग हाथ से जा सकता है, पर सेवा के बिना तो आत्मा ही सड़ जायेगी।”

इस प्रकार विश्व के लगभग सभी धर्मों ने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा है और उसकी व्याख्या विवेचना एक कल्याणकारी सर्वोच्च सत्ता के रूप में की है। अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक थोरो तब मृत्यु शय्या पर अपनी अन्तिम साँसें गिन रहे थे, तो किसी ने उससे पूछा “क्या आपने ईश्वर से मित्रता कर ली है?” थोरो ने बड़े सहज भाव में उत्तर दिया “मेरी उससे शत्रुता ही कब थी। यदि इस संसार में सचमुच ही ईश्वर है, तो मैं उसकी मनुष्य में झाँकी करता हूँ और एक मानवतावादी होने के नाते उसकी सेवा सहायता में ही भगवान की भक्ति समझता हूँ। “इनके इस कथन की संगति प्रसिद्ध दार्शनिक मार्क ट्वेन के उस कथन से शब्दशः बैठ जाती है, जिसमें उनने कहा था कि “मेरा भगवान न गिरिजाघर में है न क्रूस में, मेरा भगवान तो चलता फिरता मनुष्य है वह मनुष्य जिसकी मैं अब तक सेवा करता आया हूँ।” सचमुच आने वाली सदी का भगवान मनुष्य रूप में ही होगा, तभी यह पृथ्वी उनका निवास अर्थात् स्वर्ग बन सकेगी।


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